सिर्फ कागज और छपाई बदल जाने से क्या काले धन पर रोक लगाई जा सकती हैं ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans

  


बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने ये सार्वजनिक किया हैं की नये ५ पौंड के नोट में पशु की चर्बी को भी मिलाया गया हैं. इस नोट में प्लास्टिक पोल्य्मोरे का इस्तेमाल किया गया हैं जिसमें पशु के मास से बनाया गया तेल को शामिलकिया गया हैं. प्लास्टिक के नोट पहले भी चलन में थे लेकिन इनमें पशु चर्बी तेल का इस्तेमाल शायद पहली बार किया गया हैं.बैंक की दलील हैं की इससे ये नोट को आसानी से फाड़ा नहीं जायेगा और इस पर पानी के गिरने से यहाँ तक अगर वाशिंग मशीन में इसे धो भी दिया जाये तभी इसे सुखा कर फिर से कार्य रूप लाया जा सकता हैं. इसका विरोध करने पर ये कहा जा रहा हैं की आज अमूमन हर चीज़ में जिसे हम उपयोग कर रहे हैं फिर चाहे वह बटुआ हो या प्लास्टिक हर चीज़ में कही ना कही पशु की चर्बी का इस्तेमाल तो हो ही रहा हैं तो फिर इसका उपयोग एक नोट में करने से किसी को कोई आपत्ति नही होनी चाहिये.

इसी संदर्भ में जब जानना चाहा तो पता चला को आज प्लास्टिक बैंक नोट का चलन काफी प्रफुलित हो रहा हैं कुल मिलाकर २० से ज्यादा देश इस तरह के नोटों को चलन में ला चुके हैं और इनमें नेपाल और मालदीव जैसे देश भी शामिल हैं. इनकी दलील हैं की ये कागज के नोट से ज्यादा चलते हैं, इनकी नष्ट होने की संभावना काफी कम होती हैं और शायद इसलिये इनकी बनावट पर लागत भी बहुत कम आती हैं. एक दलील और भी हैं की कागज के नोट बंद करने से कही ना कही वनस्पतियों और वातावरण को बचाया भी जा रहा हैं. अब ये कहना तो मुश्किल हैं की इस सब देशों के नोटों में पशु की चर्बी का उपयोग हैं या नही, अगर हैं तो एक तरफ जीव हत्या का अपराध हैं लेकिन दूसरी तरफ वातावरण को बचाने की भी सोच हैं, खासकर जब आज हम ग्लोबल वार्मिंग का खतरा हमारे घर के दरवाजे तक पहुंच चूका हैं.

प्लास्टिक के नोट में वह सारे सुरक्षा के उपाय तो हैं ही जो की कागज के नोट पे आप कर सकते हैं उदाहरण के लिये वॉटरमार्क लेकिन इसके सिवा भी कई और नये तरीके ईजाद किये गये हैं जिससे प्लास्टिक के नोट को बड़ी आसानी से ट्रैक किया जा सकता हैं जिस तरह इन्ताग्लियो ये एक प्रिंट करने की तकनीक हैं जो की आम प्रिंट से बिलकुल उल्ट हैं. इसे बड़ी आसानी से धारक पहचान सकता हैं. इसमें नोट की प्रिंटिंग को ट्रांसपेरेंट बनाया जा सकता हैं और एक ही चिन्ह को नोटके आगे और पीछे से देखने पर अलग अलग रंगों को दिखाया जा सकता हैं.. इस तरह की बनावट से नकली नोटों के चलन को भी रोका जा सकता हैं और इससे होने वाले अपराध फिर चाहे आतंकवाद ही क्यों ना हो उन पर भी किसी हद तक लगाम लगाई जा सकती हैं. और सरकारी समय और खर्च जो की इस तरह के अपराधी की छान बीन पर होता हैं, वह भी काफी हद तक कम की जा सकती हैं. इस तरह के नोट को इस्तेमाल करने में बस एक ही दिक्कत हैं की ये आसानी से मोडा नही जा सकता या इसकी तह नही लगाई जा सकती, तो आप को इसे रखने के लिये हो सकता हैं एक लम्बा सा बटुआ लेना पड़ जाये.

प्लास्टिक नोट में सिक्योरिटी चिप्स लगाने के बारे में भी क़यास लगाये जा रहे हैं. अगर ये वास्तव में मुमकिन हो गया तो इससे काले धन पर काफी हद तक रोक लगायी जा पायेगी. नोट जो की चलन में हैं और जो चलन में नहीं भी हैं उनका डाटा भी इकट्ठा किया जा सकता हैं. और इसी तरह अगर नोटों को विदेश में किसी बैंक में चोरी से भिजवाया गया हैं तभी इनकी जानकारी इक्कठी की जा सकती हैं. जिस तरह से आज टेलिफोन की सिम को ट्रैक कर हमारी पुलिस काफी तरह के अपराध को सुलझाने में कामयाब रही हैं जिसकी परिकल्पना मोबाइल फोन के आने पर किसी ने भी ना की होगी इसी तरह नोट में सिक्योरिटी चिप्स या RFID आ जाने से कई इस तरह के अपराध पर अंकुश लगाया जा पायेगा जिस की परिकल्पना भी अभी नही की जा सकती हैं. शायद इस तरह के प्रयोगों से इमानदार वास्तव में बच जायेगे और बेईमान के लिये शिकंजा और बड़ा हो जायेगा. ध्यान रहे इस तरह की सिक्योरिटी चिप्स कागज के नोट में लगाना वास्तव में काफी मुश्किल हैं अगर लगा भी दिया तो इससे छेड़ छाड़ होने की आकांक्षा हमेशा बनी रहेगी.

अब अगर इस तरह के नोटों का प्रयोग हमारे देश में करना हो तो कितना मुश्किल हैं. सबसे पहले हमारे लिये धर्म सबसे बड़ा हैं और इसके सामने इंसानी जिंदगी या वातावरण कोई मायने नही रखता. तो प्लास्टिक के नोट में किसी भी तरह की पशु मास या तेल को मिलाना तो यहाँ नामुमकिन हैं. और इसके सिवा भी अगर सिर्फ प्लास्टिक के नोटों का इस्तेमाल करना हो तो शायद इसे किसी भी विरोध के बिना अपनाया जा सकता हैं. लेकिन इनकी लागत इतनी होती हैं की ये सिर्फ ५००, १००० या २००० के नोटों को ही छापा जा पायेगा. लेकिन अगर कही सिक्योरिटी मापदंड अपनाने हो तो सिर्फ १००० और २००० के नोटों तक ही सीमित हो पायेगा. शायद नोट बंदी के पहले इन सब विकल्पों पर विचारा जाता तो एक आम नागरिक ये समझ सकता था की नोटबंदी से काले धन और आतंकवाद पर अंकुश लगाया जा सकता हैं लेकिन सिर्फ नोटों की छपाई को बदल देना और कहना की इससे ज्यादातर अपराध खत्म हो जायेगे इसे कही ना कही हमारा नागरिक स्वीकार नही कर पा रहा हैं और यही कारण हैं की नोटबंदी के पक्ष में और अपक्ष में आज दो तरह के भारत खड़े दिखाई दे रहे हैं. अब वक्त ही बतायेगा की नोटबंदी का फैसला कितना सही था या इसमें समय रहते और भी खामिया पूरी की जा सकती थी. जय हिंद.



फर्श का मैदान और उस पर हो रहे खेल कितना शारीरिक और मानसिक विकास कर पाये गे हमारे बच्चो का ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans


कुछ २०-२५ साल पहले मेरे स्कूल के दिनों में इतवार की छुट्टी और घर के साथ में ही एक बड़ा सा मैदान, एक बेट, बाल और स्टांप चाहिये थे, दोस्त तो हम सब थे हीबस फिर क्या था क्रिकेट और क्रिकेट का जनून पता नही चलता था कब सुबह से दुपहर और फिर शाम हो गयी. मेरी माँ मुझे अक्सर इतवार को गुरद्वारे ले जाने की जिद करती थी लेकिन मुझे तो बस क्रिकेट ही खेलना था. लेकिन आज जब मेरे बेटे स्कूल जा रहे हैं तो देख रहा हु कोई मैदान नही हैं हमारे घर के पास. जहां हमारा मैदान था उस जगह पर नजर करता हु तो एक बड़ी सी बिल्डिंग बन गयी हैं, और आस पास भी इमारतो का जंगल खड़ा हो गया हैं.

