रंगून, फिल्म कई मायनों में एक बेहतरीन फिल्म हैं.



विशाल भरद्वाज, फ़िल्मकार बनने से पहले एक संगीतकार थे और आज भी हैं, एक संगीतकार के रूप में इनकी पहचान १९९६ में आयी गुलजार की फिल्म माचिस से हुई थी, व्यक्तिगत रूप से इस फिल्म का गीत चप्पा चप्पा चरखा चलेमुझे बहुत पसंद हैं उसी तरह से १९९९, गुलजार की ही फिल्म हूं तू हूं, का एक गीत देखी है हमने, पानी ओ पे छिट्टै उडाती हुई लड़की”, आज भी ये गीत मेरे ज़ेहन में पूरी तरह से मौजूद हैं, विशाल भरद्वाज के संगीत में सुरों और आवाज को इस तरह से पिरोया जाता हैं, की इनकी पहचान आम फिल्मी संगीत से हट कर बन जाती हैं मसलन कही भी कोई तीखी या उच्ची आवाज नहीं होती और ना ही भारी आवाज करने वाले साज का इस्तेमाल किया जाता हैं. पूरा गीत एक लय, में आपको बाँध कर रख देता हैं. आज जब, विशाल भारद्वाज एक कामयाब फिल्मकार बनकर उभर आये हैं तो इनके निर्देशन में भी इनके संगीत की तरह एक लय पूरी तरह से मौजूद हैं और कही भी कोई शोर शराबा या उच्ची आवाज इनकी फिल्म से अक्सर ग़ैरमौजूद ही रहती हैं. इसी संदर्भ में इनकी नयी फिल्म रंगून, कई मायनों में एक बेहतरीन फिल्म हैं.

अगर फिल्म के मुख्य किरदारों की बात करे तो, विशाल भरद्वाज ने इन्हें बखूबी फिल्म की कहानी के साथ पिरोया हैं. मसलन, रुसी, एक पारसी फिल्मकार हैं जो पहले एक जाँबाज ऐक्टर था लेकिन किसी हादसे में इनका हाथ कट गया, इन्हें इस बात का अफ़सोस तो हैं लेकिन हिम्मत का जज्बा आज भी इनमें मौजूद हैं. कही ना कही, ये अपनी बात पर अडिग होने की जिद्द पर कायम रहते हैं. इसी तर्ज पर इस फिल्म की मुख्य महिला किरदार जूलिया, ये एक कामयाब फिल्मी अदाकार हैं और अपनी इस शोहरत या इस काल्पनिक दुनिया से ही खुश हैं, इन्हें अपनी गुलामी का कही भी कोई एहसास तक नहीं, ये फिल्म के पहले भाग में बड़ी शान से कहती हैं की बचपन में इनकी माँ से रुसी ने इन्हें १,००० रुपये में खरीदा था, ये कुछ १९३५-४० की बात कर रही हैं जब १००० रुपया बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. ये रुसी के लिये इस क़द्र पागल हैं की ये रुसी के कहने पर कुछ भी कर सकती हैं. और इसी सिलसिले में फिल्म का एक और किरदार नवाब मलिक, पूरी फिल्म में इस किरदार को एक फौजी के ही लिबास में दिखाया गया हैं और कही भी ये अपने नाम के सिवा और कोई पहचान नहीं रखता. यहाँ, एक और किरदार का भी जिक्र होना चाहियेहार्डिंग ये एक अंग्रेज फौजी अफसर हैं और अंग्रेज कूट नीत का जीता जागता प्रमाण.

फिल्म, की शुरुआत ही १४४२ के इर्द गिर्द घूमती हुई दिखाई देती हैं जहाँ भारत अंग्रेज हकुमत का गुलाम देश हैं, वही दूसरे विश्व युद्ध का आगाज अपनी चरण सीमा पर हैं और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज अपनी रूप रेखा में आ चुकी हैं. यहाँ, अंग्रेज हुकूमत को आजाद हिंद फौज का पूरी तरह से एहसास हैं वही एक आम भारतीय को भी है. कही उच्च वर्ग में ये सवाल हैं की आजाद हिंद फौज या हम क्या कर सकते हैं वही समाज का बड़ा तबक़ा जो अंग्रेज हुकूमत की पार्टी में मेहमान भी हैं और वही इसी अंग्रेज हुकूमत की शराब पीने से  भी नहीं हिचकिचाते, उन्हें आजाद हिंद फौज से बहुत उम्मीद हैं और पर्दे के पीछे रहकर ये आजादी के लिये कुछ भी करने का हौसला रखते हैं इसी सिलसिले में फिल्म के एक किरदार महाराजा (भारतीय महाराज, जिनकी रियासत पर अंग्रेज हुकूमत का कब्जा हैं.) अफसर हार्डिंग से कहते हैं की उनकी ये बेशकीमती तलवार अगर आजाद हिंद फौज के हाथ आ जाये तो इसे बेचकर वह भारत की आजादी ला सकते हैं.ये पूरी फिल्म, इसी तलवार के इर्द गिर्द ही घूमती हुई रहती हैं.

फिल्म की कहानी आगे चलती हैं, और एक जगह जूलिया को नवाब मलिक के साथ अपनी मुहब्बत का एहसास होता हैं वही इसी सीन में नदी के लकड़ी के पुल के उस तरफ रुसी, जूलिया को खोजता हुआ पहुच जाता हैं. जूलिया के कदम तो रुसी के तरफ बढ़ जाते हैं. वही फिल्म की कहानी आगे चलती हैं जहाँ जूलिया को इस बात का इल्म होता हैं की ये रुसी की तरफ उसका आकर्षण था और कही ना कही रुसी, जूलिया को अपनी जांगीर ही समझ रहा था वही जूलिया को  नवाब मलिक के साथ हुई मुहब्बत का एहसास, अपनी आजादी की तरह लग रहा था, यहाँ फिल्म की कहानी कई सीन में इस बात को बताने की कोशिश करती हैं की जूलिया को नवाब मलिक के साथ हुई मुहब्बत से, जिंदगी में पहली बार अपनी, मौजूदगी का एहसास हुआ था. यहाँ, रुसी को इन दोनों की मुहब्बत पर भी शक हो जाता हैं,

फिल्म की कहानी आगे मोड़ लेती हैं जहाँ, जूलिया को ये पता चलता हैं की नवाब मलिक असलियत में आजाद हिंद फौज का एजेंट हैं, यहाँ फिल्म के दो बेहतरीन संवाद हैं एक जगह जूलिया नवाब मलिक से कहती हैं की जान से भी बढ़कर कुछ हैं, वही नवाब मलिक कहता हैं की जिस के लिये मरा जा सके”, वही जूलिया कहती हैं की उसे मार दो इसके जवाब में नवाब मलिक कहता हैं की तुम अपने जिस्म में दफन हो”. फिल्म की कहानी आगे मोड़ लेती हैं और एक पूर्वी-भारत की नागरिक, जो की अंग्रेज फौज में नर्स हैं, वह गद्दारी के इल्जाम में अंग्रेज फौज द्वारा पकड़ ली जाती हैं और अपने बच्चे की कुरबानी देने को भी तैयार हैं लेकिन अपने साथियों का नाम नहीं बताती वही इसी सीन में नवाब मलीक आजाद हिंद फौज का गीत गाता हुआ अंग्रेज फौज के सामने बड़ी बहादुरी से खुद की पहचान एक आजाद हिंद फौज के सिपाही के रूप में करवाता हैं, इस सीन के पूरे होने के बाद, रुसी एक जगह गहरी सोच में बैठा हुआ दिखाई देता हैं. यहाँ, निर्देशक बड़ी ही शालीनता से ये बता रहा हैं की रुसी को भी अपनी गुलामी का एहसास हो चूका हैं.

फिल्म, कई और मोड़ से होकर गुजरती हैं और अंत में जूलिया और नवाब मलिक के मारे जाने के बाद, रुसी अंग्रेज हुकूमत से बगावत कर ये तलवार आजाद हिंद फौज के हवाले करने के लिये, एक रसी पर चल रहा होता हैं. यहाँ, फिल्म का तो अंत हो गया, लेकिन फिल्म की कहानी और निर्देशन लाजवाब था, ये कहानी दबी ज़ुबान में इस बात का ऐलान करती हैं की आप को अपने जीवन में कभी ना कभी गुलामी का एहसास होता हैं मसलन रुसी को उसके पिता जी से और जूलिया को रुसी की गुलामी का एहसास होता हुआ इस फिल्म में दिखाई देता हैं और एक दिन वह इस गुलामी के खिलाफ अपनी बगावत का इजहार भी कर देते हैं. मसलन, हर इंसान की सामाजिक और जिंदगी की आजादी में कही भी कोई हनन होगा तो विद्रोह के स्वर उठ सकते हैं.

