पंजाब की राजनीति में, यहाँ मौजूद डेरा (आश्रम) भी असर करते हैं.



पंजाब,इस प्रांत को  गुरुद्वारा श्री हरमिंदर साहिब के नाम से भी जाना जाता हैं, जिसे आम तौर पर, गैर-सिख गोल्डन टेम्पल के नाम से जानते हैं, इस स्थान पर सिख समुदाय, आस्था से सर झुकाता हैं और इसी के साथ गैर-सिख के लिये ये स्थान आस्था के साथ-साथ इसकी ख़ूबसूरती भी, यहाँ लोगो को आकर्षित करती हैं, और यही श्री अमृतसर साहिब  शहर में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एस.जी.पी.सी) का भी दफ्तर हैं, जिसका मुख्य काम एस.जी.पी.सी के अधीन आ रहे गुरुद्वारा साहिब का प्रबंधन को देखना हैं लेकिन ये हम सब भली भात जानते हैं की एस.जी.पी.सी का पंजाब की राजनीति में क्या स्थान हैं, आज की तारीख में एस.जी.पी.सी पर बादल परिवार का दबदबा हैं और एस.जी.पी.सी से जुड़े हुये सदस्य अक्सर शिरोमणि अकाली दल बादल के लिये चुनाव प्रचार में हिस्सा भी लेते रहे हैं, कुछ दिन पहले इस पार्टी के घोषणा पत्र जारी होने के समय सुखबीर सिंह बादल के साथ, एस.जी.पी.सी के पूर्वअध्यक्ष अवतार सिंह को साथ खड़ा देखा जा सकता हैं.

लेकिन आज पंजाब की राजनीति में डैरो ने भी अपना स्थान बना लिया हैं, डेरा, मसलन आश्रम, इसी के अंतर्गत राधा सोअमी व्यास, दिव्य जोती संस्थान नूरमहल और डेरा सचा सौदा, सिरसा ये प्रमुख डेरा हैं जो राजनीति पर अपनी छाप छोड़ते हैं. यहाँ, दिव्य जोती संस्थान जो पंजाब के नूरमहल में मौजूद हैं. इसके सर्वोच्च बाबा आशुतोष की मोत के बाद भी उनके शरीर को फ्रीज में रखा हुआ हैं और इनका तर्क हैं की बाबा जी समाधि में हैं. कुछ इसी तरह डेरा सचा सोदा जो सिरसा, हरयाणा में हैं और पंजाब की सीमा से लगता हुआ एक कस्बा हैं. इस डेरे के प्रमुख संत गुरमीत राम रहीम सिंह, अक्सर विवादों में बने रहते हैं, इन पर सीबीआई की जांच चल रही हैं और अदालत में इनके खिलाफ मुकदमा चल रहा हैं, इन पर बलात्कार से लेकर ४०० सेवक को नपुसंक बनाने के भी आरोप हैं  लेकिन संत गुरमीत राम रहीम सिंह, देश के उन लोगो में शुमार हैं जिन्हें सरकारी खर्चे पर जेड+ सीक्यूरिटी दी गयी हैं. ये ज्ञात रहे, डेरा सचा सोदा, सार्वजनिक रूप से हर चुनाव में किसी ना किसी राजनीतिक पार्टी के साथ खड़ा रहा हैं और इनकी अपील भी काम करती हैं मसलन २००७ के पंजाब राज्य चुनाव में इन्होंनेपंजाब कांग्रेस का साथ दिया था जिस के कारण भठिंडा, बरनाला और संगरूर के क्षेत्र में शिरोमणि अकाली दल के गढ़ में कांग्रेस विजयी रही थी. लेकिन यहाँ, डेरा राधा सोअमी, व्यास का जिक्र करना ज़रुर बनता हैं जो कभी भी किसी विवाद में नहीं रहा और पूरे भारत से, हर वर्ग और समुदाय का नागरिक इस डेरा राधा सोअमी से आस्था के रूप में जुड़ा हुआ हैं.

राधा सोअमी डेरा, व्यास, कभी भी सार्वजनिक रूप से किसी भी चुनाव में किसी पार्टी के साथ नहीं खड़ा रहा, मसलन ये राजनीति से दुरी बना कर रखते हैं लेकिन २०१४ में भारतीय जनता पार्टी की लोकसभा में हुई भव्य जीत के पश्चात, पंजाब के मानसा में व्यास डेरा के प्रमुख बाबा गुरिंदर सिंह ढिल्लो और आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत के बीच, बंद कमरे में मुलाकात हुई थी और इसी के अंतर्गत २०१४ के चुनाव से पहले, ये दोनों नागपुर में मिले थे. यहाँ एक आम नागरिक क़यास लगा रहा था २०१४ में भाजपा की जीत में डेरा व्यास की भी कोई भूमिका हो सकती हैं. २०१२, में डेरा व्यास पर ये आरोप भी लगे की इन्होंने, डेरा व्यास के भीतर आ रहे एक सिख गुरुद्वारा साहिब को नष्ट कर दिया था लेकिन सिख धर्म में सर्वोच्च स्थान श्री अकाल तख्त से जत्थेदार गिआनी गुरबचन सिंह ने डेरा व्यास को ये कहकर आरोप मुक्त कर दिया की नष्ट हुई बिल्डिंग में से गुरु ग्रंथ साहिब जी का पावन स्वरूप को सिख धर्म की मर्यादा के अनुसार, दूसरे स्थान पर पहले ही ले जाया गया था. इसके बावजूद, कई सिख संगठन आज भी डेरा व्यास को एक दोषी के रूप में ही देखते हैं. यहाँ ये लिखना जरूरी हैं, की डेरा व्यास के मुख्य संत अक्सर एक सिख के रूप में दिखाई देते हैं लेकिन इनकी धार्मिक मर्यादा सिख धर्म की धार्मिक मर्यादा से अलग हैं मसलन ये खुद को गुरु होने का मान हासिल करते हैं लेकिन सिख धर्म के अनुसार सिर्फ और सिर्फ गुरु ग्रंथ साहिब जी ही, सिख गुरु हैं.

