अभी कदमों ने चलना ही सिखा था, मेरे इस शुरूआती बचपन की तस्वीर तो मेरे ज़ेहन में मौजूद नहीं लेकिन माँ अक्सर
कहती हैं की मैं भाग कर अपने पडोस के घर चला जाता था जहाँ मेरा स्वागत घर में बनी
हुई खिचड़ी से किया जाता, और राजकुमार की तर्ज पर मुझे भोजन खिलाया जाता, माँ आगे भी कहती हैं की मुझे कभी गोद में उठाकर कोई ले जाता था तो कभी कोई और.
धर्म के माध्यम से यहाँ मैं, मेरे पड़ोसी अलग थे, ना ही हमारी भाषा एक थी, लेकिन इस रिश्ते को और इस समाज को क्या कहेगे ? क्या इसे देश नहीं कहा जा सकता ? लेकिन, आज जिस तरह से
राष्ट्रभक्त और राष्ट्रद्रोहियो का चयन किया जा रहा हैं, इन्हें अगर और बेहतर शब्दों में कहा जाये तो आज जिस तरह से राष्ट्रभक्त और
राष्ट्रद्रोहियो को परिभाषित किया जा रहा हैं, क्या इस तर्ज पर एक ऐसे
बच्चे को माँ उसके पडोस में भेजती जहाँ दोनों घर का धर्म, भाषा, समाज, पूरा ताना-बाना ही अलग हैं और इसी अनुसार क्या
पडोस में इस तरह राजकुमार की तर्ज पर आपका स्वागत किया जाता. अपना, विश्लेषण आखिर में लिखूंगा.
मैं व्यक्तिगत रूप से सिख हू और तालुक पंजाब से
ही रहा हैं लेकिन जीवन का अधिकांश समय मसलन ७०% में गुजरात के अहमदाबाद शहर में ही
रहा हू, यही बालमंदिर की पढाई से लेकर कॉलेज तक का सफर किया हैं.
स्कूल के दोस्त,
शिक्षक, आस-पडोस, वह सभी लोग जिन्हें में जानने का विश्वास रखता हू वह मेरे लिये सिर्फ और सिर्फ
एक नाम हैं और इसी तरह उनके नाम के पीछे का गोत्र क्या हैं और वह किस धर्म या
समुदाय से, हैं मेरे लिये ये जानना जरूरी नहीं और ना ही कोई मायने रखता
हैं इसी तर्ज पर इन सभी लोगो के लिये मैं भी एक नाम हू, यहाँ मुझे इतनी आजादी हैं की मैं यहाँ किसी भी चर्चा में अपनी राय पूरी
इमानदारी से रख सकता हू और इसे सुना भी जाता हैं. और इसी तरह की आजादी, हर प्रवक्ता को दी जाती हैं.
आज, जब रसोई गैस की कीमत
बढ़ती हैं, पेट्रोल की कीमतों में बढ़ावा होता हैं या दूध के दाम बढ़
जाये, तो क्या आम और क्या ख़ास, घर से लेकर दफ्तर तक इसी
पर चर्चा छिड़ी होती हैं, यहाँ मेरी माँ भी अपनी राय रखती हैं और पडोस की
अन्य महिलाये भी,
सवाल व्यवस्था से ही होता हैं की क्यों रेट बढ़ा
दिये गये हैं. रोड के ट्रोल पर भी अक्सर दो अनजान, इस पर अपनी एक ही राय रख
रहे होते हैं. कही भी, यहाँ समाज बटा हुआ नजर नहीं आता, ये आपसी विश्वास इतना मजबूत हैं की चुनाव के समय भी यही मुद्दे छाये रहते हैं, यहाँ किसी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में क्या कहा हैं या क्या नहीं, कुछ मायने नहीं रखता, ये समाज इतना ज्यादा मजबूत और एक राय भी रखता
हैं. मसलन, रात के ९ बजे, जब टीवी मीडिया का ऐंकर अपने प्राइम टाइम डिबेट
या बहस को अति उत्तेजित बनाने की पूरी इमानदारी से कोशिश कर रहा होता हैं, तभी यहाँ टीवी पर किसी धारवाहिक को चलाना ही पसंद किया जाता हैं, यही दस्तूर मेरे घर के हर आस-पास के
घर में मौजूद रहता हैं. अगर, यहाँ बाहर किसी चोपाल पर भी आप बेठ जाओ तो
चर्चा का विषय क्रिकेट, फिल्म, या व्यक्तिगत रूप से आज
क्या हुआ, इसकी ही जानकारी मिलेगी, इस से ज्यादा और कुछ नहीं
होता. थोड़े, समय के लिया गुजरात के जामनगर में भी हम रहने गये थे, लेकिन यहाँ कुछ अनजान लोग आज पारिवारिक मित्र की तरह बन गये हैं.
व्यक्तिगत रूप से भी, मुझे अपने जीवन में ज्यादातर गैर-सिख समुदाय से ही प्रोत्साहन मिला हैं, इसका कारण भी हैं की मैं जहाँ बड़ा हुआ हू वहा गैर सिख समुदाय ही ज्यादा हैं, लेकिन इक्का-दुक्का घटना को अगर छोड़ दिया जाये तो मुझे कभी भी इस बात का एहसास
नहीं करवाया गया की मैं कोन हू ? इसी फलसफे में, जीवन का कुछ समय हरयाणा
प्रांत में गुजराने का मोका मिला, यहाँ, एक परिवार से मुलाकात हुई
जहाँ से घर का दूध लिया जाता था, इस परिवार को थोड़ा और नजदीक से जानने की कोशिश
की तो समाज का रहन-सहन, बोलने का तरीका मेरे पंजाब के गांव जैसा ही था, यहाँ आकर मुझे लगता नहीं था की में पंजाब से बाहर हू, भाषा में भी कई ऐसे शब्द थे जो पंजाबी भाषा से मेल खाते थे मसलन “कोई नी”. मैं जहाँ-जहाँ भी गया मुझे ज्ञानी जी कहकर सम्मानित किया
गया. ऐसा ही अनुभव महाराष्ट्र के पूना शहर में था, जहाँ रहना तो कुछ दिनों
के लिये ही था लेकिन यहाँ के लोग पूरी इमानदारी से मेरी मदद कर रहे थे.
