जेनोसाइड के पहले ४ चरण.


दूसरे विश्व युद्ध में यहूदी समुदाय का जेनोसाइड जिसे होलोकास्ट के नाम से भी जाना जाता हैं, इसके बाद पूरे विश्व में ये क़यास लगाने शुरू हो गये थे की ये जेनोसाइड आखिर होता किस तरह हैं, इससे बेहतर सवाल होगा की इसे अंजाम किस तरह दिया जाता हैं क्युकी ये क़ुदरती घटना नहीं हैं, ये मानव समाज का सच हैं जहाँ समय रहते दो समुदाय के बीच का तनाव, अति उग्र होता हैं और जेनोसाइड की घटना हकीकत में आती हैं. इसके आगे भी एक सवाल था की इसे कैसे रोका जाये लेकिन रोकने के लिये, पहले उन कारणों का अध्ययन जरूरी हैं जो जेनोसाइड की वजह हैं. इसी के पश्चात जानकारों ने सभी घटनाओं का अध्ययन करके ये निष्कर्ष निकाला की, जेनोसाइड यकायक नहीं होता, ये समाज के दो समुदाय मुख्यतः बहु स्ख्यंक समाज की तल्ख़ हैं जो अक्सर तनाव पैदा करती रहती हैं ये कभी कम होती हैं और कभी अति उग्र, ये कभी जमीन दोष होती हैं तो कभी सड़क पर अपना नंगा नाच दिखा रही होती हैं.

अध्ययन से पता चलता हैं की जेनोसाइड की घटना के ८ स्तर हो सकते हैं. मसलन जेनोसाइड एक ऐसी प्रक्रिया हैं जो आठ चरणों में विकसित होती हैं, जरूरी नहीं की जेनोसाइड की प्रत्येक घटना में ये ८ चरण सिरे बंद तरीके से लागू हो लेकिन प्रत्येक चरण में, ऐसे निवारक उपाय भी हैं जो जेनोसाइड की घटना को रोक भी सकते हैं जेनोसाइड की घटना में जरूरी नहीं हैं की ये सभी चरण चरण एक श्रेणीबंद रूप में हो, ये भी हो सकता हैं की २-३ चरण एक साथ में अपनी निशानदेही कर रहे हो. जानकारों ने इन सभी चरणों की हकीकत के साथ-साथ इनका नाम भी दिया हैं.

१. वर्गीकरण: ये जेनोसाइड का पहला चरण हैं जहाँ सभी तरह के समाज या देश में, नागरिक को जातीयता, जाति, धर्म या राष्ट्रीयता के जरिए लोगों को "हम और वह" कहकर या दर्शा कर मुख्य समाज से अलग / बाँट दिया जाता हैं. यहाँ, अक्सर बहुताय पक्ष हमकी हामी में होता हैं और अल्प स्ख्यंक वहकी और इस बटवारे को बहुताय पक्ष द्वारा ही लागू करने की कोशिश होती हैं. मसलन जर्मन और यहूदी , हुटु और तुत्सी रवांडा और बुरुंडी द्विपक्षीय समाज हैं जहाँ समाज में एक पक्ष बहुताय हैं और दूसरा अल्प मत में, इस तरह के समाज में सबसे ज्यादा नर संहार होने की संभावना बनी रहती हैं ये घटना इतनी बारीकी से होती हैं की समाज को पता भी नहीं चलता की इस तरह से समाज को बांटा जा रहा हैं. और इस तरह समाज को खंडित करने का क़यास पिछले कई साल या दशक से भी हो सकता हैं. यहाँ, इस चरण को समझकर और थोड़ी सी मुस्तैदी और भाई-चारे इसे यहाँ रोक दिया जाये, तो जेनोसाइड की घटना को बहुत हद तक रोका जा सकता हैं.

२. सांकेतिकता: ये जेनोसाइड का दूसरा चरण हैंयहाँ समाज को हमऔर वहशब्दों से परिभाषित करने के बाद, एक समुदाय की सांकेतिक पहचान की निशानी दी जाती हैं जिससे समुदाय की पहचान मुख्य वर्ग से हट कर की जा सके इसमें समुदाय को एक अलग नाम देना, उनके रंग या पोशाक, भाषा, इत्यादि सामाजिक निशान देही से इस तरह की पहचान को संभव किया जाता हैं. कई बार समुदाय की अलग से पहचान करने के लिये जबरन उनकी पोशाक में अलग तरह के चिन्ह का इस्तेमाल भी किया जा सकता हैं मसलन नाज़ी शासन द्वारा यहूदी समुदाय की पोशाक में पीले रंग के सितारा रूपी चिन्ह को अनिवार्य कर दिया था वही रवांडा में हुतू समाज की पहचान के लिये कार्ड दिये गये थे और वही अल्प स्ख्यंक समुदाय तुत्सी को इन पहचान पत्र से दूर रखा गया था. अगर हम भारत देश की आजादी के बाद १९८४ और २००२ की जेनोसाइड की घटना का अध्ययन करे तो ८४ में सिख समाज अपनी पोशाक से समाज में अलग पहचान रखता ही था वही २००२ की घटना में मुस्लिम समाज की पोषक और खासकर भाषा ने इनकी अलग से पहचान करने में काफी मदद की थी. यहाँ, इस चरण तक हो सकता हैं की जेनोसाइड की घटना अपना उग्र रूप इख्तियार कर ले.

३. अमानुषिक: ये जेनोसाइड का तीसरा चरण हैं जहाँ एक समूह जो हमकी हामी भरता हैं वह दूसरे समूह को जिसे वहकहकर मुख्य समाज से अलग कर दिया गया हैं, इस अल्प समाज के नागरिक को मानव या इंसान मानने से इनकार कर देता हैं. इस तरह इनकी तुलना जानवर, कीड़े या रोग / बीमारी की तरह की जा सकती हैं. रवांडा जेनोसाइड में पीड़ित वर्ग तुत्सी को एक कीड़े का नाम से पुकारना, इसी चरण का उदाहरण था. वही जर्मनी में नाज़ी सरकार द्वारा कई इस तरह के कानून को अपनाया गया जहाँ यहूदी समाज को मुख्यतः समाज से अलग-थलग कर दिया गयामनो विज्ञान भी इस चरण को साबित करता हैं की एक आम मानव के लिये किसी दूसरे मानव की हत्या करना मानवीय और जज्बाती द्रष्टिकोण से संभव नहीं हैं, अगर फिर भी यहाँ कत्ल किया जाता हैं तो संभव हैं की कत्ल करने वाला नागरिक अति हताशा का शिकार हो जाये, लेकिन जब प्रचार और भाषण के द्वारा बहु स्ख्यंक समाज में इस धारण को प्रचलित किया जाता हैं की समाज का अल्प स्ख्यंक समुदाय मानव समुदाय श्रेणी में ही नहीं आता तो मनोविज्ञान का ये नियम एक तरह से खारिज कर दिया जाता हैं. समाज की यही नफरत मुख्यतः जेनोसाइड का कारण बनती हैं. मसलन १९८४ और २००२ के दंगो में एक समानता थी की दोनों जगह पर पीड़ित समुदाय के नागरिक को आग लगाकर जला कर मारने की घटना सबसे ज्यादा देखी गयी और पीड़ित समुदाय के नागरिको ने बाद में ये बयान भी दिये की यहाँ आग लगाकर जलाने के बाद, बहुताय समाज के नागरिक वहां जशन में नाच रहे थे. मनोविज्ञान की द्रष्टिकोण  से इस तरह के अमानवीय अपराध तभी संभव हो सकता हैं जब पीड़ित नागरिक को मानव / इंसान ही ना समझा जाये.

४. संगठन: जेनोसाइड का ये चोथा चरण हैं, बयान करता हैं की बिना किसी मजबूत संगठन की भागीदारी के इस तरह की जेनोसाइड घटना को अंजाम देना मुश्किल हैं. यहाँ संगठन, अपने लडाको को अक्सर युद्ध रणनीति के तहत ट्रेनिंग भी देता हैं और अक्सर जेनोसाइड में इस्तेमाल होने वाले हथियार भी इन्हें इसी संगठन द्वारा दिये जाते हैं. इस संगठन में आम तोर पर राज्य व्यवस्था की भागी दारी भी देखी जा सकती हैं जो नागरिक की रक्षा, अपने इस कर्तव्य निर्वाह से पीछे हट जाती हैं. मसलन रवांडा में तुत्सी जेनोसाइड में  MNRD और Interahamwe संगठन की भागीदारी होना वही जर्मनी की होलोकास्ट के लिये नाज़ी सरकार. कुछ इसी तरह १९८४ पूरे उत्तर भारत में अंजाम दिये गये सिख विरोधी दंगो के लिये कांग्रेस पार्टी और २००२ के गुजरात दंगो में उस समय की मोदी राज्य सरकार पर आरोप लगाया जाता हैं की इनकी निशान देही पर ही इन दंगो को अंजाम दिया गया.