कुछ ही समय पहले अपने खाली समय के दौरान सोचा आस पास के विधालयो का चक्कर तो लगा कर आयु, देखा तो आखे देखती ही रह गयी, घर के पास के तीन स्कूल और तीनों की अमूमन ३ से ५ मंजिला इमारत. इनमें से २ स्कूल के मैदान भी पकी  फर्श के बना दिये हैं और एक ही स्कूल बचा हैं जहाँ कच्ची मट्टी का मैदान हैं लेकिन वहा विध्राथीयो की संख्या इतनी ज्यादा हैं की मुश्किल से एक बच्चे को हफ्ते में 1-२ पीरियड ही मिलते होंगे खेलने के लिये. अब इस घुटन में आप क्रिकेट या फूटबाल तो खेलना भूल ही जाइये. और इसी दोर में पकी फर्श के मैदानों ने नये नये खेलों को जन्म दे दिया हैं जो की हमारे समय में सिर्फ फिल्मो में ही दिखा करते थे. उनमे से दो का जिक्र तो जरूर करूंगा एक हैं स्केटिंग और दूसरा कराटे. पिछले साल अपने दोनों बेटों को स्केटिंग में रखा था, दोनों के टायर वाले शूज लगभग ५००-८०० में आ गये थे. और इसके सिवा कोच की फीस. कुछ ३-४ महीनों के बाद कोच ने कहा की आप के बच्चे अच्छा कर रहे हैं और इन्हें आगे प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये नये शूज चाहिये होंगे. जिनकी अमूमन कीमत ५००० से ८०००० तक होती हैं लेकिन आप फिलहाल ५००० के शूज ले दीजिये.मेरी पूरी क्रिकेट की किट रबर की बाल के साथ १०० २०० रुपये में आ जाती थी लेकिन आज स्केटिंग के शूज ही ५००० से शुरू होते हैं. फिर गूगल बाबा की हैल्प ली और जाना की कोई बड़ी प्रतियोगिता नहीं होती बस जो लोग स्केटिंग के शूज बेचने का कारोबार करते हैं उन्हीं लोगो ने ये प्रतियोगिता आयोजित कर रखी थी और हर साल करवाते हैं. ये उदाहरण हैं की किस तरह खेलों में आज मार्केटिंग एक हिस्सा बन गयी हैं. लेकिन असल में व्यक्तिगत रूप से में स्केटिंग से खुश नहीं था जहां शारीरिक अभ्यास का माध्यम सिर्फ टायर वाले शूज पे दोडना ही था. अगर बचपन में हम अपने पैरो पर नही दोडगे तो जीवन में कभी भी इस अभ्यास का अनुभव नही कर पायेगे.

फिर घर वालों से बात की, उन्हें समझाना और भी मुश्किल था. आज हम कुछ भी सह सकते हैं लेकिन ये कभी नहीं चाहते की हमारे बच्चे के विकास में कोई कमी रह जाये. शायद इसी का नतीजा हैं की स्कूल में ऐसी, प्रोजेक्टर, आरओ का पानी और ख़ूबसूरत बिल्डिंग तो होनी ही चाहिये फिर चाहे मैदान फर्श का ही क्यों ना हो. लेकिन में अपने घरवालो को समझाने में कामयाब रहा और बच्चो को स्केटिंग से हटा कर कराटे में लगा दिया. ”, “हु”, पता नहीं इस अभ्यास में ये किस तरह की आवाजें निकालते हैं. लेकिन इसका खर्चा बस कराटे की पोषक तक ही सीमित था जो की ५०० रुपये में आ गयी थी. और कोच की महीने की फीस. लेकिन अभ्यास के दौरान कोच अक्सर बच्चो से कहता था ध्यान से फर्श पर सर नही टकराना चाहिये. नही तो चोट लग जायेगी.अभिभावक भी इस बात को समझते थे लेकिन किसी और खेल के विकल्प का ना होना उन्हें मजबूर करता था अपने बच्चो को फर्श के मैदान पर कराटे का अभ्यास करवाने के लिये. ये बहुत खतरनाक हैं क्युकी कराटे खेल ना होकर एक मार्शलाट हैं. यहाँ भी कुछ ही महीनों में मेरी हिम्मत जवाब दे गयी. में अपने बच्चों को इस अनजान खतरे में और नही देखना चाहता था. शायद इससे अच्छा तो स्केटिंग ही था. फिर खोज करनी शुरू कर दी और एक टेनिस अकादमी का पता चल ही गया यहाँ फीस थोड़ी ज्यादा थी और वक्त भी सिर्फ एक घंटा लेकिन मट्टी का मैदान और उससे जुड़ा हुआ खेल, जिसमें खेल का अपना ही एक मजा था और कोई अनजान खतरा भी नही था. मैने आँव देखा ना ताब और ना ही घर वालों से बात की चुप चाप बच्चों का यहाँ ऐडमिशन करा दिया. आज में कह नहीं सकता की अपने इस फैसले से कितना खुश हु या नहीं लेकिन खुद के बच्चों को सुरक्षित ज़रुर मान रहा हु.

विकास के कई मायने होते हैं, हमारे बचपन में मूलभूत सुविधायें चाहे कम ही थी जिस तरह पूरे मोहल्ले में एक ही टीवी हुआ करता था लेकिन खेल के मैदान बहुत थे और इतना तो खेले ही हैं की बचपन को कोई शिकायत नहीं रही. लेकिन आज टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल हर घर में हैं लेकिन खेल के मैदान वह भी मट्टी के तो बिलकुल नही, मानो हमारे शहर से पूरी तरह गायब से ही हो गये हैं. अगर कही हैं तो वहा कोच और उनकी फीस बहुत ज्यादा हैं. शायद इसलिये ही आज बच्चे क्रिकेट भी मोबाइल पर खेलना पसंद करते हैं. अब आप समझ ही सकते हैं की इससे हमारे बच्चो का कितना शारीरिक और मानसिक विकास होगा. अंत में, एक व्यंग के माध्यम से ही, इस हो रहे विकास से अपनी असहमति दर्शाते हुये एक चुटकला तो ज़रुर कहूंगा.

एक बार एक बीमार बच्चे का पिता, अपने बच्चे को डॉक्टर जी के पास लेकर गया. डॉक्टर जी ने अपनी जांच पूरी करने के बाद कहा आप के बच्चे को कुछ भी तो नही हुआ हैं. इसे खेलने के लिये प्रोत्साहित कीजीये.ये सुनकर बच्चे का पिता तुरंत बोल उठा डॉक्टर साहिब, ये हर वक्त तो खेलता रहता हैं.”. डॉक्टर साहिब ने अचंभित होकर पूछ ही लिया कोन सा खेल खेलता हैं ?”. पिता जी ने कहा जी, विडियो गेम.


आप हस सकते हैं, लेकिन आप उस खतरे को ज़रुर समझे जो मैदानों के ना होने से हमारे बच्चो के शारीरिक और मानसिक विकास को बाधित कर रहा हैं. जय हिंद.

बंद हैं. आज भारत नही, आप का और और मेरा सांस लेने का अधिकार बंद हैं. #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans



आज बंद हैं. भारत, हमारा देश बंद हैं. आप आज स्कूल, कॉलेज, दफ्तर ना जाये क्युकी आज बंद हैं. आज ध्यान रहे, किसी बिल्डिंग में लिफ्ट ना चल रही हो और कही भी किसी भी घर में रोशनी ना हो. सड़क पर कोई वाहन ना हो, रेल को भी रुक जाना चाहिये. बंद की मानसिकता का बस नहीं चलता नहीं तो कह दे आज नदी में पानी नहीं बहना चाहिये, होठो पे मुस्कान नहीं होनी चाहिये, पंछी भी गुनगुनाना छोड़ दे, हवा भी लहराये ना, पत्तों के बीच भी कोई संवाद ना हो, क्यूंकि आज बंद हैं. लेकिन में किस तरह आंखें बंद कर लू, में किस तरह सोचना छोड़ दू, में किस तरह साँस लेना छोड़ दू, शायद ये बंद कल खुल जायेगा लेकिन में अगर बंद हो गया तो शायद फिर मुरझा कर खिल ना पाऊंगा.

में इस विश्लेषण में नहीं जाना चाहता की आज क्यों बंद हैं ? किस ने बंद का आह्वान किया हैं ? क्यूंकि अक्सर हमारे देश में जब भी कोई गाव, शहर, राज्य या देश बंद होता हैं तब तब इसके पीछे की मानसिकता राजनैतिक से प्रेरित ही होती हैं, ये लोकतंत्र देश में सक्ता पक्ष को राजनैतिक रूप से घेरने का, विपक्ष का सबसे ताक़तवर हथियार हैं. हमारे देश में पक्ष और विपक्ष अक्सर बदलते रहते हैं लेकिन बंदका आह्वान अमूमन अक्सर युही बदस्तूर चलता रहता हैं. में जातीय तोर पर इस बंद का शिकार अपने बचपन से हो रहा हु फिर वह चाहे १९८४ के दंगो के दौरान का बंद हो, मंडल कमीशन के दौरान स्कूल को बंद करवाना हो, दो समुदायों के बीच तनाव हो, गोधरा में ट्रेन जलाने के बाद का डरावना बंद हो, २००७ में जब संत राम रहीम के कारण पंजाब बंद का आह्वान हो, २००९ में संत गुरु रामानंद का कत्ल के सिलसिले में बंद हो या फिर आज नोटबंदी के सिलसिले में बंद हो. इन सभी दिनों के दौरान, मेरा जीवन भी कही ना कही बंद था और रुका हुआ था. सोच भी रुक गयी थी और सिर्फ डर का एहसास था और शायद ये डर मेरे अकेले का नही पूरे समाज का था..

किस तरह का अनुभव होगा, जब आप उस सड़क पर चल रहे हो जहाँ धारा १४४ को लागू कर दिया गया हो, हर खाखी वर्दी से डर लगता हो, दुपहर के समय वह सारे बाज़ार बंद हो जहाँ अमूमन आप भीड़ के चलते चल भी ना पाते हो. हर दुकान का स्टर बंद होता हैं, कही कोई निगाहे आप को नहीं देख रही होती हैं, कोई छोटू भी चाय की दुकान पर नही होता, ना कोई ऑटो वाला आपके मोहले की आवाज़ लगा रहा होता हैं, रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, बस बंद होते हैं. ये जो आज सब बंद हैं, कही ना कही मेरी और आपकी जिंदगी का हिस्सा हैं. तो फिर क्या आज जिंदगी को बंद कर दिया गया हैं ? क्या आज सांस लेने को मना किया गया हैं ? क्या आज जज्बातों की धडकन को भी रुकने को कहा गया हैं ? शायद हाँक्योंकि आज बंद हैं. अमूमन इस बंद के दौरान भगवान के घर मंदिर और मस्जिद में भी लोगो की भीड़ कम होती हैं. शायद आज यहाँ भी बंद हैं.

