कुछ फिल्म, जिन्हें में एक दर्शक के रूप में आज भी जीता हू.


फिल्म, अक्सर हमारे ज़ेहन में मौजूद रहती हैं, ये इतनी ताकत से हमारी मानसिकता में घर कर जाती हैं, की कभी कभी किसी फिल्म के संवाद से अपना विद्रोह जाहिर करते हैं कभी कभी व्यंग के माध्यम से, मसलन फिल्म अगनिपथ जिसमें, अमिताभ बच्चन ने काम किया था उसका एक संवाद पूरा नाम, विजय दीनानाथ चौहान, बाप का नाम, दीनानाथ चौहान”. इस संवाद को, यकीनन हर किसी ने अपनी जिंदगी में एक ना एक बार ज़रुर बोला होगा. इसी तरह से कई ऐसी फिल्म हैं, जो जीवन के किसी पड़ाव में कही ना कही देखी थी, लेकिन उनकी आज भी, ताज़गी, उसी तरह से मेरी मानसिकता में मौजूद हैं, और उन्हें समय रहते हुये अक्सर में याद करता रहता हु और आज यहाँ आप से साँझा भी कर रहा हु.

इसमें जो पहली फिल्म, जिसे में यहाँ कहना चाहूंगा वह थी मेरा गाव मेरा देश, यु तो ये फिल्म १९७१ में रिलीज़ हुई लेकिन मेरा तो जन्म ही १९७८ का हैं, कुछ १९८८ के आस पास घर पर, वीसीआर लाकर इस फिल्म को टीवी पर देखा था, उस समय मेरी कोई उम्र १० वर्ष की रही होगी लेकिन में बिना आंख बंद किये इस फिल्म की नायका आशा पारेख को देखता रहा था और मुझे शिकायत थी की इस फिल्म का हीरो धर्मेद्र की जगह, में क्यों नहीं हु और आज भी ये शिकायत बदस्तूर जारी हैं. लेकिन इस फिल्म को जिस तरह फिल्माया गया, गांव का दर्शय, खेत, खलिहान, पहाड़, इत्यादि, बहुत ख़ूबसूरत और बेहतरीन थे. कुछ पल के लिये ही सही, पर कल्पना के माध्यम से ही, ये मुझे मेरे गाव ले गये थे. इस फिल्म के गीत बहुत अच्छे थे, खास कर कुछ कहता हैं ये सावनऔर मार दिया जाये, या छोड़ दिया जाये. फिल्म में नायक धर्मेद्र और खल नायक विनोद खन्ना, इनके किरदार लाजवाब थे, इस फिल्म की अंत की लड़ाई जो की इन दोनों किरदारों के बीच होती हैं, उसने, मुझे भी हवा में हाथ चलाने को मजबूर कर दिया था. लेकिन, मुख्य तह, आशा पारेख हैं, कही भी कोई अश्लील दर्शय या किसी भी रूप में किसी भी नायका का कोई अंग प्रदर्शन नहीं था, साफ सुथरी एक पारिवारिक फिल्म थी, जिस की वजह से फिल्म मुझे आज भी याद हैं.

उसके बाद एक फिल्म के माध्यम से, पहली बार, मुझे मेरे जीवन में डर की पहचान हुई, इसे भी वीसीआर पर ही देखा था, वह थी शिवा, १९९० में रिलीज़ हुई थी, राम गोपाल वर्मा निर्देशक थे और मुख्य नायक नागार्जुन, यहाँ भवानी के रूप में एक खलनायक भी था जो संवाद बहुत जोर लगा कर बोलने से भी इसकी आवाज नहीं निकल पाती थी, लेकिन, जिस तरह से इसे पेश किया गया था, वह लाजवाब था और इसी पेशकश ने मुझे डर का एहसास करवाया था. जो आज भी ज़ेहन में मौजूद हैं, इस फिल्म के माध्यम से, कॉलेज में हो रही गुंडा गर्दी को एक माध्यम के रूप में दिखाया गया था और इसी रूप रेखा में नागार्जुन का किरदार शिवा, एक विद्रोह के नायक के रूप में उभर कर आता हैं. यहाँ, संवाद इतने ज्यादा नहीं थे, लेकिन कैमरा वर्क और निर्देशन लाजवाब था, मसलन, जिस तरह पहली बार, नागार्जुन, लड़ाई करने के लिये गिरी हुई साइकिल की चैन निकालता हैं और इसी के कारण  साइकिल का पैडल लगातार घूमता रहता हैं, जब, फिल्म आगे बढ़ती हैं, और एक सीन में कॉलेज के सामने वाले ढाबे पर, एक खलनायक दूसरे के कान में शिवा का नाम कहता हैं, इसी के तहत जो चमक यहाँ खल नायक के चेहरे पर होती हैं, उसका जवाब नहीं. नागार्जुन, अपनी भतीजी को बचाने के लिये, साइकिल को जिस तरह भगाता हैं. सारे, सीन लाजवाब थे. कैमरा मैंन, यहाँ सीन को कुछ इस तरह से रोकता था, की दर्शक के रूप में आप इसके भीतर ही चले जायेगे. और इस फिल्म को जीने लगेंगे, इस फिल्म को देखने के बाद मुझे अजीब सा डर तो लगता था लेकिन नागार्जुन की तरह में भी यहाँ विद्रोह की मुद्रा को अपना रहा था.