1   जेनोसाइड की इन तमाम घटनाओं में एक समानता और देखने में आ रही हैं की जहाँ-जहाँ भी इस तरह दो समुदाय की मौजूदगी में, अल्प समाज का जेनोसाइड किया गया, इन सभी जगह पर ज्यादातर देशों में लोकतंत्र स्थापित हैं और चुनाव द्वारा चुनी गयी सरकार ही व्यवस्था की देखभाल करती हैं, लेकिन इन्ही चुनी हुई सरकार पर जेनोसाइड को अंजाम देने के आरोप लगते रहते हैं, तो क्या चुनावी जीत भी जेनोसाइड का एक मक़सद हो सकती हैं. शायद हाँ. धन्यवाद.

जेनोसाइड के आखिरी चार चरण.


 जेनोसाइड के पहले ४ चरण, समाज में उस मानसिकता को जन्म देने के लिये काफी है जहाँ बहुसंख्यक समाज, अल्प मत के समाज के नागरिक को मानव या इंसान मानने से मना कर देता है और उनके खिलाफ एक विद्रोह के आगाज की हामी भर रहा है. यहाँ बहुसंख्यक समाज का बहुत बड़ा हिस्सा वास्तव में जेनोसाइड की प्रक्रिया में भाग नहीं लेता लेकिन वह भी इस तरह की कट्टर मानसिकता से वंचित नहीं है जिस के तहत वह जेनोसाइड की हो रही घटना के खिलाफ विरोध दर्ज करवाने से (एक तरह से) मना कर देता है. अब जेनोसाइड के आखिरी के चारचरण  जो वास्तव में जेनोसाइड की घटना को अंजाम देते है.

५. ध्रुवीकरण (Polarization): जेनोसाइड के इस चरण तक, समाज को दो भाग में बाँट दिया जाता है और समाज में किसी भी अप्रिय घटना मसलन रवांडा में तत्कालीन राष्ट्रपति का हवाई जहाज़ अकस्मात में मौत जिसकी जवाबदेही हुतू समाज तुत्सी समुदाय पर डालता है , नाजी सरकार द्वारा यहूदी समुदाय को प्लेग की बीमारी फैलाने वाले रेट से जोड़ना और तारीख ९ नवम्बर १९३८ को एक यहूदी नौजवान द्वारा एक नाजी सरकार के वरिष्ठ अधिकारी का कत्ल किये जाना जिसे नाइट ऑफ़ ब्रोकनग्लास के नाम से जाना जाता है, अगर हम १९८४ के सिख विरोधी दंगों पर ध्यान दे तो श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या का होना और २००२ में गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एक स्लीपर कोच को आग के हवाले करना, ये सब इस तरह की घटना थी जहाँ बहुसंख्यक समाज इस अपराध के लिये पूरे के पूरे अल्प समाज को जवाबदेह  बता रहा था. और इसके पश्चात, सभी तरह के प्रचार माध्यम रेडियो, टीवी, अखबार, इत्यादि  से समाज के एक समुदाय के खिलाफ नफरत का प्रचार किया जाता है, जहाँ हर तरह के शब्द का इस्तेमाल किया जाता है जिससे समाज के बहुस्ख्यंक समाज के नागरिक को अपने साथ जोड़ा जा सके. सारी घटनाओ के सारांश से ये भी यकीनन है की इस तरह की हर  जेनोसाइड की घटना में राज्य व्यवस्था किसी ना किसी तरह से चरमपंथियों से जुड़ी होती है या सहानुभूति रखती है. और इसी के कारण राज्य की कानून व्यवस्था, जेनोसाइड की घटना को रोकने से (एक तरह) मना कर देती है. मसलन, एक तरह से राज्य व्यवस्था बहुसंख्यक समाज के चरमपंथियों के अधिग्रहण हो जाती है और सबसे पहले बहुसंख्यक समाज के उन उदारवादी नागरिकों को जबरन केद या मार दिया जाता है, जो वास्तव में इस तरह के जेनोसाइड में शामिल ना होकर इसे रोकने का अधिकार और सोच रखते है. इस चरण में, समाज / देश की पूरी कानून व्यवस्था को अपंग कर दिया जाता है.

६. तैयारी (उपक्रम / Preparation): जेनोसाइड के इस चरण में, पीड़ित समाज के नागरिक को उनके जातीय या धार्मिक चिन्ह से पहचान की जाती है, जिससे इन्हे मुख्य समाज से अलग किया जा सके. सरकारी कागज़ या और किसी माध्यम से इनके रहने की सूची जारी की जाती है, मसलन जेनोसाइड के इस चरण में जिस समुदाय को घात लगा कर मारना है उनकी तमाम जानकारी इकट्ठा कर ली जाती है. रवांडा में तुत्सी समाज की पहचान बिना कार्ड के नागरिक के रूप में होती है और यहूदी समाज की पहचान, उनकी पोशाक में मौजूद पीले रंग के सितारे से की जाती है. इन दोनों घटनाओ से ये कहा जा सकता है की जेनोसाइड का चरण २ सांकेतिक पहचान इस चरण से जुड़ा हुआ है, मसलन जेनोसाइड की तैयारी पहले से ही शुरू कर दी जाती है बस समाज में किसी अप्रिय घटना का इंतजार किया जाता है. इसी तर्ज पर १९८४ के सिख विरोधी दंगों में, सरकारी कागज़ो से सीखो के घर की निशान देही की गयी और ऐसा भी कहा जाता है की इस निशान देही के चलते सीखो के घर / व्यवसाय इत्यादि जगह पर विशेष निशान / चिन्ह /रंग लगाये गये वही २००२ के गुजरात दंगों में मुस्लिम बस्ती का हिन्दू बस्ती से अलग होना, इस पहचान को और भी आसान बना देता था.

 7. विनाश / संहार (Extermination): जेनोसाइड के इस चरण में, जनसंहार को अंजाम दिया जाता है, अल्प समुदाय के नागरिकों को समूह में कत्ल किया जाता है वास्तव में इस तरह के हत्याकांड को ही जेनोसाइड का नाम दिया जाता है.यहाँ हत्यारों के लिये विनाश है क्युकी ये वास्तव में यकीन नहीं करते की पीड़ित एक मानव / इंसान है. और जब ये राज्य व्यवस्था  द्वारा प्रायोजित किया जाता है तो अक्सर सशस्त्र बल चरमपंथियों के साथ इस हत्याकांड में साथ देते है. यहाँ, पीड़ित समुदाय की जान-माल के नुकसान के साथ-साथ हत्या को इस तरह अंजाम दिया जाता है की पीड़ित समाज दहल जाये और उसकी आने वाली पुश्तै इस जनसंहार को याद रखे इसी के अनुरूप औरतों पर बलात्कार, बच्चों का कत्ल, घर और व्यवसाय की जगह को तहस-नहस करना, इत्यादि निशान देही की जाती है ता की पीड़ित समुदाय भविष्य में इस इलाके को छोड़कर अपना कही और चला जाये. रवांडा में तुत्सी समुदाय का जेनोसाइड कुछ १०० दिन तक चला था जिसमे लाखों-लाखो की तादाद में तुत्सी समुदाय का कत्ल किया गया वही यहूदी समुदाय को व्यवस्थित ढंग से सुनियोजित तरीके से १९३९-४४ के दरम्यान गैस के चेम्बर में बंद करके, मेडिकल परीक्षण करके, इत्यादि तरीकों से जेनोसाइड को अंजाम दिया जिसमे एक अंदाज़ के मुताबिक १.५-२करोड़ लोगो की हत्या की गयी, १९८४ का सिख विरोधी दंगा कुछ ३ दिन तक बिना किसी रोक थाम के किया गया, यहाँ भी हजारों की संख्या में बेकसूर लोगो का कत्ल किया गया और यही कुछ हुआ साल २००२ के गुजरात दंगों में.