वही, नवाब मलिक, जहाँ ये किरदार पूरी फिल्म में एक सिपाही के रूप में ही नजर आया हैं वही इस किरदार के नाम से कई छवि उभर कर आती हैं, लेकिन ये भारत देश की आजादी के लिये कुर्बानी की किसी भी हद तक जा सकता हैं. वही, ये एक विद्रोह के रूप में जन-गन-मन राष्टगान को गाता हुआ अंग्रेज सरकार के खिलाफ अपनी बगावत का इजहार भी करता हैं. यहाँ, रुसी, जूलिया, नवाब मलिक और नर्स, ये अपनी जात या धर्म का कही भी वर्णन नहीं करते लेकिन इनकी देशभक्ति से सिनेमा हाल तालियों से ज़रुर गूंज सकता हैं. ये, आज उस मानसिकता को चोट करती हैं की एक बहुस्ख्यंक धर्म के अनुयायी होने से आपकी राष्टभक्ति पर कोई सवाल नहीं उठ सकता  वही दूसरे अल्पसख्यंक समाज को अक्सर अपनी देशभक्ति का प्रमाण देना होगा.


अंत, में इस फिल्म का एक बेहतरीन संवाद लिखकर अपना लेख पूरा करता हू जहां अंग्रेज अफसर अंग्रेजी में कहता हैं की जिस दिन अंग्रेज हुकूमत भारत को आजाद कर देगी, ये देश दुनिया का सबसे बड़ी भ्रष्ट व्यवस्था के रूप में उभर कर आयेगा”. अब, ये संवाद कितना सही या गलत हैं, आप इसका अंदाजा खुद लगाइयेगा. धन्यवाद.

क्या आप सरदार हैं ? मैं, व्यक्तिगत रूप से इस बार इस सवाल का जवाब देने से झिझक रहा था.



क्या आप सरदार जी हैं ?”, मेरे सिख लिबास को देखकर कभी भी मुझ से कोई इस तरह का सवाल नहीं करता, लेकिन अब कोई कर रहा था. और मैं इसका जवाब देने में पूरी तरह से असमर्थ था, अगर हां कहता हू तो मुझसे एक उम्मीद जुड़ जायेगी और हो सकता हैं की में इस उम्मीद को पूरा करने में नाकामयाब रहू. इसलिये यहाँ मुझे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था, लेकिन उम्मीद की नजरे मुझे टक-टका कर देखे जा रही थी, इसलिये ना चाह कर भी मुझे जवाब देना था लेकिन साथ में मैने अपनी पहचान के कई और निशानदेही भी यहाँ जोड़ दी मसलन पंजाबी, गुजराती और सबसे जरूरी इंसान. लेकिन, इस अनुभव ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया की किस तरह हम अपनी पहचान के सहारे जीवन बतीत कर देते हैं लेकिन समाज की जरूरत मंद आवाज के लिये किस तरह ये पहचान ओझल सी हो जाती हैं, दरअसल में पिछले दिनों एक बच्चो के आश्रम या सच कहूं तो अनाथालय गया था और ये सवाल वहां के एक बच्चे ने पूछा था क्यों पूछा था इसका जवाब आखिर में लिखूंगा.

कुछ मित्रों के साथ पिछले दिनों एक अनाथालय में जाना हुआ, यहाँ जाने से पहले बच्चो का आश्रम या इस तरह के अनाथालय की फिल्मी छवि मेरे ज़ेहन में पूरी तरह से मौजूद थी मसलन फिल्म किंग अंकल, यहाँ एक अनाथ बच्चा, अपने आश्रम में दी जा रही यातनाओं से तंग आकर यहाँ से भाग जाता हैं और बाद में इसी फिल्म में दिखाया गया की किस तरह यहाँ आश्रम की वार्डन इन बच्चो को तंग किया करती थी. मेरे ज़ेहन में भी यही, कुछ चल रहा था लेकिन मैं देखना चाहता था की फिल्म में और असलियत में कितना फर्क हैं ? लेकिन यहाँ जिस इनसानियत का मुझे परिचय हुआ और जिस तरह मेरा अनुभव रहा, उसने मुझे एक इंसान होने के नाते, बहुत छोटा बना दिया.

अभी हम इस आश्रम के दरवाजे पर ही खड़े थे, की यहाँ एक बच्चा अपनी क्रिकेट की गेंद को उठाने के लिये भाग कर बाहर आया और उसने हमें देखा अनदेखा करके, अपनी बाल वापस अंदर फैक दी, मुझे अंदाजा हो गया था की अंदर बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं और यहाँ शिकायत भी नामोजुद हैं, अगर कोई तकलीफ होती तो वह बच्चा एक बार तो कम से कम, हमारी तरफ किसी उम्मीद से देखता लेकिन यहाँ इस तरह हमारी उपस्थित को नजर अंदाज करना कही ना कही मुझे खुश ग्वार लग रहा था. जैसे ही अंदर प्रवेश किया, यहाँ का नजारा कुछ और ही था. यहाँ, पूरी तरह से सफाई थी, आश्रम की बिल्डिंग में मार्बल लगा था और ये पूरी तरह से चमक रही थी. कही, भी कुछ ऐसा नहीं था, जहाँ प्रश्न चिन्ह लगाया जा सके.

थोड़ी, देर बाद बच्चो का रात के समय का खाना शुरू हो गया, यहाँ रसोई से बच्चे खुद खाना लेकर आ रहे थे, खाने में दूध भी था, बच्चो की शारीरिक तंदुरूस्ती बहुत अच्छी थी और इनके सर के बालों में लगाया हुआ तेल भी चमक रहा था, यहाँ ये बच्चे इतने अनुशासन में थे की खुद खाने की कतार लगाकर बैठ गये, इनमें से कुछ बच्चे खाना परोस रहे थे और बच्चे अपनी जरूरत के हिसाब से यहाँ खाना या सब्जी ले रहे थे. और खाने के बाद खुद ही अपने बर्तन साफ़ करके, रसोई में रख रहे थे. आखिर में, म्यूजिक भी बजाया और हम भी इन बच्चो के साथ कई गीतों पर थिरक रहे थे. यहाँ, बच्चो के स्वभाव में इनका बचपन और मासूमियत ही थी. कही भी कोई ईर्षा, उच्च-नीच, या ऐसी कोई सामाजिक भावना नजर नहीं आ रही थी जो समाज को बाटती हैं.

इसी दौरान, हमारी मुलाकात यहाँ के सदस्य से हुई मैने उनका नाम पूछना सही नहीं समझा लेकिन मैने इस आश्रम के बारे में उनसे जानकारी ज़रुर मांगी, उन्होने बताया की यहाँ कुछ १२० बच्चो के रहने की व्यवस्था हैं और फिलहाल ९० से कुछ ज्यादा बच्चे यहाँ हैं. उन्होने आगे भी बताया, की यहाँ ऐसे बच्चे हैं जिनके या तो माँ नहीं हैं या बाप, ऐसे भी हैं जिनके माँ-बाप दोनों ही नहीं लेकिन आर्थिक रूप से ये अपने बच्चो का निर्वाह करने में असमर्थ होने से यहाँ, इन बच्चो को छोड़ जाते हैं. हफ्ते के आखिर में शनिवार या रविवार को ये अपने बच्चो का आकर मिल सकते हैं. इसी बीच उनके फोन पर एक अभिभावक का फोन आया जिसे उन्होने तुरंत इनके बच्चे को दे दिया, यहाँ, इन्होने आगे मुझे इनका स्कूल दिखाया जहाँ किसी प्राइवेट स्कूल की तर्ज पर मेज और कुर्सिया लगी हुई थी, कंप्यूटर रूम, लाइब्रेरी, इत्यादि सब कुछ था जिसकी स्कूल में जरूरत होती हैं. बच्चो, के रहने और सोने की पूरी व्यवस्था थी, हर बच्चे को अपना समान रखने के लिये एक लोकर दिया गया था जिसकी चाबी हर बच्चे के गले में लटकती हुई दिखाई दे रही थी. पूरी बिल्डिंग, में स्वस्थता हमारे घरों से ज्यादा थी. ऊपर की बिल्डिंग पर जाते समय, सीडी पर फलों के नाम, दीवार पर महीनों के नाम, इत्यादि हर जगह शिक्षा के ज्ञान के अक्षर लिखे हुये थे.