इंसान की मानसिकता हैं की अगर वह किसी और से बात या संवाद ना करे तो वह ज्यादा समय तक जिंदा नही रह सकता या अपना मानसिक संतुलन खो कर खुद से ही बातें करने लग जाता हैं. शायद इसी संवाद को जिंदा रखने के लिये और हमें और हमारे समाज को स्वस्थ रखने के लिये, पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते बनाये गये हैं. सोचिये आप अपने दिनचर्या में कितने संवाद बोलते हैं, कितनी बार खुश होते हैं, कितनी बार कल्पना के माध्यम से अपने भूतकाल और भविष्य में जाकर आते हैं, आप की चेतन शक्ति राज्य, देश, ब्रह्मांड की सीमायों को लांघ कर कहा कहा नहीं जा कर आती हैं. कितनी बार आप किसी और को गिराने की तरकीब करते हैं और कितनी बार आप अपने आप को उस फिल्म स्टार से कम नही समझते जिसके आने से आप के शहर के अखबार की सुखिया बन जाती हैं. शायद यही हैं हमारी रोजाना की जिंदगी, लेकिन अब आप ये सोचिये की ये सब कुछ बंद हैं. आप की आखे बस अँधेरा ही देख पा रही हैं, तो यकीनन आप जिंदा नही हैं और एक अर्थी का रूप धारण कर चुके हैं.


अंत में शायद एक झूठा आश्वासन देना चाहता हु की अब ये बंद और नहीं. लेकिन हकीकत में मेरी और आपकी मानसिकता इस तरह को हो चुकी हैं, की कही ना कही इस बंद को स्वीकार करते हैं फिर चाहे बंद के मुद्दे के समर्थन और असमर्थन के साथ ना भी खड़े हो. लेकिन कल को जिंदा रखने के लिये अक्सर कह देते हैं की आज को दफनाने में हर्ज ही क्या हैं ? और सच भी हैं, क्या हर्ज हैं. एक दिन की तो बात हैं. लेकिन अब ये बंद मुझे मेरे शक्तिहीन होने की परिभाषा देता हैं, मुझ में एक विद्रोह की चिनगारी पैदा करता हैं, अब में खुद को और अपनी जिंदगी को यु बंद और रुके हुये नही देखना चाहता. अब में ऐलान करता हु, ना ये बंद मुझे आज मंजूर हैं और ना कल होगा. में जिंदा हु, सांसे चल रही हैं, जब तक अर्थी नही बन जाता तब तक में मुर्दा नही हु. जय हिंद.

मेरी इस काल्पनिक कहानी मे आखिर क्यों पंडित जी पर भ्रष्टाचार और मिया भाई पर देश द्रोह का इल्जाम लगा ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans


अक्सर में अपने दोस्तों से कहता हु की अगर भारत की असली ताकत और सहनशीलता देखनी हैं तो भारतीय रेल का जनरल कोच देखा करो, अक्सर यहाँ अजनबी मिलते हैं कुछ तंग सी ही जगह में बैठ कर, मुस्कराकर , कुछ अपनी कहकर और कुछ सुनकर अपने अपने स्टेशनों पर उतर जाते हैं. कुछ इस तरह ही हुआ मेरी इस काल्पनिक कहानी में. दरअसल कुछ दिनों पहले रेलवे स्टेशन से अपने गाव जा रहा था और हर बार की तरह इस बार भी रिजर्वेशन नही मिला और ट्रेन के आने पर भगवान का नाम लेकर जर्नल कोच में चंड गया . लेकिन इस बार कुछ अजीब हुआ, मेरे सामने वाली सीट पर एक हिन्दू समाज के उच्च जाती के पंडित जी और उनके साथ बगल में, एक मियां भाई बैठे थे. दोनों ही कुछ दूरी बनाये रखना चाहते थे लेकिन मुमकिन नहीं था. फिर भी एक दूसरे को  नजर अंदाज करने की पूरी नाकामयाब कोशिश की जा रही थी. इसी बीच मैने नजरो को दूसरी तरफ दोड़ाया तो वहा चुनावी पार्टी के सदस्य बैठे थे, उसमे से एक पार्टी खुद को सर्कुलर और दूसरी कट्टर धार्मिक होने का मान बख्स रही थी. उनकी निगाहे मेरे सामने बैठे पंडित जी और मियाँ भाई पर टिक्की थी और इन्तजार कर रही थी की कुछ तंगदिली सी हो बाकी तो ये महारथी थे चुनावी माहौल बनाने में.

कुछ समय बीत गया था ट्रेन को चलते चलते लेकिन पंडित जी और मियाँ भाई मे अभी भी दुरिया बनी हुयी थी इतने में पंडित जी ने कुछ दर्द की कराह भरी और मियाँ भाई ने आखिर पूछ ही लिया “पंडित जी, स्वास्थ तो ठीक हैं ?”. लेकिन पंडित जी ने भी जवाब दिया “नहीं कुछ समय पहले चिकन ....”. पंडित जी की बात पूरी हो उस से पहले ही मियाँ भाई ने टोक दिया “पंडित जी आप चिकन कब से ? क्या राम राम करना छोड़ दिया हैं?” बस मियां भाई की इतना कहने की ही बात थी की सभी की निगाहे इन दोनों पर तन गयी खासकर राजनैतिक पार्टियों से सदस्यों की, उन्हें लग रहा था की अब मौका दूर नहीं. इसी बीच पंडित जी ने मियां भाई की इस मजाकिया ढंग को मजाक में ही लिया और कहा “ नहीं मियाँ भाई, में आज भी राम राम ही करता हु हकीकत में मुझे पिछले दिनों चिकन गुनिया हुआ था. आप ने गलत अंदाजा लगा लिया की में चिकन खाता हु.” मियाँ भाई सहज हो गये और हंसने लगे. फिर बातें चली, पंडित जी ने कहा “ में अरब कंट्री में था कुछ सालो तक वही था लेकिन कभी भी चिकन नहीं खाया. हाँ थोड़ा सा इस्लाम के बारे में जानने को मिला जो शायद मेरी पारंम्परिक सोच से बहुत ज्यादा लिबरल हैं.”. मियाँ भाई ने भी हां में हां मिलापी. फिर मियाँ भाई ने बताया की उनकी गंगा किनारे बनारस मे दुकान हैं. और उन्हें भी वही रह कर कुछ हिन्दू धर्म के बारे में जानने के बारे में मिला जो दरअसल उनकी सोच से काफी ज्यादा उदार था. ये कुछ इस तरह के हिन्दू मुसलमान थे, जिनमें नफरत नहीं थी लेकिन एक दूसरे के बारे में जानकारी भी थी और तहज़ीब भी थी. शायद इसी को भाप कर राजनैतिक पार्टी के सदस्यों ने अपनी निगाहे इन पर से हटा ली थी और किसी और शिकार की तलाश में लग गये थे.

जिस सूझ बूझ से पंडित जी और मियां भाई बात कर रहे थे, सभी इन्हें बड़ी सहज और इज्जत से देख रहे थे,  अब लोगो ने इन पर से अपनी नजरे हटा ली थी और सभी अपने अपने मुसाफिरी का मजा ले रहे थे. इतने में पंडित जी ने समाज में बड़ रहे अपराधों का जिक्र शुरू कर दिया "क्या बताये आज कल तो घर से बाहर कदम रखना मुश्किल हो गया हैं, कुछ दिनों पहले हमारे पड़ोस से एक दम्पति रात में अस्पताल क लिये निकले थे लेकिन रास्ते में ही लुटेरों ने उनका कत्ल कर दिया और पुलिस आज तक उनका पता नही लगा पायी." मियाँ भाई ने भी इस हकीकत में अपनी सहमति जताइ "क्या कहैं पंडित जी, खुदा किसी का वक्त ना बुरा करे, बाकी यहाँ तो किसी से उम्मीद भी करना बेईमानी सी लगती हैं." थोड़ा सा रुक कर मियाँ भाई ने अपनी बात आगे बड़ाई "मेरा छोटा बेटा पिछले साल कॉलेज से पास हुआ हैं लेकिन आज तक कोई नौकरी नहीं मिली. बेरोजगारी दिन बर दिन बड़ती जा रही हैं. लेकिन फिर भी खबरें तो कहती हैं कि हमारा देश विकास और तरकी कर रहा हैं." एक बाप के दुःख ने थोड़ी सी कराह भरी और फिर कहा " लगता हैं पंडित जी, ये विकास और सुरक्षा हमारे राजनेता तक ही सीमित हैं, पता नही हमारे घर कब और कितनी देर बाद पोहचैगी, आयेगी भी या नही."

दोनों के बीच एक खामोशी सी बीछ गयी, और ही भी क्यों ना कभी कभी दर्द चुप रहकर भी बहुत कुछ कह जाता है. फिर पंडित जी ने कहा कि "इस बार वोट देने से पहले नेताजी से पूछुंगा सही की मेरे पडिसियो के क़ातिल को पहले पकड़ो फिर आना वोट माँगने". ये बातें और हिन्दू मुस्लिम एकता उन राजनीतिक दलों के सदस्यों को चुभ रही थी और उन्हें एहसास हो गया था कि उनकी दाल यहाँ नही दलने वाली. बस अगले स्टेशन पर दोनों जर्नल कोच छोड़ कर एसी कोच में चले गये लेकिन इनकी ईर्षा को चोट पोहची थी तो यहाँ ताकत कमजोर को जरूर कुचलैगी. और अगले स्टेशन पर पुलिस ने पंडित जी को भ्रष्टाचार और मियाँ जी को देशद्रोह के जुर्म मैं गिरफ्तार कर लिया. इनका अंत तो पता नहीं मेरी कल्पना की सोच में क्या होगा, लेकिन आप से प्रार्थना हैं हकीकत में अपना वोट देने से पहले अपनी मूलभूत तकलीफों के हल के बारे में अपने नेता से जरूर पूछे और एक बात अपना मत , किसी धर्म और जात पात के बहकावे में आये बगैर , सही दिशा मैं देश की बेहतरी के लिये जरूर जरूर इस्तेमाल करे. जय हिंद.