अब, २०१७ के चुनाव में, सरगर्मी पिछले साल से ही सर गर्म हैं मसलन शिरोमणि अकाली दल बादल-भाजपा की पंजाब राज्य सरकार ने अक्टूबर २०१६ में, डेरा व्यास के प्रमुख गुरिंदर सिंह ढिल्लो के व्यक्तिगत नजदीकी रिश्तेदार परमिंदर सिंह सेखो को मुख्य मंत्री श्री प्रकाश सिंह बादल का सलाहकार नियुक्त किया हैंइसी के चलते श्री राहुल गांधी दिसम्बर २०१६ में, डेरा व्यास में एक रात रुके थे, उन्होने राधा सोअमी डेरा में सत्संग भी सुना और दूसरे दिन, डेरा प्रमुख के साथ राहुलगांधी की नाश्ते पर मुलाकात हुई. अक्सर डेरा व्यास प्रमुख, श्री अमृतसर के श्री हरमिंदर साहिब गुरुद्वारा में माथाटेकने जाते हैं, इनकी मुलाकात उन सिख नेताओ से भी अक्सर होती रहती हैं जो वैचारिक रूप से बादल परिवार से मतभेद रखते हैं. मसलन डेरा प्रमुख की आज पूरी पंजाब की सियासत में एक मजबूत पकड़ रखते हैं.


डेरा व्यास के आश्रम, पूरे भारत देश के लगभग हर बड़े शहर में हैं और इनके लाखों-करोड़ो भक्त हैं, जो आस्था के माध्यम से डेरा व्यास और इस के प्रमुख बाबा गुरिंदर सिंह ढिल्लो से जुड़े हुये हैं, इसी के तहत इनकी मौजूदगी, पंजाब के हर शहर, कसबे और गांव में हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से तो ये मुमकिन नहीं की ये डेरा किसी भी राजनीति पार्टी का समर्थन कर के दूसरी राजनीति पार्टी से दुश्मनी मोल ले, लेकिन जिस तरह भारतीय राजनीति में अक्सर इशारो में ही नेता अपनी बात करता हैं और इन्ही इशारो को एक मतदाता समझ भी जाता हैं, अब देखना ये होगा की डेरा व्यास जो की राजनीति से दूरी बनाये रखे हैं लेकिन इशारो में क्या कोई संदेश दे रहा हैं ? ये सवाल, आज पंजाब के हर नागरिक को हैं और भली भात ये समझा जा रहा हैं की किस तरह ये डेरा व्यास आरएसएस और बादल परिवार से नजदीकी बनाये हुये हैं, अब देखना ये होगा की, ये इशारे की राजनीति, चुनावी परिणाम पर क्या असर करती हैं. मेरा, व्यक्तिगत मानना हैं की इस तरह के इशारो का असर राजनीति में ज़रुर होता हैं कभी लाभ दायक और कभी नुकसान भी कर देता हैं. लेकिन, इसका इजहार तो राज्य के चुनावी परिणाम ही तय करेंगे, जिस के लिये हमें ०४-मार्च-२०१७ तक का इंतजार करना होगा. धन्यवाद.

पंजाब राज्य चुनाव, शिरोमणि अकाली दल बादल के नेता बिक्रम सिंह मज्ठिया भी यहाँ एक मुद्दा हैं.



श्री राहुल गांधी, ने  अपने पंजाब राज्य के चुनाव प्रचार की शुरुआत मज्ठिया विधानसभा इलाका से, इस आगाज में की  मैने ४ साल पहले कहा था, की पंजाब का ७०% यूथ आज, नशे की चपेट में हैं लेकिन तब मेरी बात को सच मानने से मना कर दिया गया, लेकिन आज, आम आदमी पार्टी और शिरोमणि अकाली दल बादल भी यही मान रहे है, की नशा पंजाब में गंभीर समस्या बन चूका हैं.” , प्रचार की शुरुआत मज्ठिया क्षेत्र से करना और नशे के मुद्दे को गंभीरता से बोलना, कही ना कही शिरोमणि अकाली दल बादल के नेता बिक्रम सिंह मज्ठिया पर निशाना था जो इसी विधानसभा क्षेत्र से २००७ और २०१२ में चुने गये है. इससे पहले, आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेता और देल्ही के मुख्य मंत्री, अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक सभा में बिक्रम सिंह मज्ठिया को जेल भेजने का आगाज कर चुके है. लेकिन, अगर इन राजनीतिक आरोप से हट कर, एक समय खिलाडी के रूप में पंजाब पुलिस में डीएसपी की पोस्ट पर रहे, जगदीश सिंह भोला, जिन्हें नशे की तस्करी के आरोप में पंजाब पुलिस ने पकड़ा था, इसी भोला ने लिखित रूप एन्फोर्समेंटडायरेक्टरेट (इडी) को अपना स्टेटमैंट दिया हैं जिसमें बिक्रम सिंह मज्ठिया, पर ५००० करोड़ के गैर क़ानूनी नशे के कारोबार में शामिल होने का आरोप लगाया गया हैं. भोला का केस पंजाब पुलिस के पास है जिस के  करता धरता सुखबीर सिंह बादल, मज्ठिया के रिश्तेदार होने से, आज बिक्रम सिंह मज्ठिया को कोई कानून छु नहीं पा रहा लेकिन पंजाब का हर नागरिक ये भली भात जान चूका हैं की बिक्रम सिंह मज्ठिया और नशा इन दोनों का आपस में क्या रिश्ता हैं.

 कहा ये जाता हैं की सराया इंडस्ट्रीज के मालिक सत्यजित सिंह मज्ठिया के बेटे बिक्रम सिंह मज्ठिया को मंहगी गाड़ी चलाना, हवाई जहाज उड़ाना और बास्केट बॉल खेलना पसंद हैं, लेकिन २००२ में अमरिंदर सिंह की सरकार का पंजाब में आने से, बादल परिवार पर, करप्शन केस रजिस्टर हुआ और प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल को पटियाला की जेल में भेज दिया गया,  इसी समय, बिक्रम सिंह मज्ठिया जो की सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हर सिमरत कौर के भाई हैं, वह सुखबीर सिंह बादल के साथ खड़े रहे, और हर मुमकिन कोशिश की, बादल परिवार की मदद के लिये, नतीजन, २००७ में इन्हें शिरोमणि अकाली दल बादल ने हल्का मज्ठिया से विधान सभा का टिकट दिया और इन्हें विजयी होने पर, अपनी सरकार में मंत्री की ओहदा भी दिया गया. लेकिन, इसी दोर में, प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल की पार्टी में और सरकार में हैसियत बड़ रही थी, जिसे कम करने के लिये, सुखबीर सिंह बादल ने २००९ में पंजाब सरकार के उप मुख्यमंत्री बने, इसी तर्ज पर बिक्रम सिंह मज्ठिया ने २००९ में पंजाब कैबिनेट से हट गये.