८. अस्वीकार (Denial): ये जेनोसाइड का आखिरी चरण है,जो हमेशा एक जनसंहार के बाद होता है और यह आगे के जनसंहार के निश्चित संकेतों में से एक है. जहाँ चरमपंथी किसी भी तरह के जेनोसाइड के अपराध को अस्वीकार करते है, वह कत्ल की गयी लाशों को जलाने के साथ-साथ उस हर सबूत को मिटाने की कोशिश करते है जहाँ से किसी भी तरह के जेनोसाइड के अपराध की पहचान ना की जा सके. मसलन जेनोसाइड के अपराध के बाद हो रही क़ानूनी प्रक्रिया में गवाह को धमकाना, ख़रीद फरोख़ की कोशिश, जांच की प्रक्रिया को किसी ना किसी तरह से बाधित करना, जब तक सत्ता में इनकी सरकार रहती है ये अमूमन कानून की पकड़ से दूर रहते है. रवांडा में तो यूनाइटेड नेशन भी यह मानने को तैयार नहीं था की यहाँ किसी भी तरह का जेनोसाइड हो रहा है इसी तरह से होलोकॉस्ट को भी अस्वीकार किया जाता है.

१९८४ के सिख विरोधी दंगों में आज तक किसी भी नामी व्यक्ति को सजा नहीं हुई, कानूनी प्रक्रिया चल रही है और यहाँ सिख  जेनोसाइड के ३२ साल के बाद भी पीड़ित परिवार न्याय की टकटकी लगा कर बैठे है, इनमें से कुछ अब नहीं रहे होगें और बाकी जो बच गये है उनके लिये न्याय की उम्मीद बेईमानी सी हो गयी होगी और कुछ यही हाल २००२ के दंगों का है. यहाँ, पूरे विश्व में जहाँ-जहाँ जेनोसाइड हुये, उस राज्य ने या बहुताय समाज ने इसे जेनोसाइड मानने से इनकार कर दिया और किसी अप्रिय घटना के बाद हुये प्रतिकर्म के रूप में इसे परिभाषित किया जहाँ एक पूरा समुदाय ही अपराधी की श्रेणी में खड़ा कर दिया गया हो वहां आप किस तरह किसी व्यक्ति विशेष को सजा दे सकते है, लेकिन न्याय की अनदेखी, पीड़ित समुदाय को जहाँ और ज़ख्म दे रही है वही अपराधी व्यक्ति इसे अपनी जीत समझ रहा है. किसी अपराध पर क़ानूनी सजा का ना होना, यहाँ हकीक़त उस व्यवस्था को बयान कर रही है जहाँ भविष्य में इस तरह के जेनोसाइड को दोहराने की संभावना बढ़ जाती है. धन्यवाद. 

आखिर क्यों आज राजनीतिक व्यवस्था फर्श पर हैं ?


मेरा स्कूल, एक सामान्य स्कूल ही था, आम स्कूल की तरह यहाँ घंटी की आवाज अपने समय के अनुसार ही बज जाती थी और अगर इसमें कुछ पल की भी देरी हो जाये तो हम सब बच्चो की बैचैनी आखरी हद तक बढ़ जाती थी लेकिन ऐसा अक्सर नही होता था, मसलन समाज-विधा के विषय में जब-जब इतिहास का जिक्र आता और हमारे यादव सर, यहाँ पाठ को पढ़ाने के साथ-साथ इसकी लोह में अपने आप को और हमें इस तरह बाँध लेते की घंटी के बजने की आवाज को भी अनसुना कर देते थे. इसके दो पहलू थे एक जो प्रवक्ता बोल रहा हैं उन की विषय के साथ इमानदारी कितनी हैं और वह जिस घटना या व्यक्ति विशेष के बारे में बात कर रहा हैं, उसका किरदार कितना बड़ा हैं.

अक्सर, चंद्र शेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, इत्यादि वतन पर मर मिटने वालों की गाथा, एक किरदार को जन्म देती थी, यहाँ नाम अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन किरदार जो की व्यक्ति की मानसिकता को दर्शाता हैं वह एक ही तरह का था और सही मायनो  में इतना महान था की इसे सलाम किया जा सकता हैं. यहाँ अपने कर्तव्य के लिये इमानदारी से बलिदान के लिये तैयार होना, अपने-अपने संगठन के साथ बिना किसी निजी स्वार्थ के जुड़े होना और सबसे विशेष, अपनी व्यक्तिगत ईर्षा, क्रोध, को त्याग कर उस हर जवाबदेही को समर्पित होना जिस से वतन की आजादी के लक्ष को प्राप्त किया जा सके.

यहाँ, भी दो व्यक्ति विशेष के विचारों के दरम्यान फासले होंगे, कई ऐसे मसले होंगे जहाँ एक आम राय बन नी मुश्किल होगी, इन सब के बीच इन घटनाओं का इतिहास में कही भी जिक्र तक नहीं आता यहाँ इतिहास के पन्नों पर बस सिर्फ बलिदान की ही मोहर लगी हैं. सार्वजनिक कलह,किरदार और नैतिकता के कद को छोटा कर देती हैं. और इस तरह की मुश्किल को दरकिनार करना, ये इसलिये मुमकिन हो सका की देश की आजादी में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने वाले योद्धा में नैतिकता कूट-कुर कर भरी थी और यही सबक था की इनका किरदार आसमान से भी बड़ा  था, जहाँ तल्ख़ का कोई स्थान नहीं था. लेकिन आज एक आम भारतीय का राजनैतिक व्यवस्था से जिस तरह विशवास उठता जा रहा हैं, वह हर मोड़ पर व्यवस्था से एक दूरी बनाये रखने के लिये मजबूर हैं इसका सबसे बढ़ा कारण राजनैतिक व्यवस्था के शीर्ष की नैतिकता और किरदार हैं जहाँ आज एक आम भारतीय इनसे ईमानदारी की उम्मीद करना भी बेईमानी समझता हैं, लेकिन ऐसा क्यों हैं ?

अगर यहाँ थोड़ा सा विश्लेषण किया जाये तो राजनीति की आधार शीला समाज का ही प्रतिबिंब हैं और हमारे व्यक्तिगत किरदार से समाज की रचना होती हैं, मतलब राजनीति व्यवस्था का गिरता हुआ आचरण कही ना कही हमारी ही मानसिकता का उदाहरण हैं. मसलन, आज बचपन मोबाइल फ़ोन पर अक्सर विडियो गेम खेलता हुआ नजर आता हैं जहाँ इसकी जीत एक जशन का परिचय देती हैं वही इसकी हार एक घोर निराशा का, ये तथ्य इतना सच हैं की आज का बचपन हर कीमत पर विजयी होना चाहता हैं. आज चाहे फिर मैट्रो को पकड़ने की हड़बड़ी हो या सडक पर गाड़ी को आगे निकाल कर लेकर जाने की, जीवन के हर मोड़ पर हम विजयी होना चाहते हैं. आज हमारे व्यक्तिगत स्वभाव में हार मंजूर नही, फिर वह चाहे सोशल मीडिया पर ही खुद को आगे दिखाने की होड़ ही  क्यों ना हो. अब इस जीत के लिये, समझौते भी होते हैं, मैट्रो को पकड़ने की दोड में अक्सर किसी को पीछे धकेलना भी जरूरी समझा जाता और गाड़ी को तेज निकालने के चक्कर में सड़क के नियम कानून को ताक पर रख दिया  जाते हैं, कही-कही तो इस जुनून में जिंदगी को भी खतरे में डाल देना एक शोक के रूप में दर्शाया जाता हैं. आज हमारे समाज में विजय को ही मान्यता प्राप्त हैं जिसकी आड़ में भ्रष्टाचार, नैतिकता, किरदार, इत्यादि शब्दों को कोई अर्थ नही रह जाता.

जब, हमारे लिये विजय / जीत ही एक मक़सद हैं तो हमारी राजनीति व्यवस्था किस तरह इस से अछूत रह सकती हैं, यहाँ भी लोकतंत्र प्रणाली के दायरे में हो रहे चुनाव को जीतना ही एक निशाना  होता हैं, उसके लिये  राजनीति अपना आचरण, सहनशीलता, नैतिकता, इमानदारी, इत्यादि किताबी शब्दों को भूल कर पूरी इमानदारी से इस होड़ में लग जाती हैं, यहाँ चुनावी भाषण विकास से शुरू होता हैं लेकिन अगर जरा सी भी शंका हो गयी की इस बार विकास से जीत दर्ज नहीं की जा सकती तो इन्ही  चुनावी भाषण से हम और वह कहकर समाज को बांटने की कवायद शुरू करने में कोताही नहीं बरती जाती. यहाँ हम का मतलब सर्वोच्च, इमानदार, परिपूर्ण, इत्यादि  और वह का अनुमान तुच्छ, बेईमान, इत्यादि जहाँ इस तरह का किरदार ईर्षा को दर्शाता हैं वही अहंकार को जन्म देता हैंये, हम और वह, की दहलीज़ हर राजनीति पार्टी / व्यक्ति  पार करता हैं कही शब्दों में उग्रता होती हैं और कही इन शब्दों को भावात्मक रूप से कहा जाता हैं. यहाँ, उम्मीदवार के रूप में हर उस चेहरे से परेशानी होती हैं जो हैं तो इमानदार लेकिन वोट नहीं जुटा सकता और वही हर उस शख़्स को आखो पर बैठाया जाता हैं जो वोट बैंक पर असर रखता हैं और जीत को निश्चित करता हैं. यहाँ, जीत के लिये हर तरह के मापदंड अपनाये जाते हैं. ये कहना गलत नही होगा की आज राजनीतिक जीत, महज़ एक विजय ना होकर जुनून बन गया हैं तो गलत नही होगा.


