नजीब के सिलसिले में अगर सवाल कहा तो जवाब के बदले और कई सवाल, बस सवाल होंगे ?

मैने बस इतना ही पूछा था “कब ?”, “क्यों ?”, “कहा ?”, और सामने से जवाब आया “भाई यहाँ, सवाल करने की आजादी नहीं हैं.”. मैने फिर पूछा “कब ?”, “क्यों ?”, “कहा ?”, और सामने से फिर जवाब आया “तुम्हें सुनाई नही देता, बहरे हो क्या ? यहाँ सवाल पूछने की जरूरत नहीं हैं. होंठ सिल दिये जायेगे अगर ज्यादा कुछ पूछोगे”.मैने फिर अपने अधूरे सवाल को पूरा किया “ मैं नजीब के बारे में पूछ रहा हु, कहा हैं ? क्यों हैं ? और कब से हैं ?” बस इतना कहने की देरी थी एक अजीब सा सन्नाटा छा गया. लेकिन फिर अचानक से, साम्प्रदायिक निगाहे मुझे बड़ी हैरानी से देखने लगी, इस साम्प्रदायिक तलवार में चमक बड़ी ही गहरी हैं जो आखो को बंद करने पर मजबूर कर रही थी लेकिन इस दौरान मुझे वह असांप्रदायिक ढाल नही दिखाई दे रही हैं जो अक्सर चुनावी समय के दौरान भारतीय समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय मे बाटकर अपनी राजनीति गणित को ताकत देती हैं.

इन दिनों एक अजीब सा दोर हैं, या तो सवाल पूछे जाने पर सवाल होते हैं या बीना सवाल पूछे कई जवाब मिल जाते हैं. जिस तरह से आजकल सोशल मीडिया पे नजीब के मसले को साम्प्रदायिक रंग दिये जाने की कोशिश की जा रही हैं. बिना पूछे की नजीब कोन था? उसके बारे मैं बताया जा रहा हैं. लेकिन सच्चाई का कोई जिक्र भी नहीं होता. दरअसल, नजीब २७ साल का मध्यवर्ग से आनेवाल एक क़ाबिल बायोलॉजी का विद्यार्थी था और उसने अभी अभी JNU को अगस्त २०१६ में join किया था. आप जानते ही होंगे की JNU की एंट्रेंस एग्जाम पास करना कितना कठिन हैं जबकि नजीब ने JNUके सिवा कई और युनिवर्सिटी के एग्जाम भी पास भी किये थे लेकिन तब्ब्जू JNU में पड़ने को दी थी. अब एक और सवाल पूछा जा रहा हैं, जिसमें माँ के सामने माँ को खड़ा किया जा रहा हैं की नजीब की माँ के दर्द के सामने हमारी सीमा पे खड़े नोजवान की माँ के दर्द से तुलना की जा रही हैं. तो इस रिपोर्ट  को पड़ने की जरूरत हैं जहाँ उरी में शहीद हुये नोजवान गंगाधर dolui ,जिन के अंतिम संस्कार के लिये उनके पिता ने पड़ोस से १०,००० रुपये उधार लिये थे. और गंगाधर ही थे इस पूरे परिवार की आय का ज़रिया थे. उनके सेना में जाने से पहले उनके पिता मजदूरी करके अपना निर्वाह करते थे. इस दर्दनाक सच के सामने कहा हैं हमारी राज्य और केंद्र सरकार ? कोई भी नही हैं सोशल मीडिया पे इस दर्द को बयान करने के लिये कोई भी नोजवान नही दिख रहा. एक और सत्य हैं सुरजन सिंह भंडारी के रूप में, ये NSG कमांडो थे और २००२ के अक्षरधाम पे हुये आतंकवादी हमले में बुरी तरह घायल हुये थे और इनका देहांत २००४ मई में इलाज के दौरान हुआ था. क्या इन दो सालो में कही भी इस जवान के जिक्र हुआ था ? कोई बड़ा नेता गया था इनको सहानुभूति देने, शायद नहीं ? में यहाँ एक बिनती जरूर करूंगा की नजीब को वपिस लाने की इस मुहिम में कुछ JNU के विद्यार्थी ही हैं जो की हर मज़हब से हैं और नजीब की माँ और बहन जिनका दर्द उनकी ज़ुबान और आसुयो में बह रहा हैं. ये कही भी नजीब के मज़हब का जिक्र नहीं कर रहे. इस मुहिम में  कोई भी मंदिर का पंडित या मस्जिद का इमाम हाजिर नही है तो भाई सोशल मीडिया के जवान तुम से आग्रह है की इस मुहिम को बहुसख्यंक और अल्पसंख्यक समुदाय में ना बाटे.

अब उस ढाल का भी यहाँ जिक्र करना जरूरी हैं जो खुद को असांप्रदायिक ताकत का नाम देती हैं और चुनावी दोर में अक्सर ये हिन्दू और मुस्लिम टोपी पहनने में झिझक नही करती. चुनाव के पेहले भी ये ईद पे मुबारक बाद देते है. और चुनाव के बाद भी मुबारक बाद का सिलसिला युही चलता रहता हैं ताकि आने वाले चुनावो की पृष्टभूमि तैयार की जाये. लेकिन सड़क पे आज नजीब की माँ अकेली नजीब को खोज रही हैं. कहा हैं वह सारी असांप्रदायिक ताकतै ? इससे इन ताकतो की मंशा पर भी सवाल उठता हैं. लेकिन एक तरह से इनकी नामोजुदगी कही ना कही नजीब की मुहिम को साम्प्रदायिक और असांप्रदायिक रंग देने से रोक भी रही हैं. आखिर ये सत्य सोशल मीडिया के नौजवानी को क्यों नही दिख रहा ? लेकिन हमें, एक आम आदमी को सवाल पूछने का हक़ कहा हैं ये तो बस सोशल मीडिया के जवान के पास ही है.

अंत, में उस व्यवस्था का जिक्र ज़रुर करूंगा जो अपनी ताकत में इतनी अहंकारी हो चुकी हैं की किसी आम इंसान के संविधानिक अधिकार को और उसकी आवाज को सुनने से ये साफ़ मना करती हैं. और एक आम आवाज जब आंदोलन के रूप में उभर कर आती है तब उसे कुचलने के कई प्रयास किये जाते हैं और इसमें प्रबल हथियार हैं की आंदोलन को साम्प्रदायिक और असांप्रदायिक रंग दे दो. तो चलो हम उसी सवाल को “कब ?”, “क्यों ?” और “कहा ?” को पूर्ण सर्वरूप दे कर पूछते हैं की “कहा हैं वोह हमारे भारतीय बच्चे जो सालो से, महीनों से और कई दिनों से गुम हैं?.” में ये सवाल हर उस माँ बाप से करता हु जो भीड़ भाड़ वाले बाजार मे अपने बच्चो को साथ ले जाने से डरते हैं. आखिर कब तक ये डर हमारे मन मे रहेगा, हमे अदोलन करना होगा, सोचिये, आज नजीब की माँ हैं कल हम भी हो सकते हैं. हमें अपने अधिकारों के लिये और अपनी सुरक्षा के लिये, जिस तरह से भी हो सके नजीब की आवाज में अपनी आवाज को एक सुर करना होगा. जब हाथ से हाथ मिलेगे और हर ज़ुबान बोलेगी एक नारा “हमारी सुरक्षा”. तभी ये सोया हुआ प्रशासन जागेगा. नही तो इससे कोई भी उम्मीद करना बेईमानी सी होगी. जय हिंद.

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