इनाम के तोर पर शिरोमणि यूथ अकाली दल बादल के अध्यक्ष बना दिये गये, जहां से बिक्रम सिंह मज्ठिया का विवादों से रिश्ता बन गया फिर चाहे लुधियाना में कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा सफ़ेद चींटारावण जलाने का मसला हो  या लुधियाना में ही किसीपुलिस ऑफिसर पर हमला हो  हर जगह, यूथ अकाली दल बादल के सदस्यों की मौजूदगी थी. हद तब पार हो गयी, जब इसी युवा अकाली दल के एक सदस्य रंजित सिंह राणा ने २०१२ में पहले एक पुलिस ऑफिसर की बेटी को छेड़ा और जब शिकायत करने पर, पिता पुलिस ऑफिसर ने अपनी बेटी की हिफाजत करने आये, तो इन्हें इस युवा दल के सदस्य राणा ने गोली मार दी , इसी बीच घायल पुलिस ऑफिसर को हॉस्पीटल ले जा रही ऐम्बुलेंस को राणा ने रोक कर, पुलिस ऑफिसर को फिर से गोली मार दी, जिस से इनकी मोत हो गयी. ये घटना निर्भया हत्याकांड के कुछ दिन पहले की हैं और इसी २०१२ की शरुआत में अकाली दल बादल ने एक बार फिर से पंजाब में विजय परचम फैहराया था. इस समय, यूथ अकाली दल बादल के सदस्यों का हौसला बहुत मजबूत था ना ही इन्हें कानून का डर था और ना ही किसी सरकार का, इनका मसीहा बस बिक्रम सिंह मज्ठिया ही था.

कहा ये भी, जाता हैं की २०१४ में नवजोत सिंह सिधु का अमृतसर से टिकट कटवाने में बिक्रम सिंह मज्ठिया का ही हाथ था, लेकिन मज्ठिया द्वारा गुरु ग्रंथ साहिब की गुरबानी को गलत उच्चारण कर के ना सिर्फ अरुण जेटली जी की हार का कारण बने बल्कि सिख धार्मिक जज्बातों को भी ठेस पोह्चाई थी. लेकिन जिस तरह अर्जुन अवार्ड विजेता, जगदीश सिंह भोला ने लिखित रूप से बिक्रम सिंह मज्ठिया पर नशे के कारो बार में शामिल होने का आरोप लगाया है, उस से विपक्षी दल लगातार बिक्रम सिंह मज्ठिया के खिलाफ कार्य वाही की मांग कर रहे है लेकिन बादल परिवार की सरपरस्ती में बिक्रम सिंह मज्ठिया के दामन को कोई छू भी नहीं पा रहा हैं.


अब, आये दिन यूथ अकाली दल बादल के सदस्यों की खबर किसी ना किसी अखबार में लगी होती हैं और बिक्रम सिंह मज्ठिया की मौजूदगी से इन्हें किसी भी कानून का आज डर नहीं रहा, फिर वह चाहे बस अड्डा पर सवारी भरना हो या अपनी ताकत की नुमाइश करनी हो, ये यूथ दल अक्सर आगे की पायदान पर रहता हैं, लेकिन, जनता इस घुटन को या इस गुंडा गर्दी को कब तक सहन करती हैं, ये देखना होगा. कुछ भी हो, बिक्रम सिंह मज्ठिया आज एक चुनावी मुद्दा हैं यहाँ राहुल गांधी इशारे में इन पर आरोप लगाते हैं और अरविंद केजेरिवाल सार्वजनिक सभा में, लेकिन जनता क्या राय रखती हैं इसका इजहार तो चुनावी परिणाम ही करेंगे. इंतजार कीजिये, ०४-मार्च-२०१७ का. धन्यवाद.

स्पॉटलाइट, बोस्टन के अख़बार की रिपोर्ट पर आधारित फिल्म हैं लेकिन इस तरह की फिल्म कभी भी भारत में नहीं बन पायेगी.



२०१५ मैं आयी फिल्म स्पॉटलाइट, २००२ में द बोस्टन ग्लोब में छपी एक रिपोर्ट को फिल्म के रूप में दिखाती हैं,इस रिपोर्ट के मुताबिक बोस्टन में ही कुछ ८०-९० कैथोलिक प्रीस्ट थे जिन्होंने बच्चो का शारीरिक शोषण किया था. और अपनी धार्मिक छवि के कारण, ये हर बार कानून के हाथों से बच जाते थे. यहाँ फिल्म के माध्यम से, वास्तविकता को पूर्ण रूप से जिन्दा कर दिया गया था, उस हर घटना कर्म को दिखाया गया था की किस तरह द बोस्टन ग्लोब के रिपोर्टर, इस रिपोर्ट के लिये छान बीन करते हैं, किस तरह की तकलीफों से होकर गुज़रते हैं लेकिन पत्रकारिता का धर्म सच को दिखाना और लिखना हैं, जिसे ये पूर्णतः इमानदारी से कार्यवंतिंत करते हैं, यहाँ, ये समझना होगा, की पत्रकारिता भी इंग्लिश भाषा में हो रही थी, जो की अमेरिका की मुख्य भाषा हैं और गुनहगार और रिपोर्टर एक ही धर्म और इसी इंग्लिश भाषा से जुड़े हुये थे, लेकिन पत्रकारिता में कही भी किसी तरह का कोई समझौता नहीं होता, अगर इसी के संदर्भ में हमारे देश की पत्रकारिता को समझना हो, विशेष कर हिंदी भाषा में हो रही पत्रकारिता, जहाँ, ऊपर से नीचे तक, पत्रकारिता में हिंदी भाषी, हिन्दू और उच्च जाती के लोग ही मौजूद हैं.

