आखिर क्यों नजीब की “माँ” का दर्द हमारी “माँ” के दर्द से अलग है ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans


माँ”, हमारे समाज में ये शब्द इतना जज्बाती हैं के इसके आगे हर समुदाय से जुड़ा इंसान नतमस्तक हो जाता हैं, हमारे देश में, ईश्वर से उँचा दर्जा माँको दिया गया हैं. २०१४ के चुनावो में नरेन्द्र मोदी जी भावुक होकर अपने भाषणों में माँका जिक्र करते थे. उसी तरह राहुल गांधी भी अपनी माँसे इतना प्रेम करते थे और अपनी माँको खोने के डर से वोह नही चाहते थे की उनकी माँदेश की प्रधान मंत्री बने. लेकिन आज देहली की सडको पे एक माँरो रही हैं उसकी थकी हुई आखे अपने बेटे नजीबको खोज रही हैं लेकिन क्यों कोई इस माँकी सुध नही ले रहा ? क्या बदलते हुये दोर में बेटे या माँकी व्यक्तिगत सामाजिक स्थती ही माँके जज्बातों को इज्जत बख्स सकती हैं तो उस माँका क्या जो की एक आम परिवार से और एक आम इंसान की माँहैं ? क्या इस तक़रीर पर अब हम माँके जज्बातों के सामने सर झुकायेगे ?

हम आज इस कदर अस्वेद्न्हीन और स्वार्थी होते जा रहे हैं, और हमने अपने आप को अपनी जाती और धर्म के दायरे में इस तरह से कैद कर लिया हैं की किसी पराये पे हो रहे जुर्म को देखने से भी मना कर रहे हैं. हम किसी के रोने की आवाज को सुनने से भी मना कर रहे हैं. आखिर यही तो वजह होगी की कोई आवाज नहीं सुनायी दे रही इस माँके साथ खड़े होने के लिये. कोई ज़ुबान से कोई नारा नही निकल रहा और इस दुख में कोई हाथ हवा में जन-शक्ति बन कर नही उठ रहा. लेकिन माँतो माँहैं, वोह भूखो प्यासी अपने बहते हुये आसुयो के साथ देहली की हर सड़क से पूछ रही हैं की कही मेरा बेटा यहाँ से तो नही गया ? वोह उस हर सरकारी बाबू से पूछ रही हैं की कही कोई मेरे बेटे की खबर तो नही आयी ? वोह उस पुलिस की भी मीनतै कर रही हैं की मेरा नजीब मुझे लोटा दो. लेकिन बदले में इस माँ को जबरन गिरफ्तारकिया जाता हैं. शायद सवालों का पूछे जाना हमारी पुलिस को भी अब अच्छा नही लगता.

देहली का मीडिया जो की देहली की खबरों को भी इमानदारी से नही दिखा सकता लेकिन खुद को राष्ट्रीय मीडिया कहने में भी सम्मान मेहसूस करता हैं, अब उसका मूल्यांकन करना भी अनैतिक सा लगता हैं खासकर जब उसकी नजर हिसार में हुये एक दुःखद आतमदाह पे तुरंत चली जाती हैं लेकिन अपने कही आस पास ही हफ्तों से घूम रही इस माँके दर्द की सिसकियो को बयाँ करने मैं संकोच कर रही हैं और जो अब नजीब के इतने दिनों के बाद छीट पुट मीडिया कवर मिल भी रही हैं वोह भी नाकाबीलेय तारीफ़ हैं. लेकिन इन्टरनेट के इस जमाने में और JNU के कुछ विधार्थियों द्वारा चलाई गयी मुहिम के वजह से ही आज देश का कोना कोना नजीबके गुम होने से वाकिफ हैं. वोह उस माँकी सिसकियो को भी सून रहा हैं जिसने एक प्रोग्राम में सख्सियत दे रहे लोगो को भी रोने को मजबूर कर दिया था. लेकिन जनाधार का इस अदोलन से ना जुड़ना ही एक वजह हैं की इतने दिनों बाद भी कोई उम्मीद नही दिख रही नजीब के मिलने की. तो क्या हर खोये हुये नजीबको लाने के लिये अदोलन करना पड़ेगा ? अगर हाँ, तो क्या मायने हैं हमारी आजादी के. अगर न्याय के लिये आज भी सडको पर उतरना पड़ रहा हैं तो क्या सिर्फ वजीर ही बदला है १९४७ के बाद और कुछ नही.

आज हम सिर्फ ये सोच कर अपने घरों में बैठे हैं की नजीबहमारा बेटा नहीं हैं और ना ही कोई हमारा रिश्तेदार था. लेकिन अगर इस रिपोर्ट  पे नजर मारे तो हर साल बच्चो के गुम होने के अपराध बडतै जा रहे हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार हर रोज हमारे देश में से लगभग १८० बच्चे गुम होते हैं और उसमे से भी सिर्फ २२ बच्चे हमारी देश की राजधानी से गुम होते हैं जिसकी कानून व्यवस्था का जिमा हमारी केंद्र सरकार पर हैं. /*लेकिन इस माँफातिमा नफीस और उन सारे गम होये बच्चो की माँओमें क्यों हमारे देश के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी को अपनी माँहीरा बेन नजर नही आ रही. मोदी जी अक्सर अपनी २०१४ की चुनावो की रैलियों में अपनी माँकी तकलीफों का जिक्र बडै भावुक होकर किया करते थे. वोह ये कहने मे भी नही हीच कीचातै थे की उनकी माँ ने किस तरह लोगो के घर में बर्तन साफ़ कर उनकी परवरिश की थी. फिर इस आदर्श पुत्र मोदी जी को क्यों इस माँफातिमा नफीस का दर्द नही दिख रहा.*/ ये गुम हुये बच्चो की सख्या युही बढ़ती रहेगी जब तक एक आम भारतीय नागरीक को नजीबमैं अपना बच्चा नरेश, नवदीप या नाथन नजर नही आता और वोह सडको पर सिर्फ नजीब के लिये नही बल्कि अपने बच्चो की सुरक्षा के लिये नारा नहीं लगाता. वोह नजीबके दर्द को अपना दर्द नही बनाता तब तक इस तरह की और भी घटनाओं के होने का अंदेशा बना रहेगा. बस माँतो रोती हुई मिलेगी लेकिन नजीब की जगह गुम हुये बच्चे का नाम बदल जायेगा.


अंत में मेरे पास लफ्ज नही हैं इस माँके दिल की व्यथा बयान करने के लिये. माँका दिल इतना बड़ा होता हैं की उसमे पूरी कायनात समा सकती हैं लेकिन इस चीक और पुकार इस गुलशन को भी अपने आसुऔ से डुबो सकती हैं. अंहकार की इस व्यवस्था पे मैं एक ताना तो जरूर कसुंगा की इतना मत रुलाओ हमे के हमारी इंतिहा खत्म हो जाये”. आज नही तो कल जलस्लाब आयेगा और इस माँके साथ हिंदुस्तान की हर माँजुड़ जायेगी और उसका हर बच्चा सडको पे होगा तब शायद हमारी कानून व्यवस्था अपनी जमीन को तराश कर रही होगी. शायद तभी ही इस तरह कोई और नजीबअपनी माँफातिमा नफीस से गम ना होगा. जय हिंद.

No comments:

Post a Comment