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जरा संभल कर !! सोशल मीडिया खतरनाक हथियार हैं. धाय धाय नही करता बस पोस्ट शेयर है. #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans

२०-११-२०१६ के दिन हुये दुखद रेल हादसे में कई नागरिको की मृत्यु हो गयी. आज टेलीविज़न के दोर में देश के कोने में ये खबर कुछ ही पलो मे पहुच गयी. लोग दुखी भी थे और सवाल भी था की क्यों हमारी रेल व्यवस्था इतनी कार्यगत नही हैं की आये दिनों इसमें हादसे होते रहते हैं. और इसके २-३ दिन पश्चात सोशल मीडिया पे और व्हाट्स एप्प पे एक पोस्ट बड़ी ही उग्रता से प्रकाश हो रहा था जिसमें कई मासूम घायल बच्चो की तस्वीरे थी और कहा ये जा रहा था की रेल एक्सीडेंट के दौरान ये बच्चे अपने सगे संबंधीय से बिछड़ गये हैं. शायद ये जानकर हैरानी होगी को तस्वीरे भी संवाद करती हैं और इसी के कारण मुझे हमारे देश की व्यवस्था और सरकार पर क्रोध आ रहा था. लेकिन मेरे ही एक सहकर्मी ने बताया की ये तस्वीरे बनावटी हैं और ये सारे बच्चे सिरीया की लड़ाई में घायल हुये हैं ना की रेल एक्सीडेंट में. अब ये कितना सच हैं या नही इसका तो पता नहीं लेकिन सोशल मीडिया जहाँ सब को आजादी हैं अपनी बात कहने की क्या उसका उग्र रूप भी हो सकता हैं.

सोशल मीडिया अमूमन एक आम संचार का माध्यम माना जाता था जो आप और आप के जान पहचान के कुछ लोगो तक ही सीमित था लेकिन इसकी ताकत ने अरब देशों में हुये विद्रोह को एक नयी रूप रेखा दे दी, सारी दुनिया के बुधिजीव ये देख हैरान थे की ये किस तरह हो सकता हैं ? इसकी उपयोगिता खासकर बड़ जाती हैं जब आप किसी और समाचार संचार माध्यम से ना जुड़े हो और इसी दौरान जब कोई आप का ही जान पहचान का व्यक्ति सोशल मीडिया पे कोई ऐसी पोस्ट शेयर करे जिस में खुशी या दर्द का बयान हो तो. आप अनुमन इस पर शक या सुधा नही करते और इस पर बिना सवाल किये हुये सच मान लेते हैं.  अरब के तानाशाह देशों में खबरें वही होती थी जो वहा की तानाशाह सरकार दिखाना चाहती थी लेकिन सोशल मीडिया ने इस दोर को तोड़ दिया और एक माध्यम प्रदान किया जहां लोग बिना किसी विघन के संवाद कर सकते थे. और यही क्रांति का कारण भी बना.

लेकिन सोशल मीडिया की शक्ति पर किसी भी तरह से क़ाबू पाना काफी मुश्किल हैं. अगर इस रिपोर्ट पर नजर मारे तो पता चलता हैं की किस तरह आतंकवादी संगठन ISISI ने युवाओ को अपने साथ जोड़ने के लिये सोशल मीडिया का साथ लिया. यहाँ, सोशल मीडिया एक माध्यम था जो किसी भी देश की सीमा को तोडकर किसी और देश के युवा के साथ भी अपना संवाद बना सकता हैं. लेकिन सोशल मीडिया का एक भयभीत करने वाला रूप सामने आया जब कुछ ही पलो में इसके माध्यम से अफवाह फैलाई गयी और देखते ही देखते इन अफवाहों ने उग्र रूप ले लिया. इसकी वास्तविकता सबसे पहले इंग्लैंड में देखी गयी जहाँ एक छोटी सी सोशलमीडिया पोस्ट ने हजारों लोगो को सडको पर खड़ा कर दिया और उनके असंतोष ने एक विद्रोह का जन्म ले लिया. कुछ इसी तरह २०१२ में उत्तर पूर्वी भारत के नागरिको की डर की वजह बना जब एक सोशल मीडिया का पोस्ट फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स एप्प पे थडैले से शेयर किया जा रहा था.और बिना किसी शक के लोग इस पर यकीन भी कर रहे थे. उन दिनों हजारों की गिनती में उत्तर पूर्वी राज्यों के नागरिक बंगलौर से पलायन कर रहे थे. कुछ इसी से सबक लेते हुये २०१५ में पटेल आंदोलन के दौरान हुये हिंसक प्रदर्शन के बाद सोशल मीडिया पर पूरी तरह से रोक लगाने के लिये गुजरात सरकार ने इंटरनेट सेवाओं पर पूरी तरह से रोक लगा दी थी. और कुछ इसी तरह २०१६ में कश्मीर में इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगा दी थी. और ये उपाय कुछ हद तक कारगर भी साबित हुआ था.


आज बहुत से बुधिजीव इस बात पर जोर दे रहे हैं की सोशल मीडिया समाज में उग्र स्वभाव को बढावा दे रहै हैं.  कही ना कही में इससे सहमत भी हु खास कर इन बच्चो की तस्वीरों को देखकर में इतना क्रोधित हो रहा था जितना स्वभाविक में उग्र नही होता हु. लेकिन इसकी हकीकत समझने के बाद सोच रहा हु की ऐसा क्यों और किस ने किया होगा ? हमारे लोकतंत्र देश में अमूमन हम आजाद माने जाते हैं और यहाँ किसी भी प्रकार से किसी के भी अधिकार को हनन करने की आज्ञा हमारा संविधान नहीं देता और ना ही किसी भी प्रकार के आतंकवाद की यहाँ गुंजाईश हैं, लेकिन हकीकत में ये स्वर्ग भी नहीं हैं. किसी ना किसी रूप में हर वक्त आप की सोच को बदलने की मुहिम हमेशा जारी रहती हैं ताकि किसी और के अनुरूप बदलाव आ सके (ये और कोन हैं ? इसे यहाँ समझने की जरूरत हैं ये २०१२ में कोई और था और आज कोई और हैं.). शायद इसी के अनुरूप हमारे बुजर्गो ने एक कहावत कही थी की कभी कभी आखे भी धोखा खा जाती हैं”. इसी तरह से सोशल मीडिया के धोखे से बचने के लिये इसे बंद करना कोई इलाज नहीं हैं. लेकिन अब हमें परखना होगा की जो सोशल मीडिया दिखा रहा हैं क्या वह सही हैं या नहीं. सोशल मीडिया को थोडा और चतुराई से समझना होगा. जय हिंद.

९० के सन में आखिर वह कोन थे जो जबरन मेरा स्कूल बंद करवाते थे ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans


आज चेहरे के बालों ने ज्यादातर सफ़ेद रंग को अपना लिया हैं जिंदगी अपनी ही रफ़्तार से चलती जा रही हैं. शायद आजकल मैने ज्यादा बोलना और टहके मार के हँसना भी बंद कर दिया हैं. लेकिन कभी कभी जब मन खुशियों की बुलंदियों को छु रहा होता हैं तब में घडी की सुई को पीछे घुमाने की नाकामयाब कोशिश अक्सर करता हु. लेकिन अपनी कल्पना की सोच को, जिस पर मेरा और सिर्फ मेरा अधिकार हैं उसे भूतकाल में ले जाने में कामयाब हो ही जाता हु और अपने बचपन में जाकर ही रुकता हु, खास कर मेरा स्कूल बहुत प्यारा था. चाहे क्लास में यादव सर ने हमे मुर्गा बना कर ही बाहर खड़ा कर दिया हो लेकिन फिर भी हँसी रूकती नही थी और हम दोस्त वहा भी सर से मार ही खाते थे. लेकिन हमारा रिकॉर्ड था की कभी भी घर से स्कूल के सिलसिले में कोई भी शिकायत ना आयी थी और ना ही स्कूल से कोई शिकायत घर पर भेजी गयी थी. लेकिन एक जगह मुझे घृणा मेहसूस होती हैं जब ९० के सन में हमारा स्कूल जबरन बंद करवाया जाता था. आखिर वो कोन थे जो स्कूल बंद करवाते थे ?