अगर, हम हमारे देश के ऐसे प्रांत पर ध्यान दे जहां बोलने की भाषा तो हिंदी से अलग हैं लेकिन लिपी के तोर पर, देवनागरी लिपी ही इस्तेमाल होती हैं जैसे उत्तर प्रदेश, उतराखंड, देल्ही, हरयाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, झारखंड, बिहार, इत्यादि में पूर्ण रूप से हिंदी की देवनागरी लिपी ही लिखी जाती हैं, लेकिन यही लिपी देवनागरी, मराठी, मेथली, नेपाली, कोंकणी, सिंधी, संस्कृत, बोडो, भाषा की लिपी के रूप में भी लिखी जाती हैं, अगर आप महाराष्ट्र से हैं, तभी, आप हिंदी भाषा को पूर्ण रूप से पड़ और समझ सकते हैं, मसलन बहुताय, भारत, हिंदी भाषा को पड़ और समझ सकता हैं, यहाँ, इसी लिपी के रूप में संस्कृत भाषा के अंदर हिंदू धर्म के कई वेद और धार्मिक पुस्तक लिखी गयी हैं, इस से अंदाजा लगाया जा सकता है की इस लिपी का हिंदू धर्म से नजदीकी का रिश्ता हैं, अब, जब इसी भाषा में पत्रकारिता होगी तो क्या उन तारों को भी छुआ जायेगा जहाँ बहुताय समाज की आस्था जुड़ी हुई हैं. यहाँ, अख़बार में छपी खबर के नीचे पत्रकार का नाम होता हैं और उसी तरह से मीडिया में चलाई जा रही खबर पर ऐंकर अक्सर शुरुआत में ही अपना नाम बताता हैं, यहाँ बहुत मुश्किल से कोई अल्पसख्यंक या किसी छोटी जाती के रूप में कोई पत्रकार मौजूद होगा, अगर हैं भी, तो उसे किस तरह की पत्रकारिता का विषय दिया गया हैं, ये भी देखना जरूरी हैं मसलन खेल कूद और  सिनेमा ही होगा, मुझे व्यक्तिगत रूप में ऐसा कोई बड़ा अल्प स्ख्यंक या छोटी जात का पत्रकार नहीं मिला जो क्राइम रिपोर्टिंग या इस से भी महत्वपूर्ण राजनीति पर पत्रकारिता करता हो. अगर होंगे भी तो इक्का-दुक्का.

अक्सर, हिंदी भाषा या मीडिया में कश्मीर, पंजाब, उत्तर पूर्वी भारत, इन राज्यों को अलग से ही जगह दी जाती हैं, जिस तरह आज कल हिंदी पत्रकारिता, पश्चिम बंगाल को व्याख्यान कर रही हैं. यहाँ, खबरों को थोड़ा सा ध्यान से पड़ने की जरूरत हैं, शब्दों के भीतर ही, पूरे प्रदेश, समाज, को केंद्र बिंदु बनाकर ऐसा कुछ लिखा होता हैं की एक पाठक के रूप में आप को इसके साथ जोड़ लिया जाता हैं, यहाँ, शब्दों में पत्रकार अपना नाम ना देकर, किसी नेता का भाषण का जिक्र कर देगा या किसी घटना पर अपनी राय रख देगा, अंत आते, वह निष्पक्ष होने की दुहाई भी देगा लेकिन किन शब्दों पर जोर दिया गया हैं, ये देखने की जरूरत हैं, आये दिन इस तरह की खबर छपती रहती हैं, की एक पाठक के रूप में, आप इस तरह की खबरों से बंध के रह जाओ, लेकिन उन हिस्सों में जहाँ बहुताय हिंदू समाज हैं, ज्यादातर खबरों का हिस्सा नहीं बनाया जाता अगर कोई खबर होगी भी तो लूट-पात, चोरी, इत्यादि, व्यक्तिगत अपराध की ना की प्रदेश या समाज के रूप में कोई खबर छपी होगी. अगर, इस तरह की कोई खबर छपती भी हैं, तो उस लेख को थोड़ा सा ध्यान से पड़ना जरूरी हैं, यहाँ सामान्य शब्द होंगे, जिसे आप पड़ कर तुरंत भूलने में ही समझदारी समझेगे.

में, पंजाब से हु, और पंजाब का काला दोर, अपनी आखो से देखा हैं खासकर १९८६-१९९३ तक, यहाँ उस समय आर्म्ड फ़ोर्स एक्ट लगा होने के कारण, जगह जगह भारतीय फोज के सिपाही बैठे होते थे, आप सवारी बस में जाते हुये, अक्सर सडक पर भारतीय फौज का चलता हुआ काफ़िला देख सकते थे, यहाँ उस समय केसरी रंग की पगड़ी पहनना एक तरह से मना था, अगर आप ने पहनी भी हैं, तो आप से सवाल जवाब ज़रुर होंगे और हो सकता हैं की आप को सरकारी गाडी में बैठा दिया जाये, फिर आप का क्या होगा ये कहना जरूरी नहीं ? हर घर में ये दिशा निर्देश दिये गये थे आप, अगर खेतों में जाते हुये पुलिस या सेना को देख ले तो भागे नहीं, उनसे आख ना मिलाये, चुप चाप सामान्य बन कर चलते रहे, यहाँ हर सिपाही के पास ऐके४७ थी, लेकिन इनमें और आतंकवादी में फर्क था मसलन अगर आप सिपाही की गोली से मारे गये तो शायद ही कोई खबर अख़बार में लगेगी लेकिन अगर आप को एक आतंकवादी ने मारा हैं तो ये अखबार की सुर्खिया बन जायेगी. उस समय पंजाब में बहुत सारे फेंक एनकाउंटर  हुये थे, ये आकड़ा हकीकत में कही ज्यादा खतरनाक हो सकता हैं लेकिन कही भी हिंदी पत्रकारिता में इस तरह की खबर को पहले पेज पर जगह नहीं मिलेगी, लेकिन बिहार के शहाबुद्दीन की खबर इस तरह प्रकाशित की जायेगी की तमिलनाडू के नागरिक को भी पता चल जाये की शहाबुद्दीन कोन हैं.