समाज वही हैं बस इसके समीकरण बदल गये हैं जहाँ एक सदी पहले इसी समाज ने भगत सिंह जैसे किरदार की रचना कर, विजयी होने का सम्मान प्राप्त किया था जहाँ व्यक्तिगत प्रमाण में नैतिकता, ईमान, किरदार की रचना पहले होती थी और बाद में विजयी होने का दम भरा जाता था, वही आज इसी समाज में विजयी होने का महत्व बढ़ गया हैं. इस समय में, अक्सर हर व्यक्तिगत किरदार पहले निशाना फ़तह करने की मंशा रखता हैं और इसका यकीन हैं की विजयी होने के बाद नैतिकता, ईमान, इत्यादि शब्द अपने-आप इसके किरदार में तगमै की तरह जड़ दिये जायेगे. व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना हैं की हमारा व्यक्तिगत किरदार ही समाज की रचना करता हैं और यही राजनीति व्यवस्था को जन्म देता हैं, अब सवाल भी हमें खुद से ही होना चाहिये की जहाँ भगत सिंह के किरदार को हम इच्छा से सलाम करते हैं वही ऐसा क्या हो गया की आज राजनीतिक व्यवस्था फर्श पर एक तमाशा बन कर रह गयी हैं, कही इसके लिये हमारा व्यक्तिगत किरदार तो जवाबदार नहीं.  धन्यवाद.

जेनोसाइड, जहाँ पूरे-पूरे के समुदाय को खत्म करने की कोशिश होती हैं.


१९४४, में पोलिश-यहूदी पेशे से वकील, राफेल लेमकिन, ने एक नये शब्द को इजहार किया जेनोसाइड (न्श्ल्कुशी / जातिसंहार), वास्तव में लेमकिन एक यहूदी थे और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जिस तरह जर्मनी, पोलैंड जैसे देशों में कथाकथित सुनियोजित तरीके से यहूदियों का जनसंहार किया गया जिसमें लाखों की संख्या में यहूदियों को मारा गया, उन्हें आर्थिक रूप से बदहाल कर दिया गया. इनकी सम्पति छीन ली गयी. मसलन ये कहा जा सकता हैं की यहूदियों का वर्चस्व खत्म करने के साथ-साथ इस समुदाय को मिटाने की कोशिश की गयी, इसी संदर्भ में लेमकिन ने अपनी किताब में इस अपराध को एक नये शब्द जेनोसाइड के रूप में व्याखित किया.

मूलतः जेनोसाइड को दो शब्दों से जोड़कर बनाया गया हैं जिसमें पहला शब्द ग्रीक में जेनो (genos) हैं जिसका अर्थ कुल, जाति, पीढ़ी, वंश, वर्ग, व्यक्तियों का समूह (समाज) की तरह होता हैं वही दूसरा शब्द लैटिन में साइड (cide) हैं इसका अर्थ वध, शिकार, हत्या, कत्ल हैं, अब इन दोनों शब्दों को जोड कर शब्द बना जेनोसाइड (genocide), मतलब एक समुदाय / समाज, का पूर्ण रूप से हत्या / कत्ल / खत्म करना. समय रहते, पूरे विश्व में इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया गया हैं जिसे जेनोसाइड का नाम दिया जा सकता हैं जिसमें लाखों की तादाद में लोगो को मारा गया, बेघर किया गया, बलात्कार हुये, वह सारे अपराध किये गये जहाँ इंसानियत शर्मसार हो जाती हैं, लेकिन ये अपराध व्यक्तिगत ना होकर पूरे समुदाय को अपना शिकार बनता हैं.

अगर १९१५ के समय से नजर करे तो पहले विश्व युद्ध के दौरान तुर्की पर ये आरोप लगता हैं की इस देश ने एक भाषा और धर्म के सिद्धांत पर उन लाखों लोगो का कत्ल कर दिया जो इस समीकरण में नहीं आते थे इसमें मुख्य रूप से अस्स्य्रिंस (Assyrians), पोंतियन (Pontian), अनातोलियन ग्रीक्स (Anatolian Greeks) मौजूद हैं लेकिन जिस समुदाय को सबसे ज्यादा जान-माल का नुकसान पहुँचाया गया वह था अर्मेनिंस (Armenians), यहाँ अर्मेनिंस ७वी शताब्दी से मौजूद थे और इन्होने अपनी जमीन बचाने के लिये कई बार मंगोलियन, तुर्की, रूस से लड़ाई भी की थी. साल १८९० के आते-आते अर्मेनिंस और तुर्किश सरकार जिसके मुखिया सुलतान अब्देल हामिद थे, इनके बीच तल्ख़ बढ़ने लगी और १८९४ में ८००० और एक साल बाद २५०० अर्मेनिंस समुदाय के लोगो का कत्ल किया गया, साल १९१४ मैं तुर्की जर्मनी के साथ मिलकर पहले विश्व युद्ध में शामिल हो गया और यहाँ तुर्की सेना के आर्मी अफसरों ने अर्मेनिंस समुदाय पर आरोप लगाये की ये रूस से जज्बाती रूप से जुड़े हुये हैं और देश विरोधी होने का आरोप (जहाँ कोई सबूत नहीं होता बस, आरोप लगा  का इजहार कर दिया जाता हैं.) लगाकर, सुनियोजित ढंग से अमूमन १५ लाख अरेमेनिंस समुदाय के नागरिक का कत्ल कर दिया.

इसी तरह दूसरा उदाहरण यहूदियों का कत्लेआम हैं, यहाँ पहले विश्व युद्ध में करारी हार के बाद जर्मनी पर विजयी मित्र देशों के समूह ने कई तरह से कड़े नियम लागू कर दिये, जहाँ जर्मनी का क्षेत्र कम होने के दबाव में था, वही सामाजिक स्तर पर बेरोजगारी और बाकी समस्याओं के कारण निराशा अपनी चरम पर थी, इसी बीच हिटलर की लोकप्रियता में बढ़ावा हो रहा था और नाज़ी पार्टी १९२८ की २ सीट से १९३२ के चुनाव में २३० सीट जितने में कामयाब रही थी. हिटलर ने आते ही उन सभी कानूनों में बदलाव कर दिया जिसके अधीन यहूदियों को फायदा पहुच रहा था. श्रेणी बंध तरीके से यहूदी समुदाय की सामाजिक प्रतिष्ठा को कम किया जा रहा था, सरकारी नौकरी से बेदखल, उच्च दर्जे के कार्य क्षेत्र से वचिंत करना और किसी भी मूलतः जर्मनी पुरुष या महिला की यहूदी समाज में शादी को ना फ़रमान करना, इत्यादि तरीको से यहूदी समाज को जर्मनी से निष्कासित करने की योजना बंध फैसले लिये गये वही आम नागरिक को प्रचार के माध्यम से ये बताया गया की यहूदी समाज के कारण जर्मनी को पहले विश्व युद्ध में हार का मुंह देखना पढ़ा था, समाज की इस तल्ख़ को चिंगारी लगी जब एर्न्स्ट वोम राथ की हत्या एक नोजवान यहूदी ने कर दी, इसके बाद यहूदी को शिक्षा संस्थानों से भी दूर कर दिया गया, साल के अंत तक क़रीबन १ लाख यहूदी जर्मनी छोड़ चुके थे, वही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जर्मनी ने रूस पर हमला, इसे यहूदी समुदाय के साथ हो रही लड़ाई के रूप में देखा गया, यहाँ शुद्धिकरण के नाम पर नाज़ी सरकार द्वारा अमूमन ५० लाख यहूदियों का कत्ल किया गया, कत्ल करने के लिये ऐसे तरीके अपनाये गये जो पहले देखने में नहीं आये थे मसलन यहूदी समुदाय पर मैडिकल टेस्ट करना, ज़हरी गैस सिलिंडर में लोगो को डालकर मारना, बहुत कम खाना देकर सारा दिन मजदूरी करवाना, यहाँ तक की कड़ कड़ाती ठंड में बिना कपड़ों के लोगो को रहने के लिये मजबूर करना.