रोजा, १९९२-९३ में ये फिल्म रिलीज़ हुई थी, मुख्यतह ये तमिल में बनी थी लेकिन इसे डब करके, हिंदी फिल्म के रूप में पेश किया गया था, यहाँ डब होने के कारण, होठ का बोलना और संवाद का कहा जाना, कही कही मेल नहीं खाता था, लेकिन, एक दर्शक के रूप में, ये मेरे जीवन की सबसे, बेहतरीन फिल्म थी, इसे आज भी में देखता हू, यु कहूं, की में इसे जीता हू, इस फिल्म, का निर्देशनमधु और अरविंद का अभिनय किरदारों में जान डालता है, और एक बेहतरीन कहानी, मुझे ये फिल्म, हर बार शुरुआत से ही अपने साथ बाँध कर रखती हैं, मसलन फिल्म की शुरुआत में रोजा का लडकपन, जिस तरह ऋषिकुमार रोजा की बड़ी बहन को नामंजूर कर, रोजा को अप नाता हैं, इसी की शिकायत रोजा को रहती हैं लेकिन जब हर तरह की गलत फ़हमी दूर हो जाती हैं और इसी दौरान, ऋषिकुमार को, कश्मीर जाने की पोस्टिंग, और यहाँ रोजा साथ में जाने की जिद्द करती हैं और अपना सूटकेश जिस तरह रखती हैं, ये, लाजवाब सीन था. फिरफिल्म कश्मीर में दिखाई जाती हैं, यहाँ, एक मंदिर में नारियल फोड़ने  से जिस तरह फौजी जवान भाग कर आ जाते हैं, यहाँ एक मंदिर के पास अरविंद का अपहरण होता हैं और इसे देख यहाँ पूजा कर रहा पंडित, भागने के साथ साथ अपना सामान भी बाँध रहा होता हैं. बस, यही से फिल्म एक मोड़ लेती हैं,

अब असली, फिल्म शुरू होती हैं, यहाँ एक अख़बार में आतंकवादी, ऋषिकुमार को छोडने के लिये, अपनी मांगे रखते हैं, अनपढ़ रोजा इसे पड़ नहीं सकती लेकिन पंडित के पड़ने से जिस तरह एक कमजोर दिखाये गये पंडित के किरदार को गुस्सा आता हैं और रोजा सुन हो जाती हैं, बेहतरीन सीन था. अब, यहाँ कुछ फिल्मी संवाद का सिलसिला शुरू होता हैं, पहले, एक आर्मी ऑफिसर और रोजा के बीच. और बाद में जब रोजा एक प्रार्थना पत्रदेल्ही से आये हुये  नेता को देती हैं और इसी दौरान, मंत्री का सेक्टेरी बार बार बीच में टोकता हैं. आखिर मैं, एक आतंक वादी, पंकज कपूर ये कहकर पीछे हटता हैं की वह अब हथियार को छोड़ देगा, लेकिन, इस सीन की एक अजीब खूबी हैं, यहाँ आंतकवादी के हाथ में ऐके ४७ हैं ये इस तरह खड़ा हैं, की यहाँ से, ये ऋषि कुमार को मारकर आसानी से फरार हो सकता हैं, एक बात और, यहाँ ये सिर्फ ऋषि कुमार को ही दिखाई देता हैं और सामने खड़ी रोजा और आर्मी को सिर्फ ऋषि कुमार दिखाई देता हैं, आतंकवादी नहीं. अंत सकुशल हुआ, इस फिल्म से मेरा जज्बाती रिश्ता हैं, आज भी, लिखते लिखते, आँख में पानी आ गया.



इसके बाद, कोई ऐसी फिल्म नहीं आयी की जिसका में व्यक्तिगत रूप से प्रंशसा करू, इसका कारण मेरे व्यक्तिगत जीवन में समय और जज्बातों की कमी का होना भी हैं, लेकिन अब फिल्म के नायक कुछ ५ फिट ७ या ८ इंच के ही हैं और ये ख़ूबसूरत दिखने की होड़ में ज्यादा लगे रहते हैं, ना की, एक किरदार के रूप में अपनी छवि को पेश करने की कोशिश में. अगर कुछ फिल्म को कुछ शब्दों में लिखू तो वह भाग मिल्खा भाग हैं, खासकर जब सोनल कपूर बाल्टी में पानी भर कर लेकर जाती हैं और जिस तरह यहाँ कैमरा, इसे छलकता हुआ दिखाता हैं, बेहतरीन कैमरा वर्क था.  दूसरी फिल्म जो हाल ही में रिलीज़ हुई हैं, दंगल, खासकर, महावीर सिंह का एक आम सा किरदारआम सा घर और आम सी जिंदगी, की एक आम सी चुनौती, यहाँ जिस तरह छोटी गीता और बबिता के किरदारों को पेश किया गया हैं, वह लाजवाब हैं. आखिर में, उम्मीद करता हु, की आने वाली फिल्म भी, कही एक आम से इंसान की आम सी जिंदगी से जुड़ी होगी और यहाँ जज्बात इसी तरह परोये  होंगे, की मुझे निजी तोर पर एक दर्शक के रूप में, यहाँ फिल्म रोजा की याद आ जाये. धन्यवाद.

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