अंत, में बच्चो से मुलाकात भी हुई, बच्चों के नाम एक आम सामाजिक नाम की तरह ही थे. लेकिन यहाँ, पता चला की तीन बच्चे ऐसे हैं जो सिख धर्म से तालुक रखते हैं, इनके पिता जी का देहांत हो चूका हैं और माँ लोगो के घर में खाना बनाकर अपना गुजारा करती हैं. इन्होने ने ही मुझ से पूछा था, की आप सरदार हैं ? मेरे हाँ कहने पर सामने से जवाब आया की हम भी सरदार हैं, इतने में इन बच्चो का सोने का और हमारा जाने का समय हो गया था. लेकिन, यहाँ कुछ २ घंटे के भीतर इतने सज्जन आये, इनमें से कुछ बच्चो के लिये खाने का समान लेकर आये थे और कुछ किताबे. लेकिन, कही भी कोई अपना नाम नहीं लिखवा रहा था. आते-आते सोच रहा था की हमारे इस शहर में कितने सारे धार्मिक स्थान हैं, जहाँ दिन में पता नहीं कितने श्रद्धालु अपनी-अपनी आस्था के अनुसार अपने-अपने इष्ट को याद करते होंगे, लेकिन मुझे अपने जीवन में पहली बार कोई इनसानियत का धार्मिक स्थान मिला था और जहाँ व्यक्तिगत रूप से में अब से अक्सर जाना चाहूंगा.

यूनिवर्सिटीमें हुल्लड़ हैं या दो विचारधारा के बीच का घमाशान.


आज पूरे देश में उबाल आया हुआ हैं और इसका पूरा ध्यान देश की यूनिवर्सिटी के भीतर मचे हुये घमाशान से हैं. यहाँ, कभी हैदराबाद में रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी होती हैं, कही जे.ऐन.यु, में नारे लगते हुये दिखाई दे रहे जहाँ आवाज सुनाई दे रही हैं लेकिन कोई चेहरा सामने नजर नहीं आ रहा, वही इसी यूनिवर्सिटी में से नजीब नाम के विद्यार्थी का अचानक से गायब हो जाना और अब रामजस कॉलेज जो की देल्ली यूनिवर्सिटी के अधीन हैं, वहां सैमिनार के दौरान हुये हुल्लड़ और बाद में विधार्थियों द्वारा निकाले गये शांति मार्च प्रदर्शन पर हुये हमले में जहाँ पत्थर बाजी एक आतंकवादी हमले की तर्ज पर की गयी, यहाँ पुलिस पर भी आरोप लगा की ये मूकदर्शक बनकर खड़ी रही. यहाँ, पत्थरबाजी का आरोप विधार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन (ABVP) पर लगा हैं और इसी संगठन पर आरोप हैं की इन्होने रोहित वेमुला को ख़ुदकुशी के लिये मजबूर किया था. लेकिन २०१४ में भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार बनने के बाद ही क्यों ABVP इतनी आक्रामक हो गयी या इस संगठन पर इतने गंभीर आरोप लगने शुरू हो गये ?

शायद आज बहुत कम लोग जानते हैं की, १९८९ में वीपी सिंह की केंद्र में सरकार बनी थी जिसे भाजपा का पूर्ण समर्थन था. और उसी दौरान, इसी विद्यार्थी संगठन ABVP ने मंडल कमिशन का उग्र विरोध किया था. उस समय भी ABVP के निशाने पर स्कूल, कॉलेज या वह हर संस्थान था जहाँ शिक्षा का ज्ञान दिया जाता था. लेकिन ये विद्यार्थी संगठन, गैर भाजपा की केंद्र सरकार के समय अक्सर अखबार की सुर्खियों से दूर रहता हैं, अब इस कथन से  क्या कयास लगाये जा सकते हैं ? इस विद्यार्थी संगठन ABVP, राजनीति पार्टी भाजपा और आरएसएस का क्या रिश्ता हैं ? यहाँ, ABVP और भाजपा की विचारधारा की जननी के रूप में आरएसएस को देखा जाये तो कही भी कुछ गलत नहीं होगा. अब, यहाँ आरएसएस की विचारधारा को समझने की जरूरत हैं.

आरएसएस, जहाँ ये खुद को राष्ट्रीय सेवक संघ के नाम से अपनी पहचान एक राष्ट्रीय रूप में करवाती हैं वही, इसकी विचारधारा भारत अर्थात हिंदुस्तान में हिंदू संस्कृत के रूप में प्रफुलित करने की हैं. जिस विचारधारा से इसका उत्पन हुआ वह यही कहती हैं की हिन्दुस्तान को बचाने के लिये हमें सर्वप्रथम हिंदू संस्कृत को बचाने की पहल करनी होगी. इसी विचारधारा के समीप ये संगठन अक्सर सार्वजनिक रूप से दूसरे धर्म पर कटाक्ष भी करता रहा हैं जहाँ ये हिंदू धर्म की वकालत करते हैं वही दूसरे धर्म को इसमें समाने में भी यकीन रखते हैं. इसका प्रमाण हैं इसकी सह संगठन संस्था राष्ट्रीय सिखसेवक जिसका मुख्य कर्ता धर्ता आरएसएस ही हैं, यहाँ, सिख धर्म की मर्यादा को किस तरह खंडित किया जा रहा हैं इसका प्रमाण इसकी साइट की मुख्य तस्वीर पर हैं जहाँ आरएसएस का एक सदस्य टोपी पहन कर खड़ा हुआ दिखाई देता हैं, वही सिख मर्यादा में किसी भी तरह की टोपी को पहने की पूरी तरह से मनाही हैं. यहाँ, ये कुछ इसी तरह सिख इतिहास को भारत की सेवा और सुरक्षा से जोड़कर दिखा रहे हैं. यहाँ ये कही कही गुरु ग्रंथ साहिब की गुरबाणी के पावन शब्द का अर्थ भी हिंदू धर्म के शब्दों के अनुसार करते हुये दिखाई देते हैं, जहाँ ये किसी भी तरह से कोई मर्यादा को पार नहीं कर रहे वही शब्दों के भीतर से कई प्रकार के अर्थ का ओझल विवरण कर देते हैं. कुछ इसी तरह, ये मुस्लिम राष्ट्रीय मंच को भी संचालित करते हैं.  और इस संगठन की वेबसाइट के मुख्य पृष्ट पर ही आर्टिकल ३७० को हटाने की मांग रखी गयी हैं. लेकिन, जब इन्ही की राजनीति पार्टी भाजपा की पूर्णतः बहुमत केंद्र में हैं तो ये आर्टिकल ३७० को क्यों हटाने में असमर्थ हैं, इसका बयान कही नहीं मिला. पूरे विश्व में, आरएसएस ही एक मात्र राष्ट्रीय संघ होगा जो अपनी मुख्य धर्म की विचारधारा के सिवा भी किसी और धर्म की विचारधारा को संग्रहित करके रक्षा करने की छवि का भ्रम समाज में फैला रहा हैं.

इस संगठन की पूरे भारत में जगह जगह पर शाखा हैं, ये सही मायने में कितनी हैं इसका प्रमाण तो नहीं मिला लेकिन हजारों की संख्या में हैं. यहाँ, युद्ध स्तर पर इनके सदस्यों की ट्रेनिंग की जाती हैं. जहाँ व्ययाम से लेकर शस्त्र विधा तक में यहाँ सदस्य को निपूर्ण किया जाता हैं, इस तरह की ट्रेनिंग के पीछे आरएसएस का तर्क आत्म निर्भरता और स्वय खुद की सुरक्षा करने से हैं. वही इन सभी शाखा में आरएसएस की विचारधारा की मानसिकता को भी प्रफुलित किया जाता हैं. मसलन आरएसएस के अनुसार, भारतीय राष्ट्रीयता की विचार धारा, समाज की सामाजिक विचार धारा और यहाँ आरएसएस आदर्शवादी को पैदा करती हैं जो अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये सदा तत्पर रहता हैं.

लेकिन, एक बात ग़ोर की जा सकती हैं की यहाँ आरएसएस के सदस्य के रूप में या इनकी संस्था में पदोदित अधिकारी या सदस्य एक पुरुष ही देखने को मिलेगा, व्यक्तिगत रूप से मेंने कभी भी इनकी शाखा में कभी कोई महिला सदस्य को नहीं देखा. आज, समाज की सामाजिक आजादी के लिये एक महिला को शारीरिक रूप से आत्म निर्भर होना अति आवयशक हैं. इसी उपेक्ष में अगर आरएसएस का सही मायनों में व्याख्यान करना हो तो आरएसएस एक विचारधारा हैं जहाँ हिंदू धर्म को समाज में इसकी रचना के अनुसार प्रचलित करने की मानसिकता पूरी ताकत से प्रबल हैं. और इसी मानसिकता में पुरुष प्रधान समाज और जाती-वाद भी शामिल हो जाते हैं वही दूसरे धर्म की विचारधारा को भी अपने अनुसार पेश करने की कोशिश दिखाई देती हैं.