इसी तर्ज पर १९७५ में कंबोडिया, १९९० में रवांडा, १९९१ में बोसनिया और २००३ में दारफुर, ये सारे कत्लेआम पर अध्ययन किया जाये तो सभी कतलैआम बहुताय समाज द्वारा अल्प सख्यंक समाज को खत्म करने की तर्ज पर, अत्याचार किये गये, इन सभी स्थान पर ताक़तवर व्यवस्था पर भी आरोप हैं की ये भी व्यवस्थित तरीके से इस कत्लेआम में शिरकत कर रही थी. लेकिन इन सभी घटना में एक सवाल सभी के ज़ेहन में आता हैं की एक बहुताय समाज का आम नागरिक किस तरह से इस तरह के कत्लेआम को स्वीकार कर सकता हैं ? इसके लिये  इन सभी घटना का अध्ययन ये ही दर्शाता हैं की ये सारी घटना यकायक नहीं हुई, काफी समय पहले से समाज में अल्पसख्यंक समूह के खिलाफ नफरत फैलायी जाती हैं और इस नफरत को ज्यादा उग्र करने के लिये, ये दिखाने की पूरी इमानदारी से कोशिश की जाती रही हैं की अल्प स्ख्यंक समूह देश के लिये खतरनाक हैं मसलन १९१५ में तुर्की और १९४१-४४ में जर्मनी, दोनों जगह अल्प स्ख्यंक समूह पर दुश्मन देश से सहानुभूति के आरोप लगाये गये और इसी के तहत बहुसख्यंक समाज के आम एक नागरिक के जज्बातों को आहत किया गया और एक समय ऐसा आया जब समाज की निराशा ने उग्र रूप से कत्लेआम को अंजाम दिया और इसे स्वीकार भी किया.


इस तरह की घटना, विश्व के कोने-कोने में किसी ना किसी समय अंतराल में होती रही हैं और हो भी रही हैं, व्यक्तिगत रूप से में ये निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा हु की किस तरह इस तरह के जेनोसाइड को रोका जा सकता था, लेकिन ये भी सच हैं की इन जगह पर एक बार इस तरह की घटना होने के बाद इस तरह के ज़ुल्म बार-बार देखने को नहीं मिले, मतलब समाज में इतनी नफरत नहीं थी की समय रहते एक ही तरह के जेनोसाइड एक ही जगह पर किये गये हो, तो क्या ये जेनोसाइड तब-तब हुये जब-जब व्यवस्था का मोहरी ताक़तवर इंसान इस तरह की व्यक्तिगत सोच या नफरत रखता था. कहना मुश्किल हैं लेकिन इसे झुठला भी नहीं सकते. धन्यवाद.

इस साल गुजरात राज्य चुनाव, कुछ हटकर हो सकता है.


तारीख, २५-मार्च-२०१७, को अहमदाबाद की सड़को से होकर गुज़र रहा था, यहाँ थोड़ा सा दूर जाकर सड़क के दोनों तरफ लगे  केसर रंग के झंडे दिखाई देने लगे, मेरे लिये ये एक अचंभा ही था क्युकी पिछले कई साल  से ये रंग सड़को से ग़ायब था, व्यक्तिगत रूप से पिछले १० साल से ज्यादा समय से मैने केसर या हरे रंग को कम ही देखा था. आगे जाकर एक विज्ञापन का बैनर दिखाई दिया जहाँ २६-मार्च-२०१७ को आयोजित हो रहे हिंदू सम्मेलन में सिरकत होने के लिये कहा जा रहा था लेकिन एक और आश्चर्य हुआ जब इस विज्ञापन में हिंदू धर्म में कट्टर नेता की छवि रखने वाले और अक्सर अपने विवादस्पद बयान के चलते सुर्खियों में रहने वाले नेता श्री प्रवीण तोगड़िया जी की तस्वीर, इस आयोजन के चेहरे के रूप में लगी हुई देखी.

साल, २००२ में जब गुजरात राज्य चुनाव में भाजपा की जीत हुई थी उस समय प्रवीण तोगड़िया जी, प्रदेश मुख्य मंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी के साथ अक्सर देखे जाते थे लेकिन पिछले कई साल से ऐसा सुनने में आ रहा था की दोनों नेतागण के आपसी संबंध इतने मधुर नहीं रहे, इसी के चलते श्री तोगड़िया जी, भूतकाल बनते जा रहे थे क्युकी अब ना इनकी तस्वीर किसी अखबार में आ रही थी और ना ही कोई टीवी न्यूज़ चैनल इन्हे कवर करता हुआ दिखाई दे रहा था, ना ही पिछले दिनों कभी भी श्री तोगड़िया जी ने कोई विवादास्पद बयान दिया था, जिसके लिये ये जाने जाते है. मसलन, ऐसा क्या हो रहा है की भूतकाल से निकल कर श्री तोगड़िया जी, अब फिर प्रभावशाली तरीके से कार्यरत होने जा रहे है.

अगर राज्य की मौजूदा स्थिति के बारे में बात करे तो कही भी कोई सांप्रदायिक भावना को ठेस पहुचे, ना तो ऐसी स्थिति है और ना ही कोई माहौल, यहाँ कानून व्यवस्था पूरी तरह से चुस्त है, हर कार्य क्षेत्र ऐसे है जहाँ हर समाज और समुदाय से ताल्लुक रखता हुआ नागरिक कार्यरत है, मसलन ज़मीनी सच्चाई है की आज समाज में एकता है और नागरिक, अपनी निजी जिंदगी में इतना व्यस्त है की उसके पास किसी भी वाद-विवाद में अपनी मौजूदगी पेश करने का समय ही नहीं है. इसी के चलते उम्मीद नहीं है की कही कोई अप्रिय घटना हो सकती है, लेकिन तारीख २५-मार्च-२०१७ (शनिवार), शाम होते-होते गुजरात राज्य के पाटन जिले के एक गांव में सांप्रदायिक घटना की खबर आयी, जहाँ राष्ट्रीय टीवी मीडिया में इस खबर की कही भी पुष्टि नहीं की गयी वही कई अखबारों में अलग-अलग तरह से इस खबर को प्रकाशित किया गया.

लेकिन, हर खबर में एक सच्चाई मौजूद थी की स्कूल में १०वि जमात के दो विधार्थियों के बीच हुई मामूली झड़प ने इस घटना को उत्तेजित स्वरूप दे दिया, जहाँ उग्र भीड़ ने कुछ घरो के साथ-साथ सामने खड़े वाहन को भी जला दिया, इसके चलते पीड़ित को अपना घर छोड़कर दूसरे गांव के घरों में शरण लेनी पड़ी वही ऐसी खबर भी सुनने में आई की इस घटना में एक व्यक्ति की मोत होने के साथ-साथ कई लोगो घायल हो गये. लेकिन एक दशक से ज्यादा समय तक शांत रहने वाला प्रदेश में ये घटना एक सवाल ज़रुर खड़ा करती है की क्या प्रदेश का आपसी भाई-चारा, फिर से उलझता हुआ नजर आ रहा है.

अगर थोड़ा, सा विश्लेषण करे तो इस साल के अंत तक प्रदेश में राज्य चुनाव है जहाँ भाजपा लगातार १९९५ से राज्य की सत्ता पर बहुमत से विराजमान है, वही पिछले ३ राज्य चुनाव श्री नरेंद्र भाई मोदी जी के नाम से जीते गये, लेकिन साल २०१४ में मोदी जी प्रधानमंत्री बनकर दिल्ली की सत्ता पर कायम हो गये वही गुजरात राज्य की डोर श्रीमती आनंदी बहन पटेल के हाथ में सोप दी, यहाँ ये कहा गया की  आनंदी बहन पटेल के नाम से, भाजपा पटेल समुदाय को खुश करना चाहती है. गुजरात राज्य, में पटेल समुदाय वही स्थान रखता है जो जाट हरियाणा में और जट पंजाब में, मूलतः पटेल समुदाय किसान है और खेती से जुड़ा हुआ है लेकिन वक्त रहते पटेल समुदाय ने व्यवसाय में अपने हाथ आज़माया और आज ये गुजरात प्रदेश में व्यवसाय के हर क्षेत्र में मौजूद है फिर वह चाहे कंस्ट्रक्शन का हो या सूरत का मशहूर हिरा व्यापार. आज ये कह सकते है की गुजरात राज्य में पटेल समाज ही ये तय करता है की सरकार किस पक्ष की बनेगी.