आज, एक सिख होने के नाते अक्सर १९८४ के दंगो की खबर को खोजता रहता हु और इसी संदर्भ में, कोर्ट में चल रहे कैसो, की जानकारी लेने के लिये, गूगल भी मदद नहीं करता, तो समझ लीजिये अख़बार में कोई खबर नहीं छपी होगी, आज हिंदी भाषी प्रांत में जात-पात के नाम पर, भेदभाव बदस्तूर जारी हैं लेकिन ये खबर अखबार में नहीं लग पाती, ना ही महिला सुरक्षा या बच्चो की सुरक्षा का ज्यादा जिक्र होता हैं, अब ये तो यकीन करना मुश्किल हैं की यहाँ अपराध नही होते होंगे, पर खबर नही बनती होगी. लोकतंत्र को जीवित रखने में, मीडिया का भी एक अहम योगदान हैं, लेकिन अगर इसी लोकतंत्र के रूप में हमारी व्यवस्था फेल हो रही हैं तो यकीन मानिये कही ना कही, हमारा मीडिया या पत्रकारिता, अपने कर्तव्य का इमानदारी से निर्वाह नहीं कर पा रही हैं, मेरा सवाल आज भी इस पत्रकारिता और हमारे देश के अख़बार के पाठक से हैं, १९८४ में ब्लू स्टार के दौरान भिंडरावाला तो मार दिया गया, लेकिन १९८४ के दंगो के मुलजिम क्यों बाहर हैं ? क्या इतने बड़े, दंगे, बिना किसी प्लान के या व्यवस्था की मदद के बिना हो सकते थे ? अगर हाँ, तो ये दंगे, रोज होने चाहिये ? १९८४, में ब्लू स्टार कितना जरूरी था ? उस समय भिंडरावाला पर किस अदालत में राष्ट्र द्रोह का मुकदमा चल रहा था ? मुझे इन सवालों के जवाब किसी भी अख़बार की खबर में नहीं मिलते. शायद, स्पॉट लाइट इस लिये बन पाई की बोस्टन अमेरिका में हैं, यकीन मानिये इस तरह की फिल्म कभी भी भारत में नहीं बन पायेगी, व्यक्तिगत रूप से मैने अब हिंदी अख़बार या न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दिया हैं. मुझे अब मीडिया से कोई उम्मीद ही नहीं रही. और भविष्य में भी कोई खबर ईमान दारी से छापी जायेगी, इसकी भी उम्मीद नहीं हैं. धन्यवाद.

भारत वर्ष, में नाम से पहचान मतलब विशेष का दर्जा और पहचान पत्र से पहचान मतलब, एक सामान्य नागरिक की पहचान.



कल छुट्टी होने से, अपने कागजों को छानना  शुरू कर दिया, यहाँ मेरे कुछ पहचान पत्र भी थे, कुछ अतिसामान्य हैं जैसे कॉलेज के समय का बस रुट,१०-१२ कक्षा, कॉलेज के पहचान पत्र, इत्यादि लेकिन इन सब में  दो चीजें बहुत सामान्य थी मसलन मेरा नाम और एक नंबर, नाम तो सब जगह एक ही था लेकिन नंबर हर जगह अलग-अलग थे. कुछ यही हाल ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट और इसी लिस्ट में आधार कार्ड, जो हाल ही में पहचान पत्र के रूप में शामिल हुआ हैं. अब एक ही शहर या गांव में एक ही नाम के दो शख़्स हो सकते हैं लेकिन पहचान पत्र पर छपा हुआ नंबर, हमेशा यूनिक ही रहेगा. हर जगह नंबर हैं, यही नंबर वोटर लिस्ट की पहचान पत्र में भी भली-भात मौजूद हैं और इसी सिलसिले में हर जगह लगी हुई कतार, बचपन में स्कूल की फीस को भरने से लेकर आज रेलवे की तत्काल टिकट निकालने के लिये, कतार मौजूद हैं, और तो और इस बार दिवाली की मिठाई लेने के लिये भी मिठाई की दुकान के सामने, हम एक कतार में ही खड़े थे. मसलन, एक भारतीय होने के नाते मेरी पहचान एक पहचान पत्र से हैं जिसमें छपा एक नंबर भी हैं  और हर काम के लिये, मुझे एक समान्य नागरिक के रूप में, बिना शिकायत किये एक कतार में ही खड़े रहना हैं.

अब ये नंबर  और कतार तो कम नहीं हो रही लेकिन, हमारी हर सरकार विकास, बेहतर हो रही व्यवस्था और कुशल प्रशासन का ढिंढोरा ज़रुर पिटती हैं. यहाँ, जीडीपी को ७+% से ज्यादा दिखाया जा रहा हैं, मंहगाई कम हो रही, बताई जा रही हैं, मसलन सब अच्छा अच्छा हो रहा हैं, लेकिन मेरी पहचान का नंबर नहीं बदल रहा, शायद ये बदलेगा भी नहीं, अब इस पहचान पत्र में दर्ज नंबर का भी एक अलग ही मजा हैं, ये मुझे सिर्फ एक नंबर के रूप में दिखा रहा हैं और सिरे से मेरी धार्मिक पहचान, लिबास, उच्च जाती, इत्यादि को नकार रहा हैं. मतलब, हमारे भारत देश में, सब एक समान हैं, ना ही कोई हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, इत्यादि ना होकर एक भारतीय हैं और ना ही पंडित में और एक छोटी जात के व्यक्ति में कोई मतभेद हैं, सुखी और संपन समाज, जहाँ सब एक ही हैं. और इसी सिलसिले में वोटर बूथ पर लगी हुई कतार, जहाँ सभी एक ही तरह का पहचान पत्र से पहचाने जा रहे हैं और इसी सिलसिले में बिना किसी शिकायत के शांति बनाये हुये कतार में, बिना किसी भेद भाव के खड़े हैं.