अब यूनिवर्सिटी, स्कूल, कॉलेज या शिक्षा के सारे संस्थान यहाँ, व्यक्तिगत विचारधारा प्रफुलित होती हैं, यहाँ शिक्षा के माध्यम से एक विद्यार्थी अपनी व्यक्तिगत आजादी की भी पहचान करता हैं वही इस आजादी को खंडित करने वाली विचारधारा से भी परिभाषित होता हैं. असलियत में एक विचारधारा तो हैं जो एक इंसान को आजाद और गुलाम की शक्ल देती हैं, यहाँ १९३१ में अंग्रेज की केद में भगत सिंह भी एक आजाद विचारधारा का मालिक था वही आज भी कई ऐसे उदाहरण हैं जो सदियों से चली आ रही जात-पात, भेद भाव, स्त्री शोषण, इत्यादि से कट्टरता के साथ बंधे हुये हैं. आज भी इन्ही यूनिवर्सिटी में जहाँ हुल्लड़ हो रहा हैं वह असलियत में दो विचारधाराओं के बीच की लड़ाई हैं एक वह जो खुद को आजाद घोषित कर चुकी हैं और सामाजिक आजादी के लिये समाज के बनाये हुये हर नियम की परख कर रही हैं और एक वह विचारधारा हैं जो सदीओ से भारतीय समाज की सामाजिक स्थिति का वर्णन करती हैं. आज, सैकडे की तादाद में विद्यार्थी सडक पर हैं और लाखों की तादाद में लोग अपने घर बैठ कर इस पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं. मैं भी व्यक्तिगत रूप से इस आंदोलन से सैकड़ो किलोमीटर की दूरी से भी जुड़ गया हू लेकिन मुझे और आपको ये तय करना हैं की हम किस विचारधारा से सहमत हैं.

केहर सिंह, ये अदालत तुम्हें शक की गुंजाइश पर सजा-ऐ-मोत की सजा देती हैं.


तारीख ३१-अक्टूबर-१९८४, की सुबह श्रीमती इंदिरा गांधी की सुरक्षा में तैनात सब-इन्सपैक्टर बिअंत सिंह और कांस्टेबल सतवंत सिंह, ने श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी. इसके पश्चात इन्होने अपने-अपने हथियारों को त्याग कर आत्म-समर्पण कर दिया जिसके बाद इंडो तिब्बत बॉर्डर पुलिस के कर्मचारियों द्वारा इन्हें गार्ड रूम में ले जाया गया, थोड़ी देर बाद यहाँ से गोलियों की आवाज सुनाई दी जिससे बिअंत सिंह की मौके पर ही मोत हो गयी और सतवंत सिंह यहाँ बुरी तरह से घायल हो चुके थे जो बाद में इलाज से अपनी इन चोटों से उभर आये. लेकिन, व्यक्तिगत रूप से ये तटस्थ जानकारी नहीं मिली की यहाँ गोलियां कैसे चली थी या बिअंत सिंह की मोत कैसे हुई थी ? जबकि इन दोनों ने अपने अपने हथियार पहले ही त्याग कर आत्म समर्पण कर दिया था. वही, इस केस में आगे चल कर केहर सिंह और बलबीर सिंह को भी हिरासत में लिया गया, इन पर इल्जाम था की ये श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल थे. 

यहाँ केहर सिंह के बारे में थोड़ी सी जानकारी देने की जरूरत हैं की ये रिश्ते में बिअंत सिंह की पत्नी के फूफा लगते थे, जिसकी वजह से इनका अक्सर बिअंत सिंह से मिलना होता था. ये धार्मिक दृष्टिकोण से सिख थे और इनकी सिख धर्म में अपार श्रद्धा थी. ये, देल्ली में ही आपूर्ति एवं निपटान विभाग के डायरेक्टर जनरल के सहायक थे. इन्हें, तारीख ३०-नवम्बर-१९८४ को गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया गया जहाँ इन्हें पहले तारीख ५-दिसम्बर-१९८४ तक और बाद में तारीख १५-१२-१९८४ तक, पुलिस रिमांड पर भेज दिया गया जहाँ श्रीमती इंदिरा गांधी के केस इनसे पूछ पड़ताल की जा सके. यहाँ, ये कहा गया की इनसे मिली जानकारी के आधार पर पुलिस ने इनके घर की तफतीश की जहाँ पुलिस को कई आपत्तिजनक आर्टिकल या लेख मिले थे.

वही बलबीर सिंह, बतौर पुलिस सब-इन्सपैक्टर श्रीमती इंदिरा गांधी की सुरक्षा कर्मियों में शामिल थे. जिन्हें पुलिस ने तारीख ३-दिसम्बर-१९८४ को हिरासत में लिया था और इस धरपकड़ के दौरान, इनके घर से भी कई आपत्तिजनक आर्टिकल या लेख मिले थे. लेकिन, बलबीर सिंह का कहना था की श्रीमती गांधी के हत्या के दिन जब ये शाम को अपनी ड्यूटी पर हाजिर हुये तो इन्हें सीक्यूरिटी लाइन्स में जाने के लिये कहा गया. उसी सुबह ०३:०० बजे, तारीख ०१-नवम्बर-१९८४, को इनकी घर की तलाशी ली गयी जहाँ इनके घर से संत भिंडरावाला की किताब को जब्त किया गया और सुबह ०४:०० बजे, इन्हें यमुना वेलोड्रम ले जाया गया जहाँ इन्हें तारीख ३-दिसम्बर-१९८४ तक रखा गया. यहाँ अक्सर इनके पूछने पर अक्सर ये कहा जाता था की आप को छोड़ दिया जायेगा. बलबीर सिंह के मुताबिक ये पहले से ही पुलिस हिरासत में थे और तारीख ३-दिसम्बर-१९८४ को दिखाई जा रही इनकी हिरासत बेबुनियाद हैं.

श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या में जिस तरह से अदालती कार्यवाही हुई, वह कई मायनों में सवालों के घेरे में आती हैं. मसलन संविधान के आर्टिकल २१ के मुताबिक अदालती कार्यवाही निष्पक्ष और बिना किसी प्रभाव के हो इसलिये अदालत की न्याय प्रक्रिया खुले में और सार्वजनिक रूप से होनी चाहिये. लेकिन, श्रीमती गांधी की हत्या के केस में, हाई कोर्ट के हुकुम से अदालती कार्यवाही तिहार जेल के भीतर की गयी थी. अब, यहाँ ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही तिहार जेल में होने से अदालत के निष्पक्ष कार्यवाही पर सवालिया चिन्ह लग जाता हैं. जहाँ, कथित दोषियों को संविधान के सैक्शन ३२७ के अनुसार एक निष्पक्ष और सार्वजनिक रूप से न्याय प्रक्रिया का क़ानूनी अधिकार हैं जिस से इन्हें एक तरह से वंचित कर दिया गया था. यहाँ, इस बात पर ध्यान देना होगा की ट्रायल कोर्ट के फैसले के आधार पर ही हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट आगे की सुनवाई करता हैं. जिसके तहत, ट्रायल कोर्ट का फैसला अपने आप में बहुत मायने रखता हैं.

यहाँ, पूरी कार्यवाही में एक और प्रश्न उठा जहाँ कथित दोषियों को ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट से वंचित रखा गया, ये वह रिपोर्ट थी जहाँ अभियोग पक्ष के गवाहों ने अपने अपने बयान दर्ज करवायें थे, ये रिपोर्ट अगर कथित दोषियों की पहुच में होती तो हो सकता था की यहाँ से कुछ जानकारी मिल पाती जो दोषियों के बचाव में पेश की जा सकती. यहाँ क़ानूनी कार्यवाही के अधीन, दोषियों पर पहले ट्रायल कोर्ट, फिर हाई कोर्ट और अंत में सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई हुई जहाँ एक मौके पर बलबीर सिंह को हर प्रकार के दोष से मुक्त कर इन्हें रिहा कर दिया गया वही सतवंत सिंह और केहर सिंह को सजा-ऐ-मोत के  ऐलान पर आखिरी मोहर भी लगा दी गयी थी.

