भगत सिंह, ८ साल की उम्र में ही फांसी के खोफ से आजाद हो चूका था.



तारीख २३-मार्च-१९३१, के दिन लाहौर की जेल में तीन क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेज हुक़ूमत ने फाँसी की सजा दी. यहाँ फाँसी की रस्सी अपना फर्ज़ निभा रही थी, अंग्रेज हुक़ूमत इस चिंगारी को शोला बनने से पहले  बुझाने में खुद को कामयाब समझ रही थी और समय रहते क्रांतिकारी  शरीर बेजान हो रहे थे. दूसरे दिन अखबार की सुर्खियों के साथ-साथ इनकी तस्वीर भी अखबार के मुख्य पेज पर सजाई गयी की क्रांतिकारी अपना फर्ज़ पूरा कर गये और कहा ये भी जाता है की उस समय इन शूरवीरो की तस्वीर खासकर भगत सिंह, हर घर में मौजूद था और जिसमे हर नागरिक आज़ादी की मशाल के साथ-साथ अपनी तस्वीर को भी देख रहा था. समय रहते, ये लो कम होती गयी और भगत सिंह बस एक तस्वीर बन कर रह गया, जिसे आज ८६ साल के भी, एक भारतीय नागरिक भगत सिंह के नाम से जानता है और उसका सवाल भगत सिंह की रूप रेखा तक ही सीमित रहता है. 

हमारी मानसिकता, ही हमारा किरदार बनाती है और आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह का किरदार सर्वोच्च स्थान पाने में कामयाब हुआ है, फिर हम भगत सिंह की तस्वीर के भीतर उस सोच को याद क्यों नहीं करते जिसका मालिक भगत सिंह था उस किरदार को क्यों नहीं याद करते जो २३ साल की उम्र में फाँसी के फँदै को चूमने का हौसला रखता था, उस आज़ादी की उस हक़ीकत को क्यों बयान नहीं करते जिसे भगत सिंह अंग्रेज हुक़ूमत की अदालत में अंग्रेज हुक़ूमत पर ही सवाल कर रहा था, इस दीवाने की रोशनी में तो कईपरिँदै आ गये लेकिन समझ ना सके की रोशनी क्या दिखानी चाहती है . आज भी जहाँ-जहाँ अन्याय होता है, नागरिक भगत सिंह की तरह तो खुद को दिखाने में यकीन रखता है लेकिन भगत सिंह के विचार और मानसिकता, से आज भी ये कोसो दूर है.

भगत सिंह का जन्म २७ सितम्बर, १९०७ में एक सिख परिवार में हुआ था, इस खान दान के पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह में खालसा सरदार थे और इनकी बहादुरी के लिये इन्हे अच्छी खासी ज़मीन से नवाजा गया था.  इनके दादा जी सरदार अर्जुन सिंह पर आर्य समाज का गहरा प्रभाव था और इनकी दादी जी जय कौर मूलतः हिंदू परिवार से थी. सिंह की माता का नाम विद्यावती कौर था और  जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ उस दिन इनके पिता जी सरदार किशन सिंह, चाचा अजित सिंह औरस्वरण सिंहकोलोनिजेशन कानून के खिलाफ आवाज़ उठाने के अपराध के तहत अंग्रेजहुक़ूमत की जेल में थे.ये तीनो भाई पंजाब के अंदर अंग्रेज सरकार के खिलाफ चल रहे गदरआंदोलन से जुडे हुये थे. 

अगर हम परिवार का मनोविज्ञान अध्ययन करे तो, ये किसी भी शिशु का सबसे पहलाविधालय होता है जहाँ इसे चलने से लेकर बोलना सिखाया जाता है वही परिवार के संस्कार भी दिये जाते है, यहाँ बालक से युवा होते-होते जिंदगी की शुरुआत में ही एक मानसिकता पनप जाती है जिस पर परिवार का बढ़ा गहरा प्रभाव होता है. अमूमन परिवार की तर्ज पर ही एक बालक अपने भविष्य की नीव रखता है वह उन स्वपन को देखता है जिसके लिये अक्सर परिवार प्रयास करता रहता है. इसी मनोविज्ञान के तहत, यहाँ परिवार के माध्यम से भगत सिंह को लोरी के साथ-साथ आज़ादी के लिये मर मिटने की कवायत भी सुनाई देती होगी, उसे इस हक़ीकत से भी ज्ञात करवाया जाता होगा की एक भारतीय होने के नाते हम ग़ुलाम है. जहाँ उस समय एक भारतीय को ग़ुलामी और आज़ादी जैसे शब्द को समझ पाने में मुश्किल आ रही होगी वही परिवार के माध्यम से भगत सिंह की मानसिकता की नीव उनके शुरूआती दिनों में ही रख दी गयी थी.

