“क्या आप सरदार जी हैं ?”, मेरे सिख लिबास को देखकर
कभी भी मुझ से कोई इस तरह का सवाल नहीं करता, लेकिन अब कोई कर रहा था.
और मैं इसका जवाब देने में पूरी तरह से असमर्थ था, अगर हां कहता हू तो मुझसे
एक उम्मीद जुड़ जायेगी और हो सकता हैं की में इस उम्मीद को पूरा करने में नाकामयाब
रहू. इसलिये यहाँ मुझे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था, लेकिन उम्मीद की नजरे
मुझे टक-टका कर देखे जा रही थी, इसलिये ना चाह कर भी मुझे जवाब देना था लेकिन
साथ में मैने अपनी पहचान के कई और निशानदेही भी यहाँ जोड़ दी मसलन पंजाबी, गुजराती और सबसे जरूरी इंसान. लेकिन, इस अनुभव ने मुझे बहुत
कुछ सिखा दिया की किस तरह हम अपनी पहचान के सहारे जीवन बतीत कर देते हैं लेकिन
समाज की जरूरत मंद आवाज के लिये किस तरह ये पहचान ओझल सी हो जाती हैं, दरअसल में पिछले दिनों एक बच्चो के आश्रम या सच कहूं तो अनाथालय गया था और ये
सवाल वहां के एक बच्चे ने पूछा था क्यों पूछा था इसका जवाब आखिर में लिखूंगा.
कुछ मित्रों के साथ पिछले दिनों एक अनाथालय में
जाना हुआ, यहाँ जाने से पहले बच्चो का आश्रम या इस तरह के अनाथालय की
फिल्मी छवि मेरे ज़ेहन में पूरी तरह से मौजूद थी मसलन फिल्म किंग अंकल, यहाँ एक अनाथ बच्चा, अपने आश्रम में दी जा रही यातनाओं से तंग आकर
यहाँ से भाग जाता हैं और बाद में इसी फिल्म में दिखाया गया की किस तरह यहाँ आश्रम
की वार्डन इन बच्चो को तंग किया करती थी. मेरे ज़ेहन में भी यही, कुछ चल रहा था लेकिन मैं देखना चाहता था की फिल्म में और असलियत में कितना
फर्क हैं ? लेकिन यहाँ जिस इनसानियत का मुझे परिचय हुआ और जिस तरह मेरा
अनुभव रहा, उसने मुझे एक इंसान होने के नाते, बहुत छोटा बना दिया.
अभी हम इस आश्रम के दरवाजे पर ही खड़े थे, की यहाँ एक बच्चा अपनी क्रिकेट की गेंद को उठाने के लिये भाग कर बाहर आया और
उसने हमें देखा अनदेखा करके, अपनी बाल वापस अंदर फैक दी, मुझे अंदाजा हो गया था की अंदर बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं और यहाँ शिकायत भी
नामोजुद हैं, अगर कोई तकलीफ होती तो वह बच्चा एक बार तो कम
से कम, हमारी तरफ किसी उम्मीद से देखता लेकिन यहाँ इस तरह हमारी
उपस्थित को नजर अंदाज करना कही ना कही मुझे खुश ग्वार लग रहा था. जैसे ही अंदर
प्रवेश किया, यहाँ का नजारा कुछ और ही था. यहाँ, पूरी तरह से सफाई थी, आश्रम की बिल्डिंग में मार्बल लगा था और ये
पूरी तरह से चमक रही थी. कही, भी कुछ ऐसा नहीं था, जहाँ प्रश्न चिन्ह लगाया जा सके.