में हिंदी माध्यम में ही पड़ा हुआ हु, और मेरे दोस्त सारे या तो उत्तर भारत से थे या फिर किसी हिंदी भाषित राज्य से, हम हमेशा एक दूसरे को अपने पहले नाम नरेन्द्र”, ”प्रकाश”, ”दिलीप”, “बाबाराम”, “प्रदीप”, “हरबंशसे ही बुलाते थे कभी भी कोशिश नहीं की नाम के पीछे लगे कुमार”, “यादव”, “झाँ”, “राजपूत”, “शर्मा”, “सिंहको जानने की. हकीकत कहूं तो नाम का पहला शब्द ही हमारे लिये मायने रखता था बाद में क्या लगा हैं इसका हमारे लिये कोई मतलब नही था और ना ही इसके सिलसिले में कुछ जानने की जरूरत थी . हम पड़ते भी थे और साथ ही साथ मस्ती भी करते थे. और इसमें मैं अक्सर मोहरी होता था इसी कारण सर जी की मार भी पड़ती थी. आज भी याद हैं हाथ पे लगी हुई डस्टर की ख़ूबसूरत मार. कभी कभी तो आख से आशु आ जाते थे लेकिन दर्द बस दूसरे पल ही भूल जाता था कही भी मेरी किसी सोच में इसका व्याख्यान नही मिलता. इसी दौरान कम से कम हफ्ते में एक बार तो सही लेकिन स्कूल के बाद क्रिकेट मैच तो ज़रुर खेलने जाया करते थे. मेरी यादो में मेरा बचपन, मेरे दोस्त और मेरा स्कूल बहुत ख़ूबसूरत से सजा हुआ हैं.

लेकिन सन ९० के सन में जहाँ खबर का मतलब सिर्फ दूरदर्शन से प्रसारित होते समाचार ही थे सितम्बर में एक छात्र के आग लगाकर ख़ुदकुशी का दुखद समाचार सुनाई दिया. उस समय १२ साल के बच्चे के लिये अंदाजा लगाना भी मुश्किल था की जिंदगी, मोत और ख़ुदकुशी क्या होती हैं ? लेकिन दूसरे दिन सुबह सुबह हम फिर उसी उत्साह से अपना दिन शुरू कर रहे थे और मोदी मैडम इंग्लिश के विषय में हमे पड़ा रही थी की अचानक से यादव सर आये और हमें कहा जाओ बच्चो आज तुम्हारी छुट्टी कर दी गयी हैं. अब स्कूल में अचानक से छुट्टी मिलना मतलब मानो करोड़ो की लौटरी लग गयी हो. हम सब बाहर आये और बजाये ये जानने के की स्कूल क्यों बंद हुआ हैं ? हमने सब ने प्लान किया की अब से आधे घंटे बाद क्रिकेट के मैदान पे मिलते हैं और वही टीम बनाकर खैलैगे. वह दिन तो हँसी खुशी बीत गया लेकिन दूसरे दिन फिर यादव सर गुजराती के पीरियड में आये और कहा की स्कूल की छुट्टी हो गयी हैं. लेकिन उस दिन हम उत्साहित नही थे क्रिकेट खेलने के लिये. और ये सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा, कभी भी किसी भी पीरियड में स्कूल के बंद होने की जानकारी मिल जाया करती थी.

लेकिन अभिभावकों के दबाव के चलते, थोड़े दिनों बाद से ही स्कूल अपने समय अनुसार चलना शुरू हो गया था. लेकिन एक दिन अचानक, यादव सर ने हमें स्कूल के बाहर इक्ट्ठा कर लिया खास कर कक्षा ९ और १० के विधार्थियों को. स्कूल का मुख्य द्वार बंद कर दिया गया था और उस तरफ कुछ युवा खड़े थे शायद उनकी उम्र १८-२२ साल की रही होगी, निजी रूप से में उसमे से किसी को भी नही जानता था. उसी समय, एक युवा मुख्य द्वार पे चडकर खड़ा होकर कहने लगा आज से स्कूल बंद, जब तक हम नही कहते कोई भी तुम में से स्कूल नही आयेगा. अगर, कोई भी आया और स्कूल अपने समय काल के अनुरूप खोला गया तो हम बाहर खड़े होकर पत्थर मारे गे जो तुम में से किसी को भी लग सकता हैं. खिड़की का कांच टूट सकता हैं. समझ लेना, आज से स्कूल नही आना हैं.”. वह तो इतना कह कर चले गये, यादव सर भी नजरे झुका कर खड़े थे और हम भी किसी से कोई सवाल नही कर रहे थे. फ़रमान हो चूका था बस अब इसे मानना था. स्कूल से हम सब ने अपना अपना दफ्तर उठाया और चल दिये अपने अपने घर को. परिवार से बात करने के बाद भी हमें यही कहा गया की कल से स्कूल कुछ दिनों के लिये नही जाना हैं.


अभी भी में ये सवाल नहीं कर रहा था की क्यों स्कूल बंद हुआ हैं ? यही तो बचपन का आनंद हैं की जिंदगी के गहरे सवाल नहीं पूछ करता लेकिन मेरे उस समय का भी और आज का भी बस यही सवाल हैं की वह कोन थे जो स्कूल बंद करवाने आये थे?. अब जब उन्हें खोजने के कोशिश करता हु तो अक्सर नाकामयाबी ही मिलती हैं लेकिन उनके नाम कुछ हमारी तरह ही रहे होंगे ओर आज वह भी चेहरे के सफ़ेद बालों से ढक गये होंगे. शायद ये मंडल कमीशन के विरोध में खड़े हुये थे इसी सिलसिले में कई जाने भी गयी थी, तोड़ फोड़ भी हुई थी लेकिन मेरे जीवन के कई ख़ूबसूरत दिन जो मेरे भविष्य की नींव रख रहे थे वह युही व्यर्थ बतीत हो गये और उन दिनों का महत्व और भी बड़ जाता हैं खासकर अब जब उन सहपाठियो दोस्तों का पता भी नहीं हैं की जीवन के किस कोने में कहा होंगे. इस व्यथा में उन दिनों में स्कूल के जबरन बंद होने का गम तो सदा ही बना रहेगा. जय हिंद.

पिंक फिल्म अगर हकीकत में बयान हो तो कितने और कटाक्ष होंगे ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans

पिंकफिल्म ने अपनी ख़ूबसूरत कहानी और सराहनीय अभिनय के लिये दर्शकों से खूब प्रशंसा बटोरी और इसके ख़ूबसूरत निर्देशन का तो में भी कायल हो गया. पूरी फिल्म में इस बात कर भ्रम बनाये रखा की उस रात उन तीन लडको में और तीन लड़कियों में आखिर हुआ किया था ? क्या कोई आपसी सहमति थी शारीरिक रिश्ता बनाने में या नहीं ? लेकिन फिल्म में इस बात पर जोर दिया गया की नोःया नहींका मतलब नोःऔर नहीही होता हैं. अगर कोई लड़की शारीरिक सबंध बनाने से नहीकह रही हैं तो आप को कोई अधिकार नही हैं किसी भी तरह की जबरदस्ती करने का. ये एक फिल्म थी लोगो ने तालिया भी बजाई और शायद फिर इसे भूल गये. लेकिन एक सवाल मेरे मन में ज़रुर आ रहा हैं की अगर ये हकीकत होती तो किस तरह इस पर लोग अपनी प्रतिक्रिया करते ?

कुछ इसीतरह से २०१२ की फेब्रुअरी में कोलकत्ता में हुआ, जहाँ एक औरत को पब के बाहर दो लोगो ने घर तकछोड़ देने की पेशकश की, ये तीनों बस अभी कुछ ही समय पहले पब के अंदर मिले थे लेकिन गाड़ी चलने के बाद कुछ ही समय दौरान ३ और सख्श आकर इस गाड़ी में सवार हो गये. और चलती गाड़ी में बंदूक की नोक पर इन पांचों ने इस महिला के साथ जबरन बलात्कार किया. महिला चिलाती रही नहीं” “नहींवह गाड़ी के दरवाजा खोलने की भी कोशिश कर रही थी. लेकिन वह हर जगह कमजोर साबित हो रही थी. इस साहसी महिला ने बाद में अपनी पहचान भी सार्वजनिक कर दी और उस हर दुखांत को इस समाज के सामने पेश किया की किस तरह हमारे समाज की व्यवस्था उसे इंसाफ दिलाने की बजाय उसे ही गुनहगार के रूप में पहचान दे रही थी.

उस महिला ने बताया की किस तरह उसे दरिन्दे बलात्कार के दौरान पिंट रहे थे मानो सालो की कोई जमीनी दुश्मनी हो जबकि वह सारे इस महिला से अनजान ही थे. और कुछ घंटों बाद कलकत्ता की सड़क पर उस महिला को चलती गाड़ी में से फैक दिया गया. महिला तीन दिनों तक अपने आप को संजोज्ती रही और आखिर में हिम्मत कर पुलिस को शिकायत की. और कमजोर को और कमजोर कहने का ताना बाना यही से शुरू हो गया सबसे पहले तो महिला से पुलिस स्टेशन में ही पूछा गया की सच में वह शिकायत करना चाहती हैं. फिर पुलिस द्वारा सवाल किया गया की चलती हौंडा सिटी कार में बलात्कार कैसे हो सकता हैं ?”. एक और घिनौना सवाल किया गया की बलात्कार के दौरान आप चलती कार में किस पोजीशन पर थी ?”. महिला के कहैं अनुसार उस समय पुलिस स्टेशन की जेल में ११ साल की लड़की के साथ कथा कथित बलात्कार का आरोपी भी ये सारी बातों को सुन रहा था. इस बीच महिला का मैडिकल टेस्ट के दौरान डॉक्टर साहिब ने महिला के टैटू की प्रंशसा कर रहा था. 