यहाँ, बलबीर सिंह के खिलाफ किसी पुख़्ता सबूत की ग़ैरमौजूदगी, इनकी बेगुनाही का कारण बनी लेकिन यही पुख़्ता सबूत केहर सिंह के खिलाफ भी मौजूद नही थे जिन्हें सजा-ऐ-मोत हुयी थी. यहाँ, अभियोग पक्ष की दलील थी की केहर सिंह धार्मिक श्रद्धा से सिख धर्म में यकीन रखते हैं और इसी के तहत इनका मानना था की जून १९८४ में हुआ ब्लू स्टार ऑपरेशन, जिस से अमृतसर के हरमंदिर साहिब गुरुद्वारा पर हमला किया गया और इसी के तहत गुरुद्वारा अकाल तख्त को क्षतिग्रस्त भी किया गया. यहाँ, केहर सिंह, इसका दोषी श्रीमती इंदिरा गांधी को मानते थे और इनसे बदला लेने के लिये आतुर थे. बिअंत सिंह के नजदीकी रिश्तेदार होने के नाते पहले इन्होने बिअंत सिंह को इस बदले के लिये प्रेरित किया और बाद में सतवंत सिंह को, ये दोनों उस समय श्रीमती गांधी के सुरक्षा खेमे में शामिल थे.. इसी के तहत इन्होने पहले बिअंत सिंह को तारीख १४-अक्टूबर-१९८४ को सिख धर्म के अनुसार अमृत पान करवा के पूर्ण रूप से सिख बनाया और बाद में तारीख २४- अक्टूबर-१९८४ को सतवंत सिंह को आर.के.पुरम के गुरुद्वारा साहिब में अमृत पान करवाया. और ये बाद में बिअंत सिंह को तारीख २०- अक्टूबर-१९८४ को अमृतसर के हरमंदिर साहिब गुरुद्वारा में माथा टिकाने भी ले गये थे.

इस क़ानूनी प्रक्रिया के आखिर में भारत के जाने माने वकील श्री राम जेठमलानी जी ने केहर सिंह के केस की पैरवी की थी. यहाँ श्री जेठमलानी का केहर सिंह के लिये कहना था की ये बड़े शांत इंसान थे और देखने में कमजोर दिखाई देते थे. ये, गुरुद्वारा साहिब में जूतों को साफ़ करने की सेवा करते थे. यहाँ, जेठमलानी जी का मानना था की केहर सिंह के खिलाफ कोर्ट में ऐसा कोई पुख़्ता सबूत पेश नहीं किया गया जिस से इनको श्रीमती गांधी की हत्या की साजिश में किसी भी तरह से जोड़ा जा सके.


लेकिन तारीख ०६-जनवरी-१९८९, को तिहार जेल में, केहर सिंह और सतवंत सिंह को फांसी दे दी गयी थी. मैं उस समय, अपने परिवार के साथ अहमदाबाद में ही था यहाँ मेरी  उम्र कुछ १० साल की रही होगी और मैं अपनी माँ से पतंग दिलाने की जिद्द कर रहा था लेकिन उस दिन मुझे मेरी माँ ने घर से बाहर भी नहीं जाने दिया और भोजन भी बिलकुल साधारण ही बनाया था. बड़ा, हुआ तो पता चला की किस तरह बिना किसी सबूत के और सिर्फ और सिर्फ शक के कारण कानूनन एक निर्दोष को भी सजा-ऐ-मोत दी जा सकती हैं. मैं आज व्यक्तिगत रूप से एक भारतीय होने के नाते सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी केहर सिंह को फांसी की सजा से में आज शार्मिंदा हु.

पुलिस की FIR कहती हैं की एनकाउंटर में मारे गये निर्दोष के घर से भगवद गीता का अरबिक संस्करण मिला हैं.


हमारे देश में ऐसे कितने लोग होंगे जो दूसरे धर्म की धार्मिक किताब, जिसे अपनी भाषा में अनुवाद किया गया हो, ऐसी किताब अपने घर में रखते हो, शायद इक्का-दुक्का, अमूमन हमारे देश में हर कोई अपनी आस्था और धर्म के अनुसार, अपनी धार्मिक किताब ही अपने साथ या घर पर, बड़ी ही मर्यादा और धार्मिक श्रद्धा से रखते हैं. लेकिन, फिल्म जॉली एल.एल.बी. २, में इसका मुख्य किरदार जगदीश्वर मिश्ना उर्फ जॉली अपने मोवकिल इकबाल कासिम की पैरवी करते हुये, कोर्ट में पुलिस एफ.आई.आर. की कॉपी की नकल पढ़कर बताता हैं की आपत्तिजनक सामग्री में बताया गया हैं की यहाँ भगवत गीता का अरबिक संस्करण भी दिखाया गया हैं. यहाँ, इस फिल्म में नायक और खलनायक दोनों की बहुसख्यंक समाज से दिखाये गये हैं, एक अल्पसख्यंक समुदाय के नागरिक को आतंकवादी कहकर इसका एनकाउंटर कर देता हैं और दूसरा वकील बनकर, इसे निर्दोष साबित करने की पैरवी कर रहा होता हैं. कुछ इसी तरह से हिंदी फिल्म का इतिहास भरा पड़ा हैं मसलन खाकी (2004), इत्यादि, जहाँ अक्सर एक बहुसख्यंक समाज का नागरिक ही अल्पसख्यंक नागरिक के संविधानिक हितों की रक्षा करते हुये दिखाई देगा.

यहाँ, फिल्म के निर्देशक और कथाकार ने, बड़ी ही चतुराई से भगवद गीता को यहाँ शामिल किया हैं, यहाँ जोली एक हिंदू समाज का उच्च जाती का ब्राह्मण हैं, ये अपनी अंतर आत्मा की आवाज सुनकर, एक निर्दोष हत्याकांड में मारे गये इकबाल कासिम की पैरवी कोर्ट में कर रहा होता हैं जहाँ इस किरदार की ईमान दारी पर किसी भी तरह का संदेह नहीं किया जा सकता. फिल्म की कहानी, एक नया मोड़ लेती हैं जब इस केस के जज त्रिपाठी जी, इस मामले में किसी भी तरह की जांच के आदेश देने से मना कर देते हैं. और यहाँ किसी निष्पक्ष जांच की क्या जरूरत हैं, इसे साबित करने के लिये जॉली से कहते हैं. जोली, यहाँ अदालत में तो एक पुराने सिपाही की तरह नजर आता हैं लेकिन इनका ये पहला बड़ा मुकदमा हैं. इसी के तहत, अभी इनके पास कोई ऐसी पहुच नहीं हैं जिससे इस केस से जुड़े हुये किसी भी सरकारी कागज को प्राप्त कर सके.

संविधान के अनुसार और अदालत के हुकुम से, आप किसी भी केस की FIR कॉपी ले सकते हैं, लेकिन ये फिल्म हैं और इसे इसकी कहानी के अनुसार ही हमें देखना होगा, यहाँ, जॉली, वाराणसी के गुरु जी से सम्पर्क करता हैं, यहाँ इनकी मुलाकात गुरू जी द्वारा करवायें जा रहे क्रिकेट मैच में होती हैं जहाँ दो महिला टीम एक बुरके में और दूसरी टीम साडी में खेल रही होती हैं और आखिर में जीत साडी पहनी हुई टीम की होती हैं. यहाँ, गुरु जी ५ लाख रुपये के बदले FIR की कॉपी देने का भरोसा देते हैं. जिसके लियेजॉली अपना १२ लाख में खरीदा हुये चैम्बर को ५ में लाख में बेचकर इस FIR की कॉपी को प्राप्त करता हैं. दूसरा सीन, कोर्ट रूम में हैं, यहाँ, निर्देशक और कहानीकार की बुद्धिमानी का परिचय मिलता हैं, यहाँ, कहानी के इस मोड़ पर, जॉली अपनी बात सच करवाने के लिये, FIR की कॉपी को अदालत में पेश करता हैं, और इसी सिलसिले में, जॉली अदालत को कहता हैं की यहाँ पुलिस बता रही हैं की तफतीश के दौरान पुलिस को इकबाल कासिम के यहाँ एक मशहूर गजलकार की गजल की सीडी मिली हैं, इत्यादि, और अंत में जोली अदालत को बताता हैं की कासिम के घर से पुलिस ने ये किताब बरामद की हैं जो भगवद गीता का अरबिक संस्करण हैं.