लेकिन आनंदी बहन पटेल के बतौर मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान पाटीदार (पटेल) समुदाय ने सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थान में अपने लिये आरक्षण की मांग की, धीरे-धीरे ये आंदोलन उग्र होता गया और इसे शांत करने के लिये सरकार द्वारा बल का भी प्रयोग किया गया, जहाँ इस आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया वही प्रदेश के कई शहरों में कर्फ्यू लगाने की नौबत तक आ गयी, ये पाटीदार समाज का ही असर कह सकते है की समय रहते प्रदेश भाजपा ने  आनंदी बहन पटेल को मुख्यमंत्री के पद से हटाकर श्री विजय रुपानी जी को मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित कर दिया, लेकिन आज भी हालात ऐसे है जहाँ पाटीदार समुदाय से जुडे लोग राज्य सरकार के प्रति अपनी नाराज़गी खुलकर व्यक्त करते है. वही पाटीदार आंदोलन का चेहरा बनकर उभर कर आये श्री हार्दिक पटेल को शिव सेना ने गुजरात राज्य चुनाव के अंतर्गत अपना मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश किया है. ज्ञात रहे की यहाँ शिव सेना और भाजपा में कोई चुनावी गठबंधन नहीं है और ये परस्पर विरोधी दल के रूप में प्रदेश के चुनाव में होंगे.

जहाँ, पटेल समाज भाजपा राज्य सरकार से खफा है वही २०१४ के बाद लगातार प्रदेश के भीतर से दलित विरोधी अपराध, अक्सर खबर की सुर्खियाँ बनते रहे है. () अब, जहाँ प्रदेश में भाजपा राज्य सरकार से पटेल, दलित, मुस्लिम, इन सभी समुदाय ने एक निश्चित दूरी बनाकर रखी हुई है वही प्रदेश में श्री प्रवीण तोगड़िया का प्रवेश करना वही ०८-मार्च-२०१७ को सोमनाथ यात्रा के दौरान भाजपा राज्य इकाई के पुराने शीर्ष नेता श्री केशुभाई पटेल को भी श्री मोदी जी के साथ देखा जाना, प्रदेश की राजनीति को नयी दिशा दे रहा है. इस साल के अंत तक प्रदेश में राज्य चुनाव होने वाले है जहाँ भाजपा की राज्य इकाई के पास मोदी जी जैसा को कोई भी कदावर नेता मौजूद नहीं है वही विभिन्न समुदायों की नाराज़गी के चलते भाजपा की जीत की राह कठिन ज़रुर होती जा रही है, इसी बीच हो सकता है की प्रदेश की राजनीति में कई नये रिश्तों को जन्म हो और कुछ उग्र नाम चीन व्यक्ति या उत्तेजित शब्द को भाषण में समावेश किया जाये, जो भी हो अगर यहाँ अगले राज्य चुनाव में भाजपा २०१२ के मुकाबले १ भी सीट हारती है तो इसका सीधा असर श्री नरेंद्र भाई मोदी जी की लोकप्रियता से जोड़कर देखा जायेगा और इसी के साथ २०१९ के लोकसभा चुनाव के कयास भी लगाये जाने शुरू हो जाएँगे. धन्यवाद.

मेक माय ट्रिप, के विज्ञापन में बिना पगड़ी का हैप्पी, कभी देखा है ?



1996-97 का वक़्त होगा, जब अचानक से टीवी की स्क्रीन पर एक पंजाबी गीत बार-बार चलाया जा रहा था, पहली बार तो इस गीत के वीडियो को देख कर लगा की ये किसी गैर सिख ने गाया है. शायद ये बहुत कम लोग जानते है की पंजाबी भाषा सिख, हिंदू और मुस्लिम समाज की सांझी भाषा है, इसी के तहत मैं ये जाँचना चाह रहा था कि वास्तव में ये कलाकार कोन है ? आप मुझ पर किसी भी तरह का आरोप लगा सकते है लेकिन यहाँ गायक कलाकार ने सिख की तर्ज पर पगड़ी नहीं पहनी थी लेकिन कमांडो की तर्ज पर सर को कपड़े से ढक रखा था.

इस गीत के बोल थे "बोलो ता रा रा", आगे लिखना ठीक नहीं, मेरा अंदेशा है कि अगर ये गीत हिंदी में होता तो ज़रूर इसकी शब्दावली को लेकर समाज में तल्ख देखी जाती लेकिन पंजाबी भाषा में कहा किसी को आपत्ति है, खेर हम यहाँ गायक कलाकार दलेर मेंहदी के बिना पगड़ी के खुद को दिखाने से समाज में हो रहे बदलाव पर ध्यान करे तो यहाँ सिख समुदाय की पगड़ी की मर्यादा कम हो रही थी.

कुछ इसी तरह उस समय ज़ी टीवी पर आ रहे एक धारावाहिक कैंपस में भी एक सिख कलाकार अक्सर बिना पगड़ी के, मात्र एक कपड़े से सर को ढक कर, अपने आप को पेश कर रहा था. अपरिभाषित सिख की नयी रूपरेखा को समाज अपना भी रहा था, मेरे घर के पास रहने वाले कई सिख नौजवान अब पगड़ी के बिना कमांडो यूनीफ़ॉर्म में खुद को पेश करने में ज्यादा सम्मान महसूस कर रहे थे. लेकिन मेरा सवाल उस समय भी था और आज भी है की ऐसा क्यों हो रहा है कि सिख की पुश्तैनी वेषभूषा से छेड़छाड़ की जा रही है.

ये ज़ख्म अब ज्यादा हरे हो गये जब एक होटल बुकिंग के टीवी विज्ञापन में फिल्म जगत के मशहूर कलाकार रणबीर सिंह को एक सिख के किरदार में देखा जहां सिख की पुश्तैनी वेषभूषा से अलग पगड़ी का समावेश ना करके, एक कपड़े से सर को ढका गया है, यहाँ अगर बाकी के कपड़ों को देखे तो लगता है की ये किरदार या तो अभी कही बाहर से आया है या बाहर जाने की तैयारी में है, ऐसी किसी स्थिति में पगड़ी का समावेश नहीं करना और नाम भी हैप्पी सिंह कह के पुकारना, इस किरदार को एक हास्यस्पद  की तरह पेश करनी की सोची समझी नीति लग रही है, इसके पीछे मार्केटिंग का भी कांसेप्ट हो सकता है, लेकिन इस मज़ाक से मेरी व्यक्तिगत भावना ज़रूर आहत हुई है.

धर्म, समाज की रचना करता है और समाज, नागरिक की रूपरेखा को निश्चित करता है, इसी तरह सिख धर्म और समाज के माध्यम से पगड़ी का अपना एक विशेष स्थान है. सही मायनों में सिख पगड़ी ही है जो एक सिख की पहचान की नींव रखती है और इसी तर्ज पर सिख का एक ऊँचा किरदार बनता है, इस किरदार में हर गैर सिख अपने लिये सम्मान और उम्मीद देखता है, व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि भीड़ में खड़े कई लोगो में से मेरी पहचान की गयी हो यहाँ मापदंड सम्मान, स्नेह के साथ-साथ मदद की उम्मीद भी होती है.

थोड़ा सा अगर पगड़ी के इतिहास पर नजर मारे तो साल 1699 की वैशाखी के दिन जहाँ सिख धर्म की नींव रखी जा रही थी वही सिख के पहनावे में पगड़ी का भी समावेश किया गया, यहाँ ऐसा भी कहा जाता है कि उस समय मुगल सत्ता में सिर्फ सत्ता के अधिकार रखने वाले बादशाह, मंत्री, सेनापति, इत्यादि गिने चुने बंदों को ही पगड़ी पहने की इजाज़त थी जहांँ पगड़ी ताज के रूप में पहचान रखती थी और बाकी नुमाइंदों को पगड़ी पहने पर सजा दी जाती थी, मसलन एक आम नागरिक को पगड़ी पहने का अधिकार नहीं था, यहाँ उस समय सिख के लिबास में पगड़ी का समावेश करके जहांँ मुगल सत्ता को ललकारा गया वही पगड़ी एक सिख के लिये आज़ादी की निशानी थी, यहाँ एक सिख पगड़ी पहनकर खुद को सरदार के रूप में पेश कर रहा था, शायद यही से एक सिख को सरदार कहने की रिवायत शुरू हुई होगी.