जब न्यूज चैनलों ने इस दुखांत को सुर्खियों में दिखाना शुरू किया तब सामाजिक रूप से और ताक़तवर लोगो ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू की जिसमें सबसे मोहरी थी उस समय वैस्ट बंगाल की महिला मुख्य मंत्री श्री ममता बैनर्जी ने इस संदर्भ में कहा सजनो घोटना अर्थात एक बनाई गयी काल्पनिक कहानी.  इसी बीच एक और महिला नेता काकोली घोष दस्तीदार ने एक बयान दिया की अगर आप मुझसे इस घटना कर्म के बारे में पूछेगे, तो में यही कहूँगी की ये एक बलात्कार ना होकर एक डील थी, जो की किसी कारण ग्राहक और महिला में गलतफहमी में तबदील हो गयी.इसका अर्थात महिला पीडिता ना होकर एक सेक्स वर्कर थी. कई और सवाल भी उठे की इतनी रात तक एक अकेली महिला पब में क्या कर रही थी ? कुछ लोगो ने सलाह भी देनी शुरू कर दी की अकेली महिला को रात के समय बाहर नही निकलना चाहीये. एक इस तरह का माहौल बना दिया गया था की हमारा सभ्य समाज इस बहस में उलझ कर रह जाये की क्या बलात्कार हुआ था या नहीं. लेकिन कही भी ये सवाल नही था की हम क्यों अपनी कानून व्यवस्था को इतना मजबूत क्यों  नही बना सकते की एक अकेली महिला रात को बाहर आ सके ? कोई भी ये दिलासा नही दे रहा था की हम गुन्हैगारो को इस कथित जुर्म के लिये कड़ी से कड़ी सजा देंगे ताकि भविष्य में कोई इस तरह का जुर्म करने की हिम्मत ना कर सके. लेकिन इस सब के बीच पीडिता ने अपनी हिम्मत नहीं हारी और न्याय की पुकार के लिये इस गुनाह को अदालत के कटघरे में खड़ा कर दिया. और समय रहते गुन्हैगारो को सजा भी मिली लेकिन इसी बीच २०१५ मे पीडिता इस संसार को हमेशा के लिये अलविदा कह गयी.


फिल्म पिंक की नायिका एक अदालत के भीतर एक द्रश्य में जज साहिब से कहती हैं की बहुत गंदा लगता हैं जब आपको कोई आपकी मर्जी के बिना छूता हैं.लेकिन हमारा सभ्य समाज इस दर्द को नही समझ सकता. इसी बीच फिल्म में लड़कियों के वकील का किरदार निभा रहा शख़्स कहता हैं इन लडको को एहसास होना चाहिये की नोः का मतलब नोः होता हैं. उसे बोलने वाली लड़की कोई परिचित हो, दोस्त हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या आपकी बीवी ही क्यों ना हो. नोः का मतलब नोः होता है और जब कोई आप से नोः कहैं तो आप वही पे रुक जाये.लेकिन हमारा परुष प्रधान समाज इस नोः को सुनने का आदि नहीं लेकिन इसी आदत को कटाक्ष करता हुआ फिल्म के अंत में वकील का किरदार निभा रहा कलाकार हमारे सभ्य समाज में बलात्कार के अपराधो को रोकने के लिये ये उपाय कहता हैं आज तक हम एक गलत डायरेक्शन में एफर्ट करते रहे, हमे अपने लडको को बचाना चाहिये ना की लड़कियों को. क्योंकि अगर लड़के सुरक्षित हैं तभी लड़कियां सुरक्षित रह सकती हैं.”.  जय हिंद.

किस तरह ८० के दशक से समाचार को बताने का माध्यम बदला हैं. किस तरह आज खबर से बड़ा पत्रकार हो गया हैं. #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans


जब से जीवन में होश सँभाला हैं तब से हमारे समाज को और इससे जुड़े हुये हर पैहलू को लगातार बदलता हुआ देख रहा हु. ८० के दशक में ब्लैक न वाइट टीवी और रेफ्रिजरेटर का होना शान की बात मानी जाती थी, वही समय के साथ इस टीवी ने कलर में आना शुरू कर दिया और आजकल पता नहीं इसकी कितनी वैराइटी आ चुकी हैं. टेलीविज़न आज एक सामाजिक प्रतिष्ठा की बात तो नहीं रही लेकिन इसके उभरने के साथ ही समाज में कई और रूप जो इसके साथ जुड़े हुये हैं वह बड़ी प्रबलता से आज हमारे जीवन का अमूल्य हिस्सा बन गये हैं. खासकर न्यूज़ मीडिया, टीवी कै साथ साथ हमारे देश का न्यूज़ मीडिया भी बदला हैं. और आज कही ना कही इस टेलीविज़न ने पत्रकार को खबर से भी बड़ा बना दिया है.

८० के दशक में दूरदर्शन ही एक समाचार का माध्यम हुआ करता था, खासकर हिंदी का समाचार शाम को ८:३० और ८:०० बजे इंग्लिश न्यूज बुलेटिन प्रसारण होता था. इसी बीच प्रणय रॉय का द वर्ल्ड न्यूज वीक हर शुक्रवार को प्रसारित होता था. इन दिनों न्यूज मीडिया का एंकर समाचार की लिखी हुई स्क्रिप्ट को पड़ता हुआ दिखाई देता था. इसी दौरान ९० के दशक में, दूरदर्शन ने अपना नया चैनल मैट्रो को सार्वजनिक कर दिया. और इसी चैनल पे, सुरेंद्र प्रताप सिंह रात को ९:३० बजे अपना न्यूज बुलेटिन आज तक लेकर आया करते थे. इसी कार्यकर्म में न्यूज एंकर द्वारा समाचार की स्क्रिप्ट को पड़ने के अलावा कई तरह के नये शब्दों का इस्तेमाल करना शुरू किया जिस तरह तो ये थी खबरें आज ताज, इन्तजार कीजिये कल तकऔर इसी तरह समाचार कार्यकर्म जो की कही रुखा सुखा दिखता था उसमे एक आम नागरिक की रुचि बडने लग गयी थी. इसी दौरान २००० के आते आते कई निजी न्यूज चैनेलो ने अपना पूरे दिन चलने वाला समाचार कार्यक्रमों को आवंटित करना शुरू कर दिया. इसी समय दौरान भारतीय नागरिक ने समाचारों के बीच कई नये तरह की न्यूज को परिभाषित करते हुये शब्दों को सुना जिस तरह ब्रेकिंग न्यूज़”, “फ़ास्ट न्यूज़”, “सबसे पहले हम दिखा रहे हैं”, “घटना स्थल से सीधा प्रसारण कर रहे हैं”, “सन सनी खबरें”.

सन 80 की 20 मिनट की खबरे 2000 के आते आते 24 घंटे लगातार चलाई जाने लगी. इसी सिलसिले मे न्यूज़ चैनेलो नै कई आम खबरों को खास बना दिया गया और इनका असर भी दिखना भी शुरु हुआ खासकर कुरुक्षेत्र के बोर मे गिरे 5 साल के बच्चे प्रिंस  के साथ इन्ही न्यूज़ चैनलों ने पूरे भारत वर्ष को जोड़ दिया था और तब तक भारत का आम नागरिक प्रिंस के साथ जुड़ा रहा जब तक सकुशल प्रिंस को बाहर निकाला गया. इसी तरह जेसिका हत्याकांड को चर्चा का विषय बनाकर इसी न्यूज़ मीडिया नै दोषियों को सजा दिलाने की मांग उठाई थी. लेकिन कही ना कही इसी दौरान न्यूज़ चैनलों ने आयुषी हत्याकांड मे उस हर दहलीज को लांघ दिया था जिसकी अनुमति एक सभ्य समाज नहीं देता, यहाँ न्यूज़ चैनेल का एंकर आयुषी के फ़ोन के अति व्यक्तिगत संदेशो को भी सार्वजनिक रूप से पड़ने मे हिचकिचा नहीं रहा था. लगातार खबरों को चलाने के दबाव मे इनही न्यूज़ चैनलों ने ज्योतिष राशिफल, फ़िल्मी हस्तियों, टेक्नोलॉजी, नयी गाड़ियो, शेयर बाजार और तो और प्रोपेर्टी के तर्क संगत कयी कार्यक्रमो की नयी तरीके से रुपरेखा दी. इसी बीच बहुत से न्यूज़ चैनेल मध्यरात्रि को टीवी शॉपिंग मे भी कार्यरत हो जाते है.

और इसी बीच समाचार प्रसारण के साथ साथ इन्ही न्यूज चैनलों पर होने वाली बहस जो की राजनीति के साथ साथ हर पहलू पर हो रही हैं उसने समाचार माध्यमो में अपनी एक अलग ही पहचान बना ली हैं. आज, भारतीय मीडिया में कई न्यूज चैनेलो की भरमार हो चुकी हैं इसमें इंग्लिश, हिंदी और प्रादेशिक भाषायो में इसका प्रसारण हो रहा हैं और मीडिया की भाषा में रात के ९ से १० बजे तक के समय को प्राइम टाइम कहा जाता हैं जब दर्शक के रूप में ज्यादातर भारतीय न्यूज मीडिया को देख रहा होता हैं और यही कारण हैं की इस समय को भुनाने में हर न्यूज़ चैनेल अपना पूरा जोर और आजमाइश करता हैं ताकि दर्शक को अपने साथ जोड़ सके. ४०-५० मिनिट के प्राइम टाइम के स्टार्ट होते ही, शुरू के ५ मिनट तक सूट बूट मे सजित न्यूज़ एंकर बहस के मुद्दे को बताते हुये अपनी राय भी बताता हैं और बाद में इसी मुद्दे पर बाकी के मेहमानों को परिचय देता हैं. अमूमन एंकर के माइक की आवाज बाकी के मेहमानों के माइक के आवाज से ज्यादा होती है. यहाँ एंकर उस हर राय को बीच में टोकने की हमेशा जुर्रत करता है जो एंकर की राय से असमर्थ हो और उस हर राय को बढ़ावा देता हैं जो राय एंकर के साथ समर्थन रखती हो. असलियत में आज न्यूज़ चैनेल के प्राइम टाइम का एंकर असल खबर से कही ना कही बड़ा हो गया हैं.