यहाँ, इसी संदर्भ में मेरे
पंजाब के गांव का भी जिक्र करना जरूरी हैं, यहाँ मेरा गाव सालो से घर
पर बनी देशी शराब के लिये प्रसिद्ध हैं लेकिन एक और भी वाकया हैं जिस के तहत में
अक्सर खुद को गौरवित महसूस करता हू, हमारे गांव में एक परिवार हैं, जो की मूलभूत से हरयाणा से तालुक रखता हैं, जब से मैने होश संभाला
हैं तब से इन्हें यहाँ देख रहा हू, पंजाब के काले दोर के समय में भी, हमारे गांव ने इन्हें यहाँ से जाने नहीं दिया था और इनकी सुरक्षा के प्रति वचन
बंध भी हुये थे,
इसी दोर में हमारे गांव में आंतकवादियों के हाथ
एक दूसरे नागरिक का कत्ल भी हुआ, यहाँ पुलिस भी हर रोज की तर्ज पर आती थी लेकिन
इस परिवार को कही भी खरोंच तक नहीं आयी, ये आज भी उसी आजादी से
अपने (यहाँ, ये गांव उनका भी हैं और मेरा भी हैं, इसलिये अपना गांव, कहना ही ठीक हैं) गांव में पूरी आजादी से अपना
जीवन प्रवाह कर रहा हैं, यहाँ इन्हें हंसने की, बोलने की और तो और लड़ने की भी आजादी हैं उसी तरह जिस तरह मुझे ये आजादी
गुजरात में हैं.
आज में अपने दोस्तों के कहने पर उनकी आस्था के
अनुसार उनके धार्मिक स्थान पर भी जाता हू, उनसे सवाल भी करता हू और
यही पैमाना हैं की मेरे दोस्त भी मेरे साथ हमारे धार्मिक स्थान पर आते हैं, यहाँ इसी शहर में रथ यात्रा भी निकलती हैं, ताज़िया भी निकाला जाता
हैं और गुरु नानक जयंती पर नगर कीर्तन भी हम निकालते हैं. यहाँ, समाज जो की देश का ही एक रूप हैं, यहाँ आपको पूरी आजादी हैं, कही भी किसी आजादी में कोई हनन नहीं हैं. क्या इस समाज से लगाव, प्यार, आजादी का इस्तैक्बाल, देश के प्रति वफादारी या
प्रेम नहीं हैं ?
यहां थोड़े से साधारण शब्दों में इसे देश प्रेम
या राष्ट्र प्रेम नहीं कहा जा सकता ? बिलकुल, मेरे लिये, भारतीय समाज,
यही देश की एक पहचान हैं. और यही मेरा देश
प्रेम हैं. इसके लिये मैं जिन्दा भी हू और मर भी सकता हू.
लेकिन जब आप किसी भी तरह से कोई भी सवाल
व्यवस्था से करते हैं तब आप पर सवालों की बोछार की जा सकती हैं ? आप के देश प्रेम पर भी सवाल उठाया जा सकता हैं ? यहाँ, आप तब तक ही देश हित के लिये, मान्य हैं जब तक आप व्यवस्था की कमियों को
उजागर नहीं करते या इसका विद्रोह नहीं करते. इसका कारण, हैं की देश को चलाने वाली व्यवस्था जिसके हाथ में व्यवस्था के अनुरूप पूरी
ताकत हैं खुद को देश होने का दम भरती हैं, और इसी फलस्वरूप अक्सर ये
भारतीय समाज में अपने अनुरूप माहौल बनाने के लिये तत्पर रहती हैं. यहाँ अगर
व्यवस्था की ईर्षा को ठेस भी पहुँची तो सडक पर दंगे भी हो सकते हैं बस अखबार की
सुर्खिया कुछ अलग होगी. लेकिन वास्तव में व्यवस्था, ये भारतीय समाज और देश के प्रति वचन बंध हैं ना की
एक आम नागरिक इस व्यवस्था के प्रति. आज जो राष्ट्रभक्त होने का दम भर रहे हैं, इन्हें भारत के पूर्वतर राज्यों के नाम तक पता नहीं होंगे, लेकिन ये व्यवस्था के करीब होने से इनकी भक्ति का प्रमाण नहीं मांगा जा सकता.
आज, मीडिया और सोशल मीडिया, राष्ट्रप्रेम या
राष्ट्रद्रोह की पहचान के लिये कोई भी पैमाना क्यों ना दे, लेकिन भारतीय समाज और देश, अपनी विवधिताओ के कारण ही जाना जाता था और जाना
जायेगा, यहाँ दंगे में व्यवस्था पर ही सवाल उठे हैं, समाज पर नहीं. समाज, या देश के नागरिक ने जितना हो सके जान बचाने की
ही कोशिश की हैं. अंत, मैं ये ज़रुर कहूंगा की मैं आज भी पडोस से आये
खाने को बड़ी चाव से खाता हू. धन्यवाद.
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