लेकिन, अंदर वोटर मशीन पर, नेता जी का नाम और उनकी पार्टी का चिन्ह छपा हैं, यहाँ किसी पहचान पत्र और उसका नंबर नहीं, मात्र नाम ही एक पहचान हैं. अब यहाँ, ये भेदभाव क्यों ? नेता जी के नाम से उनकी छवि उभर आती हैं, उनके धर्म और जात का पता चलता हैं, कुछ इसी तरह का संजोग उस हर संवाद से हैं जो सार्वजनिक रूप से समाज में प्रचलित होता हैं मसलन टीवी न्यूज का ऐंकर, समाचार पड़ने से पहले अपना नाम बताता हैं ना की पहचान पत्र या किसी अख़बार की खबर के अंत में छपा रिपोर्टर का नाम, फिल्म शुरू होने से पहले, कलाकारों का नाम दिखाया जाता हैं, उसी तरह से क्रिकेट स्कोर बोर्ड पर हमारे देश के खिलाड़ियों का नाम ही मौजूद होता हैं, नाम उस हर जगह पर मौजूद हैं जहाँ इसे विशेष का दर्जा मिलता हैं  अब ये विशेष, वह हैं जो हमारी सरकारी या देश की व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर मौजूद हैं, मतलब ये व्यवस्था को बनाते हैं और इसी व्यवस्था को ये लागू करते हैं, व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर मौजूद होने से, इन्हें व्यवस्था के सारे लाभ भी मिलते हैं मसलन नाम, गाडी, घर, इत्यादि. लेकिन, एक सामान्य नागरिक तो अपनी पहचान पत्र मतलब नंबर से ही पहचाना जाता हैं. अगर इसे व्यवस्था द्वारा दिया गया राशन भी इसे लेना हैं तो राशन कार्ड पर नाम, चित्र के साथ मौजूद होना चाहिये, इस पहचान पत्र को बड़ी ही बारीकी से परखने के बाद ही यहाँ राशन मिलता हैं, लेकिन राशन कहा से आया, किसने दिया हैं, उसकी जानकारी दस्तखत मतलब सिर्फ और सिर्फ नाम से ही पता चलता हैं.

तो जहाँ, इंसान उसके नाम से पहचाना जाता हैं शायद वहां जीडीपी की विकास दर ७+% से ज्यादा की हो, यहाँ आये महीने मंहगाई की दर कम भी होती हो लेकिन, बाकी समाज में हालात कुछ और ही बयान करते हैं. मसलन सितम्बर २०१६ में  रिलायंस जाओ की ४जी सेवा, सार्वजनिक रूप से शुरू की गयी, जिसे पहले ३१-दिसम्बर-२०१६, तक मुफ्त सेवा देने का ऐलान किया और बाद में इस मुफ्त सेवा को बढ़ाकर ३१-मार्च-२०१७ तक कर दिया गया, इस सेवा के लिये उपभोक्ता के पास ४जी का फोन होना चाहिये, जिसकी बाजार में शुरूआती कीमत कुछ ५००० रुपये से शुरू हो जाती हैं, लेकिन फिर भी, १२५ करोड़ के भारत देश में, जियो के आज ७ करोड़ से मात्र कुछ ज्यादा ग्राहक ही बन पाये हैं. निजी तोर पर कुछ दिनों पहले, मुंबई गया था, वहां लोकल ट्रेन के सामान्य कोच में, टैक्सी ड्राइवर, ऑटो रिक्शा ड्राइवर और आते समय ट्रेन के जर्नल कोच में, एक सामान्य नागरिक जिसकी पहचान उसके पहचान पत्र से ही होती हैं उसके पास कोई २जी, ३जी या ४जी फ़ोन नही था, जो था बस, एक सामान्य वोइस कॉल फ़ोन, जिस पर रेडियो भी सुना जा सकता हैं. आज, मुफ्त ४जी की सेवा जिस से मुफ्त इंटरनेट और कॉल भी की जा सकती हैं, इसके लागू होने के ४+ महीने के बाद भी, कुछ ७+ करोड़ नागरिक ही इसका फायदा उठा पा रहे हैं, मतलब आज, एक आम नागरिक के पास उसकी मूलभूत सुविधा की कमी हैं, उसे दो वक्त की रोटी की ज्यादा चिंता हैं ना की मुफ्त ४जी सेवा की. अब, ये कहने की या सोचने का मुद्दा तो नहीं ही होना चाहिये, की हमारा देश किस तरह ऑनलाइन पेमेंट कर सकता हैं या किस तरह केस लेस हो सकता हैं, खैर, इसकी जानकारी तो व्यवस्था के उपरी पायदान पर बैठे, नाम से पहचाने जाते विशेष ही दे सकते हैं.


अंत, में ये समान्य नागरिक जो की अपनी पहचान पत्र से पहचाने जाते हैं, ये मात्र एक गिनती का ही हिस्सा हैं जिस तरह, इस विधानसभा क्षेत्र में कितने नागरिक हैं, इतने वोट इस विधायक को मिले और इतने दूसरे विधायक को, ये विधायक इतने वोट से जीता और फलाना विधायक इतने वोट से हारा, अब चाहे आप सडक पर हैं या किसी महंगी गाडी में हैं, आप इस गणित में, एक नंबर के रूप में ही मौजूद हैं. इससे ज्यादा का अहंकार, एक आम भारतीय नागरिक को नहीं होना चाहिये. अगर, हैं तो ये विशेष नाम के मालिकों द्वारा चलाई जा रही व्यवस्था को नहीं समझ पा रहा. अब में अपने पहचान पत्र पर अपना नाम और उसके साथ मौजूद नंबर को समझ चूका हु, उस व्यवस्था को भी जिस का अधिकार विशेष नाम के मालिको के पास हैं, इसी के तहत ये, उम्मीद भी कम हैं की कुछ बदलाव आयेगा, अगर आया भी तो ४जी जिओ की तरह बस कुछ ही लोगो तक सीमित रह सकता हैं और जिन के पास ये बदलाव नहीं पोहच पायेगा, उनका रुख क्या होता हैं ? क्या वह ताउम्र अपनी पहचान एक पहचान पत्र और उसके नंबर से ही संतुष्ट रहेंगे ? या सामाजिक विद्रोह होने की आशंका बन रही हैं ? अगर जमीनी हकीकत को देखू, तो हाँ, सामाजिक स्तर पर विद्रोह हो सकता हैं, जहाँ हर वर्ग और समुदाय के लोग अपने अधिकारों की मांग को लेकर एक साथ, सडक पर उतर सकते हैं लेकिन विशेष का अधिकार रखने वाली व्यवस्था क्या नया मोड़ लेती हैं ?, इसे देखना और समझना होगा, यहाँ, विशेष और सामान्य के बीच के अंतर को कम करने की जरूरत हैं और इसे समय रहते खत्म करने की मांग हैं, तभी, सही दिशा में, एक लोकतंत्र की स्थापना संभव हैं अन्यथा ये लोकतंत्र एक भ्रम को ही दिखाता रहेगा. धन्यवाद.