बड़े राजनीति फैसले, क़ुदरती आफतो और भ्रष्टचार के मामला हो, जहाँ इन पर चर्चा राजनीति गलियारों में हो रही होती थी आज यही बहस कही ना कही प्राइम टाइम पर दोहराई जाती हैं. लेकिन प्राइम टाइम की इस बहस में, राजनीति दल से जुडा हुया प्रवक्ता ही जुड़ता हैं ना की सरकार का असल जवाबदेही मंत्री और इसी तरह विपक्ष राजनीति दल का भी कोई प्रवक्ता ही जुड़ता हैं. तो ये बहस कही ना कही राजनीतिक बहस बन कर ही रह जाती हैं. या फिर किसी और पत्रकार को बुलाकर इस बहस को सम्पूर्ण किया जाता हैं. अगर कोई देश की सुरक्षा का मामला हो तो रिटायर्ड अफसर को बहस में शामिल किया जाता है नाकि असल जवाबदेही अफसर को. कई बार तो ब्रेकिंग न्यूज़के मध्यांतर न्यूज़ चैनल अपने अपने संपादको  को ही बहस में शामिल कर लेते हैं. इस तरह की तेज तर्रार बहस जो की एक भ्रम देती हैं की किसी फैसले पर पोहचैगी वास्तव में किसी भी सारांश को नही दिखाती लेकिन कई और तरह की बहसो को जन्म दे दिया करती हैं. इन्ही बहसों के दौरान कई और तरह के विवादों को भी जन्म दे दिया जाता हैं.


आज न्यूज़ चनैलो को देखने वाला दर्शक, न्यूज चैनेलो से ये शिकायत कर रहा हैं की आज असल खबर को सम्पूर्ण रूप से दिखाने की वजह खबर को उलझा दिया जाता हैं इसे कही ना कही बहस का रूप दिया जाता हैं और दर्शकों की राय को इस तरह से बाट दिया जाता हैं की दर्शक भी कही ना इस पर प्रतिक्रिया देता हुआ जाने अनजाने मे इसी बहस का हिस्सा बन जाता हैं. एक और दोष आज दर्शक इन न्यूज चैनेलो पर आरोप के रूप में लगाता हैं की ये न्यूज़ चैनेल बहुत जल्दी खबरों को भूल जाते हैं और जल्द ही पूरी चर्चा का विषय नई खबर को बना लेते हैं उदाहरण के लिये किसी दुखद बलात्कार या हत्या की खबर को एक समय सम्पूर्ण चर्चा का विषय बना लिया गया होता है लेकिन समय जाते ही इसे कही ना कही भुला दिया जाता हैं और नयी खबर को चर्चा का विषय बना लिया जाता हैं. शायद आज भारतीय नागरिक दूरदर्शन के सादगी वाले समाचारों को एक बार फिर से देखना चाहता हैं जहां एंकर बड़ी ही नम्रता से सिर्फ आपको समाचार की जानकारी देता हैं ना की कोई खबर को किसी बहस मे बदल कर दर्शक को उलझा कर रख देता हैं और जल्द ही भूलने को मजबूर कर देता हैं ताकि एक और नई बहस को जन्म दिया जा सके. जय हिन्द.

“बेटा, डॉक्टर बनोगे?” बेटे ने कहा “नही पापा, में फ्लाइंग जट बनुगा.”. #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans

शाम को पूरे परिवार के साथ शौपिंग मोल में जरूरती चीजों की खरीदी करने गये थे वही मेरे छोटे बेटे साहिबने खिलौने के रूप में डॉक्टर की किट को चुन लिया और घर पर आकर अपने ही टेड़ी का इलाज करना शुरू कर दिया. में देख के खुश हो रहा था और मैने पूछ ही लिया बेटा, बड़ा होकर डॉक्टर बनोगे ?”. उसने तुरंत जवाब नही दिया कुछ सोचने लगा और में दुआ कर रहा था की वह हां कहैं, अपने १२ साल की प्राइवेट जॉब में लगभग हर रोज ऑफ़िस की पोलिटिक्स से त्रस्त रहता हु और अपने बच्चों के लिये यही दुआ करता हु की वह कुछ भी करे लेकिन प्राइवेट जॉब ना करे. इतने में साहिब ने कहा नहीं पापा, में फ्लाइंग जट बनुगा.उसकी मासूमियत की तरह उसका जवाब भी बड़ा मासूम था. अब में सोच रहा हु की क्या मैने गलती कर दी एक छोटे से बच्चे को जीवन के लक्ष के बारे में पूछ के ? या मैने सही किया ? इसी कशमकश में खुद को कसौटी पे परखना शुरू कर दिया.

लक्ष”, ये हर किसी के जीवन में होता हैं कही छुपा हुआ तो कही उग्र रूप से खुद को परिभाषित करता हुआ. हमारे भारतीय समाज में, जीवन का लक्ष या तो खुद ही चुन लिया जाता हैं या फिर कही माता पिता, टीचर, दोस्त, इत्यादि आप को सूचित कर देते हैं के आपके जीवन का लक्ष ये होना चाहिये. ये कितना सही हैं या गलत इसका पता नही लेकिन खुद के द्वारा तय किये गये  जीवन के लक्ष को पाने का अपना ही अलग जुनून और आनंद होता हैं. अमूमन, जीवन का लक्ष चुनने की कोई तय सीमा नही होती सचिन तेंदुलकर को बचपन में ही पता था की उन्हें क्रिकेटर बनना हैं. लेकिन इस लक्ष को पाने के लिये कठिन मेहनत और लगन की ज़रुरत होती हैं. जिस तरह नदी की गहराई किनारे पे बैठकर नही नापी जा सकती हमें खुद नदी में गेहराई तक तैरना पड़ता हैं. उसी तरह लक्ष का पीछा करते हुये बहुत सी कठिनाइयां आती हैं. सही मायनो में ये रुचि की तरह हमें तरंगित करता हैं, हर कार्य इस सपने से जुड़ा होता हैं. इसको पाने की चाहत में हम हर राह पर गिरते हैं लेकिन फिर खुद को सम्भाल कर दोड ने लगते हैं. ये उस मनोरंजन की तरह हैं जिसके लिये हम समय निकालते हैं ना की हमारे खाली समय को एंटरटेन करने के लिये. कुछ ही लोग अपने जीवन के लक्ष को पाने में कामयाब होते हैं और ज्यादातर हम लोग जीवन की लड़ाई में कही ना कही अपने  लक्ष से दूर ही रह जाते हैं लेकिन कही ना कही ये भी हमें गर्व का एहसास करवाता हैं की हमने अपने संकल्प को पाने की कोशिश तो ज़रुर की थी.

सच हैं की लक्ष के बिना जीवन अंधकार हैं. लेकिन अगर इसी का दूसरा पहलू देखे जहाँ कई जिंदगीया को पता ही नहीं होता की जीवन का लक्ष क्या हैं ? उनमे से एक में भी था, मेरा जीवन का एक बहुताय हिस्सा बिना लक्ष के ही गुज़रा हैं. बचपन में किताबे हाथ मे पकडली और कॉलेज तक इनका साथ नहीं छोड़ा लेकिन उसके पश्च्यात क्या ? में उस सड़क के आखरी मोड़ पर खड़ा था जहाँ रास्ता खत्म हो जाता था. इसका एक कारण ये भी था की मुझे किसी ने कभी पूछा ही नही था की जीवन का लक्ष क्या हैं. सच कहूं तो जीवन में इतनी आजादी थी की किसी ने तय भी नहीं किया की मेरे जीवन का लक्ष क्या होना चाहिये. हाँ, थ्री इडियट फिल्म  को सरहाने वाला और उसी से प्रेरणा लेने वाला हमारा आज का युवा कही ना कही मुझ पर हसेगा और कहेगा की ये तो बेतुकी जेनरिक कल्पना हैं की अपने जीवन का लक्ष कोई और तय करे. लेकिन अपने जीवन के बहुत ख़ूबसूरत पलो को  बिना लक्ष के भट कता देख, शायद आज में इमानदारी से कह सकता हु किसी और द्वारा तय किया गया मेरे जीवन का लक्ष ये कही भी गलत ना होता. आखिर कोई अपने जीवन के अनुभव से मेरी किसी ऐसी प्रतिभा को समझ सकता हैं जो मुझे नही दिख रही या कोई अपने जीवन के कडवे अनुभव से मुझे ये बता सकता हैं की हमारे समाज में किस तरह एक मध्यम वर्ग से तालुक रखने वाला इंसान कामयाब हो सकता  हैं. अगर इसे ही दूसरी तरह से समझना हो की हमारे समाज में कामयाबी की परिभाषा क्या हैं. तो मेरे जीवन के अनुकूल मुझे ये कही भी गलत नहीं लगता शायद किसी और द्वारा तय किया गया ही सही अगर जीवन में कोई लक्ष होता तो मेरा जीवन यु भटकता ना, शायद इसकी भी आज कुछ और मंजिल होती.