यहाँ, थोड़ा सा रुकना जरूरी हैं, फिल्मकार और निर्देशक की चतुराई देखिये, यहाँ एक दर्शक के रूप में आप ये बिलकुल मना नहीं कर सकते की इकबाल कासिम के घर से किसी गजलकार की गजल की सीडी ना मिली हो, इसी के तहत आप और भी किसी वस्तु पर सवाल नही कर सकते. और इसी सिलसिले में सबसे आखिर में पेश की गयी भगवद गीता का अरबिक संस्करण, जब आप एक दर्शक के रूप में इकबाल कासिम के घर से बरामद किसी और वस्तु पर अपनी सहमति प्रकट कर रहे हैं तो आखिर में दिखाई गयी, भगवद गीता के अरबिक संस्करण पर आप किस तरह से कोई सवाल कर सकते हैं. यहाँ, भी आप की सहमति बन ही जायेगी. लेकिन, फिल्म कार या लेखक की चालाकी देखिये, यहाँ पुलिस की FIR के आधार पर ये बात बताई जा रही हैं, जिसे झूठा करार देने के लिये जोली इस अदालत में आया था, अब कहानी कार के रूप में यहाँ फिल्मकार कासिम के घर से भगवद गीता का अरबिक संस्करण मिलने पर एक ओझल सा प्रश्न चिन्ह लगा रहा हैं लेकिन जिस चतुराई से इसे पेश किया गया हैं वहां दर्शक के रूप में आप इस पर सवाल नहीं कर सकते. इसी का प्रतीक हैं की यहाँ इस फिल्म में आगे जज त्रिपाठी जी भी यही कहते हैं की भारत में भगवद गीता का मिलना, गुनाह कब से हो गया.

यहाँ, फिल्म की कहानी कुछ नये मोड़ लेती हैं और आखिर में जॉली ये बात साबित कर देता हैं की इकबाल कासिम निर्दोष था. ये फिल्म दर्शकों द्वारा खूब सरहाई भी जा रही हैं और बॉक्स ऑफ़िस पर भी धूम मचा रही हैं. अब सोचिये, की यहाँ निर्देशक और फिल्मकार को भगवद गीता के अरबिक संस्करण को यु ओझल करके दिखाने की क्या जरूरत थी ? दो पल के लिये सोचिये, की इस फिल्म में निर्दोष मारा गया अपराधी इकबाल कासिम का नाम सुरेश मेहता हैं और इनको बेगुनाह साबित करने के लिये जो वकील केस लड़ता हैं उसका नाम जगदीश्वर मिश्ना उर्फ जॉली ना होकर समीर कुरेशी हैं. इसी तर्ज पर सारे किरदारों का नाम बदल दीजिये. और यहाँ अदालत में समीर खान बताता हैं की सुरेश मेहता के यहाँ से इस्लाम धर्म से जुड़ी हुई किताब का हिंदी या संस्कृत संस्करण मिला हैं. कुछ इस तरह से अगर फिल्म दिखाई जाती तो क्या आप इसे एक दर्शक के रूप में स्वीकार करते ? क्या इस तरह से दिखाई गयी फिल्म, इतनी सरहाई जाती या बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाब हो पाती ? शायद नहीं.


अंत, में एक दर्शक के रूप में हमें समझना होगा की राजनीति का धर्मवाद या जिस धर्म में हम यकीन करते हैं वो हमारे ज़ेहन में एक कट्टरता के रूप में शामिल हैं ना की उदार के रूप में. अक्सर हर धर्म में इनसानियत का ही संदेश देता हैं और उदार वाद की महक हैं, लेकिन आज हमारे जीवन में जो भी वस्तु हमसे संवाद करती हैं फिर वह चाहे मीडिया हो, सोशल मीडिया, तस्वीर, फिल्म, इत्यादि वह शब्दों के जाल से धार्मिक कट्टरता को ही प्रोत्साहित कर रही हैं और हमें पता भी नहीं चलता की कब हमारी मानसिकता भी एक धार्मिक कट्टरवाद के रूप में प्रफुलित हो गयी. यकीन मानिये, धार्मिक कट्टरता भारत के लोकतंत्र और समाज के ताने बाने को तहस नहस कर सकती हैं. और इस कट्टरता को दूर करने के लिये हमें अपने-अपने धर्म या आस्था को एक बार फिर से समझने की जरूरत हैं लेकिन अपने नजरिये से ना कि किसी और के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से. और सामाजिक आजादी के लिये, संविधान को ही हमारी श्रद्धा की किताब के रूप में स्वीकार करना होगा लेकिन यहाँ भी किसी तरह के अंध विश्वास के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिये.

गुजरात राज्य, यहाँ शेर के लिये गीर अभयारण्य हैं और वही गधे की तरह दिखने वाले घुड़खर के लिये, घुड़खर अभयारण्य. गुजरात राज्य की इस समानित धरती पर सभी के लिये एक सम्मान अधिकार हैं.



उत्तर प्रदेश राज्य चुनाव के दौरान, राजनीतिक बयान बाजी में तल्ख़ बढ़ती जा रही हैं, यहाँ कुछ दिन पहले जहाँ श्री नरेंद्र भाई मोदी जी ने उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार पर आरोप लगाया की ये रमज़ान के महीने में २४ घंटे बिजली देते हैं लेकिन इसी तर्ज पर दिवाली के त्यौहार में भी बिजली दी जानी चाहिये. वही अखिलेश यादव, ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में गुजरात राज्य का नाम लेकर मोदी जी पर प्रहार करने की कोशिश की हैं. यहाँ एक सभा में अखिलेश यादव ने कहा एक गधे का विज्ञापन आता हैं, में इस सदी के सबसे बड़े महानायक से कहूंगा के अब आप गुजरात के गधों का प्रचार मत करिए”. यहाँ, गुजरात राज्य के गधो का जिक्र अखिलेश यादव किस संदर्भ में कर रहे हैं ये हम सब समझ सकते हैं, लेकिन यादव जी इस पूरे बयान को पढ़ कर सुना रहे हैं, अब सवाल ये खड़ा होता हैं की ये भाषण किस ने लिखकर दिया ? समाजवादी पार्टी का किसी भी तरह से गुजरात में कोई वोट बैंक नहीं हैं, तो ये इस तरह की बयान बाजी कर सकते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में इनकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस की अच्छी खासी पकड़ गुजरात में हैं. यहाँ, ये लग रहा हैं की अखिलेश यादव, कांग्रेस का लिखा हुआ भाषण पढ़ के सुना रहे हैं. जो भी,हो एक गुजरात राज्य के नागरिक होने के नाते, मुझे इस तरह की बयान बाजी से जज्बाती ठेस भी पहुँची हैं और बड़ी इमानदारी से में अखिलेश यादव को उन गधा के बारे में ज़रुर बताना पसंद करूंगा जिन का प्रचार सदी के महानायक भी करते हैं.

सबसे, पहले गधा, मुझे नहीं पता इस प्राणी को इतना हास्यजनक क्यों माना जाता हैं ? मैने, कई बार आते जाते, कई प्रदेश में देखा हैं, की गधे की पीठ पर अक्सर कुछ समान लदा होता हैं और इसका मालिक, हाथ में डंडा लेकर, इसको हांक रहा होता हैं, और बदले में इसे आहार के रूप में इसे हरी घास मिलती हैं. अब, इसे, इसका मालिक भर पेट हरी घास देता हैं या नहीं, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. कुछ, इसी तर्ज पर, मेंने व्यक्तिगत रूप से कंपनी के मालिक या किसी ऊंचे पद पर विराजमान सदस्य को अपने कर्मचारी के संदर्भ में अक्सर  गधा कहते हुये सुना हैं. मतलब, समाज में गधे, की पहचान एक कमजोर और लाचार मजदूर या कामगार की ही हैं, जो थोड़ा सा खाकर या इस मेहनताना के बदले सारा दिन अपने मालिक का दिया हुआ वजन उठाता हैं और आना कानी करने, पर मालिक का डंडा इसे इनाम में मिलता हैं. नतीजन, हमारे समाज में आज गधे की रुपरेखा एक निर्बल, कमजोर, शाकाहारी, प्राणी की हैं. शायद, इसी संदर्भ में ये हास्यजनक हैं. लेकिन, क़ुदरत ने ऐसे बहुत से प्राणी बनाये हैं जो समय आने पर अपने ही बच्चो को मार देते हैं, उन पर किसी भी तरह का व्यंग नहीं होता लेकिन मेहनती गधा अपने बच्चो को पूरी इमानदारी से पालता हैं.