रईस बस शाहरुख़ खान ही मोजूद हैं लेकिन क़ाबिल में फिल्म के रूप में कहानी हैं, किरदार हैं, अभिनय हैं, कैमरा वर्क, हिंसा, जज्बात, निर्देशन, इत्यादि मौजूद हैं जो एक कामयाब फिल्म की पहचान होती हैं.



इस हफ्ते, गणतंत्र दिवस की छुट्टी होने से, तारीख २५-जनवरी-२०१७, को दो बड़ी फिल्म रईस और क़ाबिल रिलीज़ हुई, वैसे तो फिल्म की कहानी और उसमे संजोया अभिनय ही, फिल्म को बड़ा या छोटा बनाता हैं, लेकिन हिंदी फिल्म का कद उसमे मौजूद बड़े और छोटे फिल्म स्टार के रूप में देखा जाता हैं, यहाँ रईस में शाहरुख़ खान और क़ाबिल में ऋतिक रोशन की मौजूदगी और इन दोनों फिल्म का एक साथ रिलीज़ होना, पिछले कई दिनों से सिनेमा प्रेमियों के लिये चर्चा का विषय बना हुआ था, एक दर्शक के रूप में मेरी भी दिलचस्पी, इन दोनों फिल्म में लगातार बनी हुई थी. यहाँ, ये क़यास लगाये जा रहे थे की कोन सी फिल्म को ज्यादा दर्शक मिलेगे लेकिन सही मायनो में तो बॉक्स ऑफ़िस की लड़ाई के सिवा इन फिल्म्स की कहानी और अभिनय का विश्लेषण होना चाहिये.

इन दोनों फिल्म में जो कुछ समानता मौजूद थी वह, एक बड़ा फिल्म स्टार नायक के रूप में और इनके सामने नायिका का किरदार उन कलाकारों ने निभाया हैं मसलन रईस में माहिरा खान और क़ाबिल में यामी गौतम, जो आज भी, फिल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में लगी हुई हैं. .ये, ट्रेंड पिछले कुछ साल से बदस्तूर जारी हैं, की हर किसी फिल्म में जहाँ बड़ा पुरुष फिल्म स्टार हैं उसके सामने किसी नई या अपनी पहचान बनाने में लगी हुई अभिनेत्री को ही मौका दिया जाता हैं इसके ताजा उदाहरण दंगल में आमिर खान के सामने उनकी पत्नी के किरदार में मौजूद साक्षी तंवर और आने वाली फिल्म जॉली एलएलबी में अक्षय कुमार के सामने हुमा कुरैशी हैं. खैर, अगर फिल्म रईस और क़ाबिल की ही बात करे, तो इनमें एक और समानता हैं की ये दोनों फिल्म की कहानी, ७०-८० के कामयाब फिल्मी फार्मूला पर निर्धारित हैं मसलन रईस बुरा इंसान नहीं हैं लेकिन कानून को अपने हाथ में लेकर, इसे अपराध करने में कोई परेशानी नहीं हैं कुछ इसी तरह की फिल्म ७०-८० के दशक में धूम मचा चुकी हैं जैसे दीवार, शक्ति, त्रिशूल, गुलामी, इत्यादि और उसी तरह से फिल्म क़ाबिल की कहानी हैं जिसमें मुख्य फिल्म के नायक की रिश्तेदार या बहुत क़रीबी औरत किरदार के साथ ज़ुल्म होता हैं और बाद में यही मुख्य किरदार अपना बदला लेता हैं, कुछ इसी तरह की फिल्म ८०-९० में काफी सराही जा चुकी हैं मसलन दामिनी, शोला और शबनम, जिगर, इत्यादि. एक और समानता थी इन दोनों फिल्म में वह इनका कुल समय २ घंटे २० मिनिट के आस पास का हैं, अब एक फिल्म के लिये दर्शक को इतना समय खुद से बाँध कर रखना, ये सबसे बड़ी चुनौती हैं और अगर दर्शक बाहर जा कर कुछ समय के लिये ही, खुद को फिल्म के किरदार के रूप में जीता हैं, तो समझ लीजिये फिल्म कामयाबी की और बढ़ रही हैं.