जीवन में कामयाबी का कोई फौरमूला नही होता, मेरे सरकारी ड्राइवर पिता जी अक्सर कहते थे की जीवन मे कुछ भी करना लेकिन ड्राइविंग की जॉब मत करना. और आज में भी यही चाहता हु की मेरा बेटा कुछ और करे लेकिन प्राइवेट जॉब ना करे. बस फर्क इतना हैं की में मेरे बच्चो से अक्सर ये पूछता रहूंगा की उनके जीवन का लक्ष क्या हैं ? उन्हें कभी भी मजबूर नही करूंगा की वो अपने जीवन के लक्ष को अभी चुने या कुछ सालो बाद. और ना ही अपनी राय को उन पर थोपूँगा लेकिन सूक्ष्मता से ही सही उनके जेहन में ये बात डाल दूँगा की जीवन में लक्ष का होना बहुत ज़रुरी होता हैं. अब मैने अपनी बात साहिब के साथ आगे बड़ाई साहिब, फ्लाइंग जट क्यों बनना चाहते हो ?”. साहिब ने फिर थोड़ा सा सोच कर कहा पापा, में उड़ना चाहता हु. जिस तरह फ्लाइंग जट उड़ता हैं ना उसी तरह”. मेंने फिर कहा उसके  लिये तो तुम्हें उस पेड के पास जाकर दुआ मागनी पडेगी ना. अब वह पेड़ कहा से लयोगे.साहिब नै तुरंत जवाब दिया नही पापा, मुझे नही पता, लेकिन में फ्लाइंग जट ही बनुगा.इस विश्वास को देखकर मैने फिर और कोई सवाल नही पूछा. जय हिंद.

आखिर क्यों विवाह शदियों पर हवाई फायर एक रिवायत बन गया हैं ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans





विवाह शादियों में अक्सर जब बारात आती हैं और बाद में भी जब तक बारात रवाना नही होती तब तक ढोल के धनक पे नाचनाफटाके फोड़ना ये रसमयी रिवाज़ बन गये हैं. लेकिन बंदूक से हवाई फायर ने कही ना कही विवाह शादियों में बारात की शानो शौकत का रुतबा हासिल कर लिया हैं. इसकी वजह से कई हादसे भी हुये हैं. कुछ इसी तरह ०५-१२-२०१६ को पंजाब के बठिंडा जिले के मोड़ मंडी मे शादी के फंक्शन के दोरान एक गोली चली और गर्भवती डांसर कुलविंदर कौर की मोत उसी स्थान पर हो गयी. व्यक्तिगत रूप से भी मे इस भय से वाकिफ हु, १९८७ मे पंजाब के एक विवाह के दोरान, कुछ इसी तरह का हवाई फायर हुआ था और पूरे विवाह मे अफवा फ़ैल गयी थी की हरबंश घायल हो गया है. असलियत मे क्या हुआ था ये अंत मे लिखूंगा लेकिन इसके पश्चात ये जरुर सोचना शुरू कर दिया की हवाई फायर दरअसल होते क्यों है.

शादी की रशमो में दुल्हे का परिवार दुल्हन के परिवार से अक्सर ज्यादा महत्वपूर्ण होने का भ्रम सदियों से पालता हुआ आया हैं और ये अनुसरण युही चलता रहेगा. कही ना कहीहमारा समाज भी इसे क़बूल करने में झिझकता नही हैं. दुल्हे की बारात कई मायनो में खुशी और उल्लास के साथ साथदुल्हे के परिवार के लिये एक सामाजिक प्रतिष्ठा का भी चिन्ह होती हैं. यहांदुल्हे के परिवार के सारे रिश्तेदारो के साथ साथ दोस्तों और पड़ोसियों को भी न्योता होता हैं. दुल्हन के परिवार को हिदायत होती हैं की बारात के स्वागत में कोई कमी नही आनी चाहिये. बारात के स्वागत से लेकर विदा होने तकदुल्हन के परिवार की तरफ से हो रहे हर प्रकार के रिवायती रिवाजो को दुल्हे के परिवार वालो  की तरफ से हर मापदंड पर तोला जाता हैंऔर अगर कही भी थोड़ी सी कमी रेह जाये तो लब्जो में प्रहार होने के अंदेशे बन जाते हैं. मतलबइस तरह का माहौल होता हैं जहाँ अगर आप लड़के वालों की तरफ से हैं तो आपको पूरा अधिकार हैं अपनी ताकत की नुमाइश करने का और इसका विरोध होने की सम्भावना ना मात्र होती हैं और सदियों से हथियारों को ही ताकत की परिभाषा कहा जाता रहा हैं. तो इस तरह के माहौल मेंकुछ हवाई फायर तो बस युही हो जाते हैं जो की पहले से तय कार्यक्रमों में पंजी कृत नही होते हैं.

अब बारात में दुल्हे के साथ बाकी बाराती सज्जन भी पूरे जोश में होते हैं. आजकलचाहे सरे आम हो या चोरी चुपकेकिसी ना किसी प्रकार का नशे का परोसना शादी विवाह में आम सी बात हो गयी हैंफिर चाहे दुल्हे के परिवार की तरफ से हिदायत भी हो की शादी और बारात में शांति बनाये रखे. फिर भीकुछ ना कुछ बातें दुल्हे परिवार को अनदेखी करनी पड़ती हैं क्युकी अगर सख्ती की तो कोई भी मामाचाचा या मासा रुठ कर अपने पूरे परिवार के साथ शादी के पर्व को छोड़ कर चला जायेगा और कही ना कही इस खुशी के प्रसंग के साथ साथ रिश्तेदारी में कलह की वजह बन ही जायेगी. अब चाहे किसी भी प्रकार का नशे का सेवन हो या ना होशादी के माहौल में जहाँ कोई रोक टोक करना एक गुनाह की तरह माना जाता हैंऐसे माहौल में जोश अपनी चरण सीमा पे होता हैं और होश कही ना कही जोश की आड़ में खो गया होता हैं. तो हाथों के लड़खड़ाने की वजह बन ही जाती हैं. काफी सारे बाराती सज्जन इस लड़खड़ाने को ढोल की धनक पे नाच कर संतुष्ट कर लेते हैं लेकिन अमूमन वह बाराती सज्जन जो अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा मनवाना चाहते हैं उनके हाथ अपने आप बंदूक तक पोहच ही जाते हैं. और फिर धाय धाय”.

अब जिस तरह कहा जाता हैं की कहा गया वाक्य और बंदूक से निकली गोली वापस नही आती उसी तरह इस फायर का पता नहीं होता की किस तरफ निशाना कर लेगा. अगर बंदूक खुले आसमान की तरफ भी तनी हैं फिर भी गोली चलने तक अगर इसका मुँह किसी और मुड़ गया तो तबाही निश्चित हैं. जो की एक पल में खुशी के टहको को गम में बदल देती हैं. बस फिर क्याजोश कही खो जाता हैं और होश की यही दलील होती हैं की ये कैसे हो गया लेकिन उस होश से कैसी शिकायत जो खुद ही गुम होता हैं और आख मलता हुआ तलाश कर रहा होता हैं की उसने किस ज़ुबान को बंद कर दिया हैं. अमूमनइस तरह के किसे कानून की गिरफ्त से दूर ही रखे जाते हैं लेकिन कोई तबाह ज़रुर हुआ होता हैं. अगर ये खबरों की सुर्खिया बन भी जायेतो चंद ही दिनों में हमारा सभ्य समाज इसे भुलाने में ही अक्लमंदी समझता हैं.

अंत में आपको बतादू की उस शादी मे मैं घायल नहीं हुआ था लेकिन कुछ मेरी तरह ही दिखने वाला बच्चा जरुरु चोटिला हुआ था, चोट इतनी नहीं थी की शादी रोक दी जाये लेकिन कही भी अगर बंदूक की गोली का कोण जरा भी बदला होता तो एक हादसा जरुर हो जाता. लेकिन कुलविंदर कौर मेरी तरह भाग्यशाली नहीं थी और उसके गर्भ मे पल रहे बच्चे का क्या कसूर था, जो इस दुनिया को बिना देखे ही रुखसत हो गया. इसलिये कुलविंदर कौर की हत्या से कई अजनबी भी आहात हुये है और सडको पर आकर न्याय की मांग कर रहे है. इसी सिलसिले मे हरयाणा सरकार नै विवाह शादियों पर किसी भी प्रकार से हथियारों के इस्तेमाल को गैरकानूनी घोषित कर दिया है.  लेकिन जब तक व्यक्तिगत सोच इस संधर्भ मे नही बदलेगी शायद तब तक इस तरह के हादसों को पूर्णता रोक पाना मुश्किल हो जाता है. हमे खुद को बदलने की जरुरत है समाज की बुराइया अपने आप दूर होती चली जायेगी. और अपने व्यक्तिगत अनुभव से ये भी ज़रुर कहूंगा की हमें फिर से खुद को तलाशने की जरूरत हैं की हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा किस से हैं हमारी ताकत से हैंहथियारों से हैं या हमारी जमीन जायदाद और दौलत से हैं. शायद कही ना कहीएक सभ्य समाज के लिये सामाजिक प्रतिष्ठा का मतलब नम्र व्यवहार से हैं खास कर शादी विवाह जैसे पर्व पर तो ये व्यवहार लाजमी अपनाया जाना चाहिये. यहाँदुल्हे के परिवार को सीना तान कर अहंकारी होने की नहीं हाथ जोड़ कर नम्र होने की जरूरत हैं क्युकी दुल्हन अपने पूरे परिवार को छोड़ कर एक नये रिश्ते में बंधने जा रही होती हैं और साथ ही साथ एक नये परिवार को अपनाने जा रही होती हैं. तो इस तरह के आयोजन पर ताकत नही व्यवहार की कसौटी होनी चाहिये. शायद बदल रहे भारत मे ये सोचा भी जा रहा है. जय हिंद.