थोड़ी, देर बाद बच्चो का रात के
समय का खाना शुरू हो गया, यहाँ रसोई से बच्चे खुद खाना लेकर आ रहे थे, खाने में दूध भी था, बच्चो की शारीरिक तंदुरूस्ती बहुत अच्छी थी और
इनके सर के बालों में लगाया हुआ तेल भी चमक रहा था, यहाँ ये बच्चे इतने
अनुशासन में थे की खुद खाने की कतार लगाकर बैठ गये, इनमें से कुछ बच्चे खाना
परोस रहे थे और बच्चे अपनी जरूरत के हिसाब से यहाँ खाना या सब्जी ले रहे थे. और
खाने के बाद खुद ही अपने बर्तन साफ़ करके, रसोई में रख रहे थे. आखिर
में, म्यूजिक भी बजाया और हम भी इन बच्चो के साथ कई गीतों पर
थिरक रहे थे. यहाँ, बच्चो के स्वभाव में इनका बचपन और मासूमियत ही
थी. कही भी कोई ईर्षा, उच्च-नीच, या ऐसी कोई सामाजिक भावना
नजर नहीं आ रही थी जो समाज को बाटती हैं.
इसी दौरान, हमारी मुलाकात यहाँ के
सदस्य से हुई मैने उनका नाम पूछना सही नहीं समझा लेकिन मैने इस आश्रम के बारे में
उनसे जानकारी ज़रुर मांगी, उन्होने बताया की यहाँ कुछ १२० बच्चो के रहने
की व्यवस्था हैं और फिलहाल ९० से कुछ ज्यादा बच्चे यहाँ हैं. उन्होने आगे भी बताया, की यहाँ ऐसे बच्चे हैं जिनके या तो माँ नहीं हैं या बाप, ऐसे भी हैं जिनके माँ-बाप दोनों ही नहीं लेकिन आर्थिक रूप से ये अपने बच्चो का
निर्वाह करने में असमर्थ होने से यहाँ, इन बच्चो को छोड़ जाते
हैं. हफ्ते के आखिर में शनिवार या रविवार को ये अपने बच्चो का आकर मिल सकते हैं.
इसी बीच उनके फोन पर एक अभिभावक का फोन आया जिसे उन्होने तुरंत इनके बच्चे को दे
दिया, यहाँ, इन्होने आगे मुझे इनका स्कूल दिखाया जहाँ किसी
प्राइवेट स्कूल की तर्ज पर मेज और कुर्सिया लगी हुई थी, कंप्यूटर रूम,
लाइब्रेरी, इत्यादि सब कुछ था जिसकी
स्कूल में जरूरत होती हैं. बच्चो, के रहने और सोने की पूरी व्यवस्था थी, हर बच्चे को अपना समान रखने के लिये एक लोकर दिया गया था जिसकी चाबी हर बच्चे
के गले में लटकती हुई दिखाई दे रही थी. पूरी बिल्डिंग, में स्वस्थता हमारे घरों से ज्यादा थी. ऊपर की बिल्डिंग पर जाते समय, सीडी पर फलों के नाम, दीवार पर महीनों के नाम, इत्यादि हर जगह शिक्षा के ज्ञान के अक्षर लिखे हुये थे.
अंत, में बच्चो से मुलाकात भी हुई, बच्चों के नाम एक आम सामाजिक नाम की तरह ही थे. लेकिन यहाँ,
पता चला की तीन बच्चे ऐसे हैं जो सिख धर्म से
तालुक रखते हैं, इनके पिता जी का देहांत हो चूका हैं और माँ लोगो के घर में खाना बनाकर अपना
गुजारा करती हैं. इन्होने ने ही मुझ से पूछा था, की आप सरदार हैं ? मेरे हाँ कहने पर सामने से जवाब आया की हम भी सरदार हैं,
इतने में इन बच्चो का सोने का और हमारा जाने का
समय हो गया था. लेकिन, यहाँ कुछ २ घंटे के भीतर इतने सज्जन आये, इनमें से कुछ बच्चो के लिये खाने का समान लेकर आये थे और
कुछ किताबे. लेकिन, कही भी कोई अपना नाम नहीं लिखवा रहा था. आते-आते सोच रहा था की हमारे इस शहर
में कितने सारे धार्मिक स्थान हैं, जहाँ दिन में पता नहीं कितने श्रद्धालु अपनी-अपनी आस्था के
अनुसार अपने-अपने इष्ट को याद करते होंगे, लेकिन मुझे अपने जीवन में पहली बार कोई इनसानियत का धार्मिक
स्थान मिला था और जहाँ व्यक्तिगत रूप से में अब से अक्सर जाना चाहूंगा.
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