अब, यहाँ उन गधो का जिक्र करना जरूरी हैं जिनका प्रचार सदी के महानायक करते हैं और इन्ही गधो के संदर्भ में, अखिलेश यादव ने ये हास्यजनक बयान दिया हैं. लेकिन, अगर यहां बयान देने से पहले इन गधो के बारे में थोड़ा सा भी गूगल करते तो इस तरह की बयान बाजी कभी नहीं कर पाते. यहाँ, गुजरात, के कच्छ जिले में, घुड़खर अभयारण्य (Indian Wild Ass Sanctuary) हैं, जहाँ जंगली गधे की तरह दिखने वाली प्रजाति पायी जाती हैं, यहाँ इन्हें घुड़खर के नाम से जाना जाता हैं और ये दक्षिणी एशिया के लिये ओनागेर की उप-प्रजाति हैं. अमूमन, घुड़खर उच्चाई में १.२ मीटर (१२० सेंटीमीटर) होती  हैं और वही लंबाई में २.४ मीटर (२४० सेंटीमीटर) होती हैं. इसका औसतन वजन २१० किलोग्राम हैं. ये, कुछ ६०-७० किलोमीटर प्रति घंटे के हिसाब से भाग सकते हैं. यहाँ, कच्छ के रेगिस्तान में ये ४८ डिग्री सेलेसिस तक के तापमान में रह सकते हैं और पानी की कमी होने पर भी ये खुद को जीवित रखने में सक्षम हैं. ये, आम तोर पर १०-२० के झुंड में रहते हैं. ये पूर्णतः शाकाहारी हैं और इनका आहार हरी घास या इसी तरह का कोई और चारा हैं. आज ये दुर्लभ प्रजातियों में इनका समावेश होता हैं लेकिन यहाँ इनकी आबादी अब लगातार बढ़  रही हैं. और अमूमन इनका जीवन कुछ २०-२५ साल का होता है. 

घुड़खर, इनकी  प्रजाति और शरीर की बनावट गधो की प्रजाति से अलग हैं. लेकिन, इनकी प्रजाति घोडा, ज़ेबरा और गधा, के परिवार में से ही है. और इसी के चलते, अक्सर इनकी पहचान गधा के रूप में ही कर दी जाती हैं. परंतु, अगर इनकी पहचान गधे के रूप में भी होती हैं तो इसमें हास्यास्पद क्या हैं ? इसी संदर्भ में, गुजरात राज्य की प्रंशसा करनी चाहिये, की यहाँ जुनागड़ के पास गीर अभयारण्य हैं जहाँ शेरो की प्रजाति प्रफुलित हो रही हैं और वही इसी गुजरात राज्य में गधा की तरह दिखने वाले घुड़खर अभयारण्य भी हैं जहाँ घुड़खर प्रजाति की संरक्षण किया जाता हैं. इसी तरह अहमदाबाद के पास थोल पक्षी अभयारण्य हैं जहाँ कई तरह के पक्षियों की संरक्षण किया जाता हैं, इसी तरह पूरे राज्य में कई तरह के प्राणी, जीव, पक्षी, इत्यादि अभयारण्य हैं.


राजनीति, में अक्सर व्यक्तिगत या अति व्यक्तिगत प्रहार होते रहते हैं लेकिन जिस तरह से अखिलेश यादव ने गुजरात राज्य के गधो को लेकर हास्यास्पद बयान दिया हैं, इसकी गंभीर शब्दों में आलोचना होनी चाहिये.और दूसरी तरफ उन्हें एक मुख्यमंत्री होने के नाते गुजरात से सीखना भी चाहिये की यहाँ किस तरह सबका एक समान अधिकार और सम्मान हैं, वही ये गधे की तरह दिखने वाले घुड़खर को संरक्षण भी देते हैं वही सदी के महानायक से इसका प्रचार भी इस तरह करवाते हैं की लोगो में कच्छ रन और घुड़खर के लिये जिज्ञासा पैदा की जा सके, यहाँ पर्यटक व्यवसाय को प्रफुलित किया जा सके ताकि यहाँ के लोगो के लिये नये रोजगार के अवसर भी पैदा किये जा सके और वही घुड़खर अभयारण्य आय के मामले में स्वावलंबी बन सके, ताकि इसका और ज्यादा विकास और संरक्षण हो सके. व्यक्तिगत रूप से, में एक गुजराती नागरिक होने के नाते श्री अखिलेश यादव को ज़रुर कहूंगा कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में.धन्यवाद.

मेरा एक्सीडेंट हो चूका था और मेरी एक उँगली, नाखून तक कट कर अलग हो चुकी थी, यहाँ मेरी जिंदगी बदल गयी थी

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आज तारीख, २०-फ़रवरी-२०१७, सुबह से जीवन में बदलाव के संकेत मिलने शुरू हो गये थे, अमूमन में खुद ही अपना क्सालिक ३५० बुलेट चलाकर ऑफ़िस आता हु लेकिन आज मेरा भाई मुझे ड्राइव करके कार में छोडने आ रहा था. सुबह से ही अपनी दिनचर्या के हर काम में, दुगना समय लग रहा था. कल, रविवार की छुट्टी, पूरा दिन घर ही में था. ना पत्नी जी कोई शिकायत कर रही थी और वही माँ, मुझे आज फिर एक बार ५-७ साल का बच्चा समझ कर लाड प्यार कर रही थी. दोस्तों-रिश्तेदारो के फोन आ रहे थे, कुछ वह भी थे जिनसे समय के आभाव में कई महीनों से बात-चित नहीं हुयी थी. यहाँ, मेरे पास समय ही समय था, जिस के आभाव की मुझे अक्सर शिकायत रहती हैं. जिस सहानुभूति को मेंने अपने जीवन में कभी भी स्वीकार नहीं किया हैं. वही, हर तरफ से सहानुभूति का एहसास था, यहाँ, कुछ तो हुआ था जिसने मेरी रोजाना की आम जिंदगी को बदल दिया था.

तारीख, १८-फ़रवरी-२०१७, दिन शनिवार, ऑफ़िस के बाद, दूसरे दिन की छुट्टी का मोह्काना एहसास था. या, आम दिनों की तरह में थलतेज स्थिति गुरुद्वारा साहिब में माथा टेक कर, सरखेज-गांधीनगर हाइवे से, गांधीनगर की और अपने घर, जो की चांदखेडा में है, उसकी और चल पड़ा, रास्ते में, कारगिल पेट्रोल पंप से पेट्रोल भरवाकर, यही के एटीएम से कुछ रुपये निकाल लिये. मेरे लिये, शनिवार का मतलब, सीडी लगाकर देर रात तक फिल्म को देखना, यहाँ मध्य रात्रि में खुद चाय को बनाना, कुछ ब्रेड को गर्म करके, सेंडविच की तरह, पलेट में सजाकर, पूरी तरह से खुद को सिनेमा में मौजूदगी का एहसास करवाता हु, देर रात तक टीवी देखने का एक और भी कारण हैं क्युकी, दिन में बच्चो की मौजूदगी से में अपना टीवी पर का अधिकार खो देता हु और ये तभी मिलता हैं, जब वह रात को सो जाते हैं. यहाँ, में अपने घर की और जा रहा था, मन ही मन में आज की रात पूरी तरह से सिनेमा को समर्पित करने का इरादा बना लिया था. यहाँ, गोतो चोकड़ी का पुल उतर कर आगे से, जब में दायी और मुड़ा, जहाँ इतना समय आराम से था की दूसरी तरफ से आ रही गाडियों के पहले में, अपनी सडक को पार कर पायु लेकिन वही दूसरी तरफ से आ रही, गोल्डन (सुनहरी) रंग की आल्टो कार, इतनी तेजी से मेरी तरफ आ गयी की जिसने मुझे और मेरे मोटर साइकिल को अपनी चपेट में ले लिया,

यहाँ, एक्सीडेंट इतना भयानक था की इसकी आवाज सुनकर आस पास के लोग जमा हो गये. मेरा मोटर साइकिल पूरी तरह से १८० के कोण पर घूम गया था. इसका स्टैंड, स्टेरिंग पूरी तरह से बेंड हो गया था और पेट्रोल टंकी से बाहर निकल रहा था. मुझे, इतना याद हैं की जब आल्टो ने टक्कर मारी, तब में इसके बोनेट से टकरा कर नीचे गिर गया था, मेरी पगड़ी सडक पर थी, लेकिन, बिजली की फुर्ती से मैने उठ कर, सबसे पहले मेरी पगड़ी को उठाकर अपने सर पर रखा और इतने में जमा हुये अंजान लोग मुझे सडक के किनारे ले आये. में, खुश था, मुझे कही कोई खरोंच तक नहीं आयी थी, लेकिन, दायें हाथ से, बायें हाथ की सबसे बड़ी या बीच की उँगली को दबाकर रखा हुआ था, जब दर्द का एहसास हुआ और नजर यहाँ गयी, तो पता चला की मेरी ये उँगली, अपने नाखून तक पूरी तरह से कट चुकी हैं. मतलब, नाखून, तक का हिस्सा इस उँगली से गायब हैं. लहू, बह रहा था, दोनों हाथ और कपडे, इस लहू, से लाल रंग के हो चुके थे.