अब जहांँ, ग़ुलाम समाज में एक सिख आज़ादी की निशानी पगड़ी पहनकर निकलेगा वहां अक्सर सत्ता इस आज़ादी को कुचलने की कोशिश तो ज़रूर करेगी, इसी के तहत सिख इतिहास कुर्बानी से भरा पड़ा है, ये कहा जा सकता है की आज़ादी की निशानी पगड़ी का ताज पहने के लिये बहुत ज्यादा सहादत दी गयी, अब जब जिंदगी कीमत देकर पगड़ी के ताज को सजाया हो वही कोई फिल्मी या गायक कलाकार अपने निजी स्वार्थ के लिये सिख की पहचान पगड़ी से समझौता करेगा तो यकीनन वह जज्बात तो आहत होंगे ही जिनके लिये सिख पगड़ी एक सर्वोच्च स्थान रखती है, मैं पिछले समय में तो कही कुछ नहीं कर सका लेकिन इस लेख के माध्यम से रणबीर सिंह को ज़रूर कहूँगा की अगर ये विज्ञापन में सिख पगड़ी का समावेश करते तो हमारी भावना भी आहत ना होती, वही इस विज्ञापन की ईमानदारी पर भी मोहर लग जाती, क्योंकि आज भी समाज में पगड़ी का बहुत बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है. धन्यवाद.

भगत सिंह, ८ साल की उम्र में ही फांसी के खोफ से आजाद हो चूका था.



तारीख २३-मार्च-१९३१, के दिन लाहौर की जेल में तीन क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेज हुक़ूमत ने फाँसी की सजा दी. यहाँ फाँसी की रस्सी अपना फर्ज़ निभा रही थी, अंग्रेज हुक़ूमत इस चिंगारी को शोला बनने से पहले  बुझाने में खुद को कामयाब समझ रही थी और समय रहते क्रांतिकारी  शरीर बेजान हो रहे थे. दूसरे दिन अखबार की सुर्खियों के साथ-साथ इनकी तस्वीर भी अखबार के मुख्य पेज पर सजाई गयी की क्रांतिकारी अपना फर्ज़ पूरा कर गये और कहा ये भी जाता है की उस समय इन शूरवीरो की तस्वीर खासकर भगत सिंह, हर घर में मौजूद था और जिसमे हर नागरिक आज़ादी की मशाल के साथ-साथ अपनी तस्वीर को भी देख रहा था. समय रहते, ये लो कम होती गयी और भगत सिंह बस एक तस्वीर बन कर रह गया, जिसे आज ८६ साल के भी, एक भारतीय नागरिक भगत सिंह के नाम से जानता है और उसका सवाल भगत सिंह की रूप रेखा तक ही सीमित रहता है. 

हमारी मानसिकता, ही हमारा किरदार बनाती है और आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह का किरदार सर्वोच्च स्थान पाने में कामयाब हुआ है, फिर हम भगत सिंह की तस्वीर के भीतर उस सोच को याद क्यों नहीं करते जिसका मालिक भगत सिंह था उस किरदार को क्यों नहीं याद करते जो २३ साल की उम्र में फाँसी के फँदै को चूमने का हौसला रखता था, उस आज़ादी की उस हक़ीकत को क्यों बयान नहीं करते जिसे भगत सिंह अंग्रेज हुक़ूमत की अदालत में अंग्रेज हुक़ूमत पर ही सवाल कर रहा था, इस दीवाने की रोशनी में तो कईपरिँदै आ गये लेकिन समझ ना सके की रोशनी क्या दिखानी चाहती है . आज भी जहाँ-जहाँ अन्याय होता है, नागरिक भगत सिंह की तरह तो खुद को दिखाने में यकीन रखता है लेकिन भगत सिंह के विचार और मानसिकता, से आज भी ये कोसो दूर है.

भगत सिंह का जन्म २७ सितम्बर, १९०७ में एक सिख परिवार में हुआ था, इस खान दान के पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह में खालसा सरदार थे और इनकी बहादुरी के लिये इन्हे अच्छी खासी ज़मीन से नवाजा गया था.  इनके दादा जी सरदार अर्जुन सिंह पर आर्य समाज का गहरा प्रभाव था और इनकी दादी जी जय कौर मूलतः हिंदू परिवार से थी. सिंह की माता का नाम विद्यावती कौर था और  जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ उस दिन इनके पिता जी सरदार किशन सिंह, चाचा अजित सिंह औरस्वरण सिंहकोलोनिजेशन कानून के खिलाफ आवाज़ उठाने के अपराध के तहत अंग्रेजहुक़ूमत की जेल में थे.ये तीनो भाई पंजाब के अंदर अंग्रेज सरकार के खिलाफ चल रहे गदरआंदोलन से जुडे हुये थे. 

अगर हम परिवार का मनोविज्ञान अध्ययन करे तो, ये किसी भी शिशु का सबसे पहलाविधालय होता है जहाँ इसे चलने से लेकर बोलना सिखाया जाता है वही परिवार के संस्कार भी दिये जाते है, यहाँ बालक से युवा होते-होते जिंदगी की शुरुआत में ही एक मानसिकता पनप जाती है जिस पर परिवार का बढ़ा गहरा प्रभाव होता है. अमूमन परिवार की तर्ज पर ही एक बालक अपने भविष्य की नीव रखता है वह उन स्वपन को देखता है जिसके लिये अक्सर परिवार प्रयास करता रहता है. इसी मनोविज्ञान के तहत, यहाँ परिवार के माध्यम से भगत सिंह को लोरी के साथ-साथ आज़ादी के लिये मर मिटने की कवायत भी सुनाई देती होगी, उसे इस हक़ीकत से भी ज्ञात करवाया जाता होगा की एक भारतीय होने के नाते हम ग़ुलाम है. जहाँ उस समय एक भारतीय को ग़ुलामी और आज़ादी जैसे शब्द को समझ पाने में मुश्किल आ रही होगी वही परिवार के माध्यम से भगत सिंह की मानसिकता की नीव उनके शुरूआती दिनों में ही रख दी गयी थी.

इस मानसिकता को और बल मिला जब साल १९१० में इनके चाचा जी २८ वर्षीय सरदारस्वरण सिंह की जेल में मोत हो गयी थी, देश के लिये क़ुर्बान होने का ज़ज़्बा, भगत सिंह ने३ साल की उम्र में नन्ही आखो से ज़रूर देखा होगा, यहाँ एक आम बालक के लिये महज ये एक ना समझने वाली घटना होगी लेकिन जिनके भाग्य में इतिहास के पन्नो पर लकीर लिखने का सौभाग्य प्राप्त होता है, उनकी नन्ही-नन्ही आंखे भी बहुत कुछ देख लेती है. इस समय घर, परिवार, समाज, जहाँ सरदार स्वरण सिंह की सहादत और वीरता के किस्से बन रहे थे वही भगत सिंह की मानसिकता में देश के लिये कुछ कर गुजरने का हौसला बुलंद हो रहा होगा. यहाँ, मोत का खोफ कम हो रहा होगा वही देश को आज़ाद करवाने की मंशा जाग रही होगी.

शायद इसी बलिदान की मानसिकता का असर था की सरदार भगत सिंह अपने शुरूआती बचपन में इस ख्याल को जन्म दे रहे थे की खेत में फसल की जगह हथियार क्यों नहींउगाये जाते.  शायद एक सामान्य बालक, यहाँ मैदान में खेलने की फितरत में रहता होगा लेकिन भगत सिंह अपने परिवार के माध्यम से जिसने गदर आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सेदारी ली थी और इसी गदर आंदोलन का चेहरा बनकर सामने आये सरदार करतारसिंह सराबा के विचारों को सुन रहा था और उन्हे अपना आदर्श भी मान रहा था, तारीख१६-नवम्बर-१९१५, को लाहौर की जेल में सरदार करतार सिंह सराबा को १९ साल की उम्र में फाँसी दी गयी लेकिन ये शोर्य ८ साल के भगत सिंह को प्रेरित कर रहा था. जिन्होंने,सराबा की तस्वीर को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया  और इतनी छोटी सी उम्र में ही शायद भगत सिंह, फाँसी के फंदे के खोफ से आज़ाद हो चूका था.


८ साल का भगत सिंह, इन्हे इतनी छोटी उम्र में ही अपने जीवन के लक्ष का पता चल गया था और इसे कार्यवंतिंत करने के लिये, हर क़ुर्बानी देने के लिये तैयार था. लेकिन, भगत सिंह इस तथ्य को भी समझ रहा होगा की सिर्फ सहादत से अंग्रेज हुक़ूमत की नीव नहीं हिलेगी, यहाँ सहादत के साथ-साथ उस सोयी हुई जनता को भी जगाने का प्रयास करना होगा जिसे ग़ुलामी का एहसास तक नहीं है, यहाँ समाज को जोड़ना होगा जो अपने कई अंदुरनी वाद-विवाद, धर्म-मजहब, जात-पात में बटा हुआ है, क्योकि जब तक हर घर से नागरिक निकल कर नारा इंकलाब नहीं बोलेगा, तब तक जेल में फाँसी होती रहेगी लेकिन आज़ादी का फलसफा हक़ीकत से बहुत दूर रहेगा. यहाँ, भगत सिंह इस भारतीय मानसिकता को समझ रहा था, की आज़ादी की लड़ाई में सबसे जरूरी है की एक आम नागरिक, क्रांति कारी के रूप में खुद का चेहरा देखे और इसी मानसिकता को लेकर भगत सिंह आगे बढ़ रहा था.  