अगर पहले, फिल्म रईस की बात करे, तो यहाँ शाहरुख़ खान की मौजूदगी ही, सिनेमा दर्शक की दिलचस्पी इसमें बड़ा देती हैं, अगर, शाहरुख़ खान की फिल्मी सफर पर एक नजर मारे तो देवदास के सिवा हर संजीदा फिल्म में फिर वह चाहे मैं हु नाया कल हो ना हो”, लेकिन यहाँ अभिनय में कही दर्शय के रूप में या कही संवाद के रूप में व्यंग मौजूद हैं, खान की लगभग हर फिल्म एक पारिवारिक फिल्म ही होती हैं लेकिन में हु नामें जिस तरह सुषमिता सेन को साड़ी के भीतर दिखाया गया हैं, वह लाजवाब था, लेकिन यहाँ रईस में शाहरुख़ खान अपनी रोमांटिक इमेज से हट कर एक डॉन का किरदार निभा रहे थे, ना ही यहाँ कोई व्यंग मौजूद था और ना ही किरदार के रूप में कोई गंभीरता, यहाँ व्यक्तिगत रूप से मुझे खान साहिब थोड़ा थके हुये नजर आये और लग रहा था, की ये जबरदस्ती इस किरदार को निभाने की कोशिश कर रहे हैं, मसलन फिल्म फेन में सुपर स्टार आर्यन खन्ना के रूप में जो गंभीरता और संवाद को बोलने का नजरिया था, वह कही भी रईस में मुझे नजर नहीं आया. दूसरा, इस फिल्म की कहानी, जहाँ रईस लोगो का कत्ल इस तरह से लेता हैं मानो रसोई में मूली-गाजर काट रहा हो, लेकिन किसी का भी दर्द इससे देखा नहीं जाता, ये रोबिन हुड वाली बात कही ना कही फिल्म को बेजान कर रही थी, यहाँ फिल्म निर्माता की कुछ मजबूरी भी होगी जिसे फिल्म को सेंसर बोर्ड से पास करवाने के लिये, फिल्म की कहानी से समझौता करना पड़ता हैं. अगर, यहाँ संवाद की बात करे, तो दो ऐसे संवाद हैं जिन पर वाह वाही की जा सकती हैं मसलन दिन और रात इंसानों के होते हैं, शेरो का जमाना होता हैं.और मोहल्ला बचाने में शहर जला दिया”, लेकिन यहाँ रईस की ज़ुबान में और चेहरे के हाव भाव में ना ही कोई वजन दिखा और ना ही कोई दर्द. खान की भारी भरकम आवाज भी यहाँ नामोजुद रही. शाहरुख़ खान की ऐक्टिंग पर किसी को कोई संदेह नहीं लेकिन यहाँ वह मौजूद होकर भी नामोजुद थे. खान की फिल्म में आइटम सोंग शायद पहली बार शामिल किया गया हैं, यहाँ ये इस बात का प्रमाण हैं की निर्माता की उम्मीद सिंगल स्क्रीन के दर्शक को जोड़ने की ज्यादा थी, लेकिन शाहरुख़ खान, शहर के मल्टीप्लेक्स में ज्यादा सरहाया जाता हैं. और अब अगर बाकी कलाकारों की बात करे तो माहिरा खान, शाहरुख़ खान के सामने किसी नो-सीखिया कलाकार की तरह लग रही थी, यहाँ छोटे रईस का किरदार और मजुमदार के रूप में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, की मौजूदगी अच्छी लगी. बाकी, कैमरा वर्क और निर्देशन कुछ ज्यादा कमाल नहीं दिखा पाये.  अगर, इस फिल्म में से शाहरुख़ खान का नाम हटा दिया जाये तो, ये फिल्म एक डिब्बा के सिवा और कुछ नहीं हैं.

अब अगर बात करे फिल्म क़ाबिल की, यहाँ कहानी, जानी पहचानी सी हैं, लेकिन जिस तरह नेत्रहीन किरदारों का यहाँ समावेश किया गया हैं, वह क़ाबिले तारीफ़ हैं, ऋतिक रोशन, यामी गौतम, रोनित और रोहित रॉय, इन सब का किरदार बढ़िया था, और अगर निर्देशन की बात करे तो संजय गुप्ता अक्सर हिंसक फिल्म को फिल्माने के लिये जाने जाते हैं, इनकी फिल्म, हिंसा को भी पेश करती हैं और दर्शक के जज्बात को भी फिल्म से जोडती हैं, शरुआत से ही, रोहन के किरदार के रूप में उसकी बुद्धिमानी का परिचय मिलता हैं, हर छोटी से छोटी चीज को वह अपने नजरिये से इस तरह देखता हैं और उसे इस तरह से पेश करता हैं, की बाकी के किरदारों को, इसका नेत्रहीन होना कही ना कही एक संदेह ही लगता हैं, और यही फिल्म की जान हैं, की कही भी दर्शक के रूप में इस किरदार की काबिलियत पर आप सवाल नही कर सकते. यहाँ, रोहन और सुप्रिया का मिलना और फिर अलग होना, एक दर्शक के रूप में मुझे अपने साथ जोड़ लेता हैं और वही खलनायक के रूप में रॉय भाइयो का किरदार मुझे उनसे नफरत करवाने के लिये बहुत हैं, और संजय गुप्ता की मौजूदगी से, बढ़िया फाइट सीन और अच्छा कैमरा वर्क हैं. इस फिल्म की इतनी तारीफ़ हैं, की आप के २ घंटे २० मिनिट कब पूरे हो गये इसका आपको अंदेशा भी नहीं होगा और आप सिनेमा हाल के बाहर आकर रोहन और सुप्रिया के साथ हमदर्दी ज़रुर रखेगे और कुछ पल तक, जब तक आप अपनी निजी जिंदगी में फिर से मसरुफ नही हो जाते, तब तक, ये दोनों किरदार आप के ज़ेहन में पूरी तरह से मौजूद रहेगे और इसी से ये अंदाजा लगाया जा सकता हैं, की ये फिल्म कामयाब होने की और हैं. दर्शक फिर चाहे सिंगल स्क्रीन का हो या मल्टीप्लेक्स का, इस फिल्म को ज़रुर पसंद करेंगे.


अंत, में एक फिल्म के लिये इसकी पूरी यूनिट और पूरी टीम जिम्मेदार होती हैं, तो कही भी फिल्म का विश्लेषण करने से पहले, हर किसी की मेहनत को नाप तोलना जरूरी हैं, रईस फिल्म की कहानी और किरदार कमजोर हैं, अभिनय पर ज्यादा जोर नहीं दिया गया लेकिन क़ाबिल में ये सब मौजूद हैं. रईस एक डॉन की कहानी हैं लेकिन बकरों की मंडी में भी जहाँ बकरों को काटा जा रहा हैं वहां भी डर नामोजूद हैं लेकिन फिल्म क़ाबिल में जज्बात और डर ये दोनों पूरी तरह अपना परिचय दे रहे हैं. आज शाहरुख खान हर लहजे से ऋतिक रोशन से एक बड़ा कलाकार हैं, लेकिन यहाँ अपनी मौजूदगी इमानदारी से पेश नहीं कर पाये. लेकिन, उम्मीद करता हु, की ये दोनों फिल्म अपने दर्शक को ज्यादा खुश कर पायेगी और व्यक्तिगत रूप से शाहरुख खान की अगली फिल्म में ये अपनी मौजूदगी और गंभीरता का परिचय दे पायेगे जिस तरह अक्सर ये अपनी फिल्म से दर्शक को जोड़ लेते हैं. धन्यवाद.