इतने में, कुछ अनजान लोग, जो अक्सर इस तरह के एक्सीडेंट में एक फरिश्ते की तरह मदद करते हैं, वही, मेरा मोटर साइकिल किनारे पर लेकर आये और मुझे संभाल रहे थे, इतने, में मैने, देखा की आल्टो में से एक महिला और इसका चालक नीचे उत्तरे लेकिन, दूसरे ही पल वह गाडी में बैठकर, रफूचक्कर हो चुके थे. इसी बीच, मेंने अपने घर वालो को फोन कर दिया और यही अंजान फरिश्ते, मुझे बगल एक मंदिर के बाहर खुली जगह पर ले गये, जहाँ में बेंच पर बैठ गया, यहाँ, इन्होने हर तरह से मेरी मदद करने की कोशिश की, लेकिन में इन्फेक्शन के कारण अपने घाव पर कुछ भी नहीं लगवाना चाहता था और इलाज के लिये, में हमारे पारिवारिक डॉक्टर के पास ही जाना चाहता था. यहाँ, ३० मिनिट तक, हाथ की इस कट्टी हुई उँगली से तेज धार में लहू बहता रहा. मेरा आर्मी से जुडने का बचपन से अरमान था, शायद तब अगर इस तरह का खून मेरे जख़्म से बहता तो इसकी कदर हो सकती थी लेकिन आज, एक आम नागरिक होने के नाते, इस लहू की कोई कीमत नहीं थी, ये बस किसी पहचान के बिना बह रह था.

घर से भाई और पिता जी आ गये, में इन अंजान फरिश्तो का शुक्रिया करके गाडी में बैठ गया, डॉक्टर के वहां ड्रैसिंग करके, उन्होने दो इंजैक्शन लगाये और कुछ दवाइयों के साथ मुझे घर भेज दिया, दूसरे दिन एक्स-रे करवाने पर दिखाई दिया की उँगली के ऊपर के पहले जोड़ से थोड़ा पहले, हड्डी टूट गयी अगर थोड़ी और ज्यादा नीचे तक ये उँगली या इसकी हड्डी कट गयी होती तो यकीनन ऑपरेशन होना था, लेकिन, यहाँ डॉक्टर साहिब ने एक महीने तक ड्रैसिंग करने को कहा जिससे उँगली के ऊपरी भाग में, चमड़ी के आ जाने से घाव भर जायेगे.

यहाँ, एक हाथ की एक उँगली वह भी सिर्फ नाखून तक गायब हो जाने से, मेरी जिंदगी बदल गयी थी. लेकिन, यहाँ अवलोकन करना जरूरी हैं की इसका कसूर वार कोन हैं. में खुद ? आल्टो कार का चालक ? या व्यवस्था ? में, रोज इसी रास्ते से जाता हु, और इस मोड़, पर गाडी धीरे करने के लिये स्पीड ब्रेकर भी बनाकर रखे हैं. ये आल्टो, अभी इन स्पीड ब्रेकर पर थी, और दूसरी कोई गाडी इसके आस पास नहीं थी, में यहाँ से आसानी से जा सकता था, लेकिन, अचानक से आल्टो गाडी ने अपनी, स्पीड बड़ा दी. इसकी दो वजह हो सकती हैं, एक, ड्राइवर ने ब्रेक की जगह ऐक्सलरेटर दबा दिया हो, लेकिन गाडी बहुत दूरी पर थी, मतलब अगर ड्राइवर मुस्तैद होता तो ये, गलती सुधारी जा सकती थी, लेकिन इसकी दूसरी वजह थी, की यहाँ गाडी में पूरा परिवार मौजूद लग रहा था, आगे की सीट पर कार चालक, उनके साथ एक और पुरुष और पीछे की सीट पर दो महिलाये और बच्चे थे. यहाँ, जिस निष्कर्ष पर पंहुचा हु वह यह हैं की यहाँ, कार चालाक का ध्यान बातों में था जिससे स्पीड बड़ा दी गयी लेकिन नजरे सडक पर ना होकर बातों में मसरुफ थी. लेकिन, ये मुझे नीचे गिरा कर, खुद को अकेला पाकर वहां से रफूचक्कर हो गये. इनसानियत के नाते, मेरा हाल चाल तो पूछ सकते थे. अगर, ये एक्सीडेंट रात के ९ बजे ना होकर कुछ रात के २-३ बजे होता, जहाँ, पास की दुकान या काम गार, जा चुके होते तो ये एक लावारिस को युही छोड़कर भाग जाते.

अब, इसका एक और पहलू देखे, व्यवस्था, यहाँ, ये देखना होगा की गांधीनगर-सरखेज हाइवे एक समय मतलब आज से कुछ ३० साल पहले तक, अहमदाबाद शहर से एक बाय पास रोड था, गाडिया कम थी और दोड़ती थी, आज ये पूरी तरह से शहर के बीच में आ चूका हैं, गाडियों की संख्या बहुत ज्यादा हो गयी हैं. लेकिन, स्पीड उतनी ही हैं, यहाँ, एक और चीज ग़ोर करने लायक हैं की सोला ब्रिज से गोता ब्रिज तक, बीच में हाई कोर्ट आता हैं, जिसके कारण ट्रैफिक पुलिस भी यहाँ मौजूद रहती हैं और स्पीड ब्रेकर भी अच्छी संख्या में और बड़े आकर में मौजूद हैं, जो गाडी को धीमी होने के लिये मजबूर कर देता हैं, वही, गोता ब्रिज के बाद स्पीड ब्रेकर बहुत कम संख्या में और छोटे आकर में हैं लेकिन ट्रैफिक पुलिस का यहाँ अता पता नहीं हैं, अगर किसी नेता को यहाँ से गुजरना हो तो भारी संख्या में ट्रैफिक पुलिस गाडियों की रोक थाम कर रही होती हैं लेकिन आम नागरिक के लिये, शायद यहाँ कोई व्यवस्था मौजूद नहीं हैं. वही, सोला ब्रिज तो अकस्मात प्रभावित क्षेत्र की तरह लगता ही जहाँ आये दिन एक्सीडेंट होते रहते हैं. लेकिन, गोता ब्रिज भी कुछ कम नहीं है, मतलब ब्रिज के दोनों और शुरुआत में ही दोनों तरफ की सडक दो रास्तों में कट जाती हैं मसलन साइड रोड और मैन रोड, यहाँ से गड़िया दोनों तरफ की सडक पर कोर्स कर रही होती हैं जहाँ एक्सीडेंट होने की संभावना बहुत बड़ जाती हैं.

यहाँ, इस रिपोर्ट के मुताबिक सालाना रोड एक्सीडेंट में ज्यादा भारतीय मारे जाते हैं, २०१४ में कुल १३९,६७१ लोग एक्सीडेंट में मारे गये थे, जिसका प्रतिदिन औसत ३८२ दिन होता हैं. जबकि २०१४ में हुये आतंकवादी हमलो में कुल ८३ लोगो की मोत हुई थी, यहाँ, व्यवस्था एक अपराधी के रूप में नजर आ रही हैं और इसे समय रहते अपनी गलती या लापरवाही का एहसास नहीं हुआ तो, ये प्रति दिन एक्सीडेंट से मरने वालों की संख्या भयंकर रूप धारण कर सकती हैं. जिसका इल्जाम हमारी व्यवस्था पर ही होगा और इसका जवाब भी व्यवस्था को ही देना होगा.


जब, में वहां,सडक के किनारे मंदिर के बाहर खुली जगह पर बैठा था तब अनजान फरिश्तो ने मुझे बताया की सरदार जी आप नसीब दार हैं, आप बच गये, वरना यहाँ दोपहिया चालक, कम ही बचतें हैं. लग भी रहा था, की अगर आल्टो की जगह कोई एस.यु.वी. होती और मेरे पास बुलेट ना होकर कुछ एक्टिवा या स्पेल्डर होता, तो राम-राम सत्य हो चूका होता. में, उस दिन घर गया, उँगली तो कट गयी थी, लेकिन सुकून था की में मेरे बच्चो को एक बार फिर हस्ता खिल खिलाता हुआ देख सकता हु, इस एहसास ने मुझे, अपनी उँगली कट जाने के गम को एक तरह से भुला दिया था. लेकिन. समय रहते अगर व्यवस्था ने सरखेज-गांधीनगर हाइवे के पुख़्ता सुरक्षा के उपाय नहीं किये, तो आने वाले समय में यहाँ और एक्सीडेंट होने की संभावना तो हैं ही लेकिन ये जान लेवा भी हो सकते हैं. और यहाँ, अगर किसी की जान गयी, तो इसका क़सूरवार कार चालक से ज्यादा व्यवस्था होगी. धन्यवाद.