इस मानसिकता को और बल मिला जब साल १९१० में इनके चाचा जी २८ वर्षीय सरदारस्वरण सिंह की जेल में मोत हो गयी थी, देश के लिये क़ुर्बान होने का ज़ज़्बा, भगत सिंह ने३ साल की उम्र में नन्ही आखो से ज़रूर देखा होगा, यहाँ एक आम बालक के लिये महज ये एक ना समझने वाली घटना होगी लेकिन जिनके भाग्य में इतिहास के पन्नो पर लकीर लिखने का सौभाग्य प्राप्त होता है, उनकी नन्ही-नन्ही आंखे भी बहुत कुछ देख लेती है. इस समय घर, परिवार, समाज, जहाँ सरदार स्वरण सिंह की सहादत और वीरता के किस्से बन रहे थे वही भगत सिंह की मानसिकता में देश के लिये कुछ कर गुजरने का हौसला बुलंद हो रहा होगा. यहाँ, मोत का खोफ कम हो रहा होगा वही देश को आज़ाद करवाने की मंशा जाग रही होगी.

शायद इसी बलिदान की मानसिकता का असर था की सरदार भगत सिंह अपने शुरूआती बचपन में इस ख्याल को जन्म दे रहे थे की खेत में फसल की जगह हथियार क्यों नहींउगाये जाते.  शायद एक सामान्य बालक, यहाँ मैदान में खेलने की फितरत में रहता होगा लेकिन भगत सिंह अपने परिवार के माध्यम से जिसने गदर आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सेदारी ली थी और इसी गदर आंदोलन का चेहरा बनकर सामने आये सरदार करतारसिंह सराबा के विचारों को सुन रहा था और उन्हे अपना आदर्श भी मान रहा था, तारीख१६-नवम्बर-१९१५, को लाहौर की जेल में सरदार करतार सिंह सराबा को १९ साल की उम्र में फाँसी दी गयी लेकिन ये शोर्य ८ साल के भगत सिंह को प्रेरित कर रहा था. जिन्होंने,सराबा की तस्वीर को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया  और इतनी छोटी सी उम्र में ही शायद भगत सिंह, फाँसी के फंदे के खोफ से आज़ाद हो चूका था.


८ साल का भगत सिंह, इन्हे इतनी छोटी उम्र में ही अपने जीवन के लक्ष का पता चल गया था और इसे कार्यवंतिंत करने के लिये, हर क़ुर्बानी देने के लिये तैयार था. लेकिन, भगत सिंह इस तथ्य को भी समझ रहा होगा की सिर्फ सहादत से अंग्रेज हुक़ूमत की नीव नहीं हिलेगी, यहाँ सहादत के साथ-साथ उस सोयी हुई जनता को भी जगाने का प्रयास करना होगा जिसे ग़ुलामी का एहसास तक नहीं है, यहाँ समाज को जोड़ना होगा जो अपने कई अंदुरनी वाद-विवाद, धर्म-मजहब, जात-पात में बटा हुआ है, क्योकि जब तक हर घर से नागरिक निकल कर नारा इंकलाब नहीं बोलेगा, तब तक जेल में फाँसी होती रहेगी लेकिन आज़ादी का फलसफा हक़ीकत से बहुत दूर रहेगा. यहाँ, भगत सिंह इस भारतीय मानसिकता को समझ रहा था, की आज़ादी की लड़ाई में सबसे जरूरी है की एक आम नागरिक, क्रांति कारी के रूप में खुद का चेहरा देखे और इसी मानसिकता को लेकर भगत सिंह आगे बढ़ रहा था.  

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