अरे, सरदार जी हो तो ज़रुर खाते-पीते होंगे.



साल २००४ की दिवाली की रात घर से बाहर किसी सडक पर था, अपनी टैक्सी चलाकर कुछ लोगो को उनकी मंजिल तक पहुंचाने के कर्तव्य निर्वाह पर, यहाँ कुछ विद्यार्थी थे और शायद १-२ सरकारी या गैर-सरकारी कर्मचारी, सुबह होते-होते दीव पहुच गये, होटल में कुछ समय सोने के बाद खाने का समय हो गया. अब, ड्राइवर को सवारी ही खाना खिलाया करती हैं जहाँ ये कम ही पूछा जाता की आप क्या खाओगे, बस फ़रमान होता हैं की इनके लिये ये ला दो, टेबल पर खाना आ गया जहाँ मटन परोसा गया था, देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ और मैने शाकाहारी होने का वास्ता देकर खाने से मना कर दिया. उसके बाद सफ़ेद चने मंगाये गये, जब जाकर मेरा आहार संपूर्ण हुआ, लेकिन नजरे सवाल कर रही थी सरदार जी हो कर मांस नहीं खाते ?”.

ऐसा ही कुछ २-३ साल पहले हुआ जब पडोसी को बताया की में शराब का सेवन नहीं करता, सामने से जवाब आया अरे, सरदार जी तो खाने-पीने वाले होते हैं, आप कैसे “. अब, खाने-पीने का तात्पर्य क्या ? मसलन मांस खाना और शराब का सेवन करने से आप खाने-पीने वाले बन जाते हैं लेकिन एक सरदार जी अपनी मर्जी से साधारण खाने में यकीन रखता हो तो ये शायद समाज को मान्य नहीं होता, फिर वह चाहे नया होटल खुला हो जहाँ मुझे ये ज़रुर बताया जाता हैं  की यहाँ मांसाहारी खाना भी परोसा जाता हैं, फिर वह चाहे रसोई गैस के लिये चिमनी ही क्यों ना खरीदनी हो, मुझे कहा जाता हैं सर, आप ये लेकर जाइये, मीट बनाने में धुँआ बहुत निकलता हैं जिसे निकालने में ये चिमनी कारगर रहेगी.

जीवन के कुछ समय, हरयाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, इत्यादि जगह पर रहने को मिला जहाँ शराब के ठेके और मिट, चिकन, मांस बेचने की दुकानें आम हैं, गुजरात यु तो ड्राई स्टेट हैं लेकिन चोरी छुपकर शराब मिल ही जाती हैं, किस तरह, आप ने रईस फ़िल्म तो देखी ही होगी, लेकिन इन प्रांत के नागरिक का अंदाजा खाने-पीने वालों में नहीं लगाया जाता, अब ऐसा क्या हैं की हर आम आदमी मुझे, एक सरदार जी को देखकर, यकीनन ये अंदाजा लगा लेता हैं की ये खाने पीने वालों में से हैं, ये यकीन इतना पक्का होता हैं की आप से बिना पुछे, आप को खाने में मास परोसा जा सकता हैं, लेकिन ये धारणा क्यों हैं ?

पंजाब के प्रति व्यक्ति शराब की खपत सबसे ज्यादा हैं, ये सरकारी आकड़े हर साल बढते भी जा रहे हैं, लेकिन एक आम नागरिक कहाँ इन सरकारी आकडों या अखबार में छपी छोटी सी खबर को पढ़ंता हैं, तो ऐसा क्या हैं की समाज में ये आम धारणा बनी हुई हैं की सरदार जी हैं तो खाते-पीते होंगे. मेरा व्यक्तिगत मानना हैं की इसके लिये पंजाबी भाषा में गायें जाने वाले लच्चर गीत और उनको प्रोत्साहित करने के लिये बनाये गये ५ मिनट का विडियो, सबसे ज्यादा जवाब दार है, जहाँ इनकी लोकप्रियता देश-विदेशों में तो हैं ही लेकिन उन जगह पर भी हैं जहाँ पंजाबी भाषा का ज्ञान बहुत मामूली हैं या बिलकुल नहीं हैं, लेकिन गीत की धुन और विडियो को देखकर गैर पंजाबी भी झुमने लगता हैं.

भाषा, समाज का आइना होती हैं और इसे जिस तरह से प्रोत्साहित किया जाता हैं उसी तरह हमारे समाज का अक्स बनता हैं, अब जब पंजाबी भाषा के गीत में हनी सिंह गायेगा ५ बोतल वोडका, काम अपना रोज का”, वही गुरदास मान का मशहूर गीत आपडा पंजाब होवे, घर दी शराब होवे”, जहाँ ये घर में निकालने वाली शराब को प्रोत्साहित कर रहे हैं और वही ख्याति प्राप्त पंजाबी गायकी का मशहूर नाम बबू मान जिसकी हर कैसेट के ८ गीत में से एक-एक गीत  नशा, हिंसा और प्यार की बेवफ़ाई को प्रदर्शित करता हुआ मिल ही जायेगा, अब शराब, हिंसा, प्यार में धोखा इनका क्या ताल-मेल हैं, इसे कही लिखने की जरूरत नहीं. इनका पहला गीत था लोका ने पीती तुपका तुपका, में ता पीती बाटिया नाल”, लोगो ने तुपका पी और मैने बर्तन भर-भर के पी. वही इस विडियो में इनके लड़ खड़ातै कदम, बता रहे थे की शराबी कैसा होता हैं. लेकिन इसके बाद शायद पहली बार ये हुआ होगा की पंजाबी गायकी में बबू मान द्वारा मुर्गे को बनाने की तर्ज पर भी गीत गा दिया गया.

आज आलम ये हैं की शराब को पीछे छोड़, पंजाबी गायकी में चिट्टा जैसे नशे के शब्दों ने भी अपनी पहचान बना ली हैं. जहाँ गायक कलाकार दिनों में ही मशहूर होने की इच्छा रखता हो, वहां किसी ना तरह से नशे पर गीत गाना लाजिमी हैं, पंजाब में इन गायक कलाकारों की दीवानगी अपनी चरम पर रहती हैं, लोग इन्हें अपना रोल-मॉडल मानते हैं और इनके द्वारा गीतों के माध्यम से कही गयी बातों को अनुकरण भी दीवानगी की हद तक किया जाता हैं.  आज हालत ये हैं की पंजाब में पानी से ज्यादा शराब को बहाया जाता हैं, यहाँ अगर शादी या और कोई खुशी का मौका हो तो, डी.जे. लगाकर, हाथ में शराब की बोतल लेकर एक आम पंजाबी नागरिक गुरदास मान, बबू मान, हनी सिंह, इत्यादि मशहूर कलाकारों की तर्ज पर खुद को इनकी तरह ही दिखाने  में सम्मान महसूस करता हैं. लेकिन, ये भी हकीकत हैं की आज भी पंजाब के समाज का बहुत बढ़ा हिस्सा शाकाहारी या साधारण भोजने करने में ही यकीन रखता हैं और शराब से कोसो दूर हैं.


आज जहाँ पंजाब को नशे का गढ़ कहा जाता हैं वही इस प्रांत के नागरिक खासकर सरदार जी को खाने-पीने वाला. व्यक्तिगत रूप से खाना पीना हमारी व्यक्तिगत आजादी का माप दंड हैं, यहाँ इसी तर्ज पर मैने शाकाहारी रहने का फैसला लिया हैं और इस फैसले में कही भी ऐसे ज्ञान का योगदान नहीं हैं जो खाने के नजरिये से किसी भी तरह की मानसिकता में होने वाले बदलाव को दर्शाता हो और इसी अनुसार मेरे लिये शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही समान्य और साधारण इंसान हैं, जीवन में कई ऐसे अनुभव भी हुये जहाँ उन लोगो ने साथ दिया जहाँ विचारों में बहुत ज्यादा असहमति थी. इस लेख के माध्यम से में इतना ही कहना चाहता हु की किसी भी तरह के तथ्यों या दिखावे से, हमें किसी समाज या नागरिक के बारे में अपनी राय नहीं बनानी  चाहिये. यहाँ, अमूमन हमारी राय या सोच झूठी भी हो सकती हैं जिस तरह मैं एक सरदार जी होकर पूर्णतः शाकाहारी हु और किसी भी तरह के नशे का सेवन नहीं करता.