आज, एक अनजान शख़्स से
मुलाकात हुई और हम भी अपनी धुन में सवार थे, थोड़ी बहुत त्क्लुफ्फ़ के
बाद, चर्चा का विषय मीडिया बन गया खासकर टीवी मीडिया, प्राइम टाइम डिबेट. यहाँ, जब मुझे मेरी राय रखने का समय मिला तो मेरा
कहना था की आज मीडिया में ग्लेमर आ गया हैं, मैं यही पर ही नहीं रुका
और थोड़ा सा आगे जाकर कहा की शाम को टीवी मीडिया डिबेट में इसकी महिला ऐंकर शर्ट
के ऊपर के बटन तक खोल कर रखती हैं. अब, में अभिव्यक्ति की आजादी
के तहत अपनी बात तो कह चूका था. लेकिन, मुझे मेरी बात कहने के
बाद एहसास हुआ की जिन शब्दों में मैने अपनी राय रखी थी वह उच्चित नहीं थे, इसी अनुभव को कुछ और सूझवान शब्दों में रखा जा सकता था.
लेकिन, धनुष से निकला बाण ज़ुबान
से कहे गये शब्द कभी वापस नहीं आते, इसी के तहत अंजान शख़्स ने हमारे पूरे चरित्र
का वर्णन कर दिया उनका कहना था की मैने ऐंकर का बटन किस तरह देख लिया, मसलन कुछ ही पल में वह मुझे, मुझसे ज्यादा जान चुके थे. और मेरी आत्मा के
भीतर से होते हुये मेरी नजरों तक पहुच चुके थे और इस बात का अंदाजा उन्होने लगा
लिया था की मैं वाहियात, शंकी, पता नहीं क्या क्या कुछ नहीं कह गये. उन्होने आगे भी कहा की
अगर टीवी की महिला ऐंकर बहुत छोटे कपडे पहन कर टीवी डिबेट में हिस्सा ले तो मुझे
महिला ऐंकर के चरित्र पर व्याख्यान करने का हक किस ने दिया, यहाँ उनकी बात सही थी की मैं कपड़ों से किसी के चरित्र का वर्णन कैसे कर सकता
हू ? लेकिन, मेरा सवाल अभी वही था की क्या टीवी मीडिया में
ग्लेमर नहीं आ गया ?
अगर, हम पुश्तैनी मीडिया अखबार, रसाला, मैगज़ीन देखे, यहाँ मॉडलिंग या फिल्म के माध्यम से क्या कुछ
नहीं छपता तस्वीरों में फिल्म की अभिनेत्री को कम कपड़ों में दिखाने का चलन आम हो
गया हैं, यहाँ आर्टिकल में अक्षर कम होंगे लेकिन इस तरह की तस्वीर
अखबार के आधे पेज तक को कवर कर चुकी होती हैं. क्या यह अखबार को बेचने का माध्यम
नहीं ? इस तस्वीर को कही भी कोई व्यक्ति अगर देख रहा हैं, तो क्या बस वह काम पूर्ति के लिये हैं, क्या वह ये सवाल नहीं कर
सकता की आज मीडिया का स्तर कितना नीचे गिर चूका हैं. कुछ इसी ही तर्ज पर आज टीवी
मीडिया कही ज्योतिष, शौपिंग, धर्म और ग्लेमर को परोस
रहा हैं, जहाँ फिल्म, टीवी के नाटक, सनी लिओन पर मचा बवाल, हर जगह ग्लेमर मौजूद हैं. यहाँ भी खबर को देखने से इसकी टीआरपी को ज्यादा करना
ही एक माध्यम हो सकता हैं. लेकिन, अगर इस पर सवाल करना हो तो किस तरह के शब्दों
को पिरोया जाये,
जिसके तहत आप ही की नीति पर शंका ना की जा सके.
आज बलात्कार एक आम खबर हो गयी हैं, मीडिया ने इस खबर पर इतना ज्यादा हो हल्ला कर दिया या इतना ज्यादा भुना दिया
या इतनी इस पर बहस कर दी गयी हैं की ये खबर अब अपना दर्द भी खो चुकी हैं. अब, एक दर्शक के रूप में इस खबर का मतलब एक आम खबर बन कर रह गया हैं. वही पीडिता
के लिये समाज में वह सहानुभूति भी नहीं रही जो एक आम नागरिक को पीडिता के साथ हुये
ज़ुल्म के खिलाफ सडक पर ला कर खड़ा कर देता था, इन जज्बातों का क़ातिल
टीवी मीडिया ही हैं. वही, मीडिया उन समीकरणों पर कभी बात नहीं करती या
चर्चा नहीं करती की आज समाज में बलात्कार की इतनी घटना क्यों बढ़ती जा रही हैं.
मसलन, परों साइट का चलन बढ़ रहा हैं, यहाँ परों साइट को बंद करने पर मीडिया इसे अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ देता
हैं लेकिन वह कारगर माध्यम पर चर्चा नहीं करता जहाँ परों साईट को बंद भी ना किया
जाये और इसका गैर फायदा भी ना हो. याद, रहे, जब आप परों साइट की आजादी की मांग करते हैं तब परों साइट में बच्चो के शोषण की
साइट भी मौजूद हैं.
इसी तर्ज पर मीडिया, लच्चर गीतों पर भी किसी तरह की चर्चा को नहीं करता मसलन साल २०१२ के दिसम्बर महीने में दबंग २ का
गीत फेविकोल मशहूर हो रहा था इस गीत में एक जगह बोल हैं की “जब में अगराई लेती हू जोर-जोर से, उह-आह की आवाज आती हैं हर और से”, यहाँ इस गीत को एक महिला ने ही गाया हैं वही इस गीत को एक मशहूर फिल्मी महिला
अदाकार पर फिल्माया गया हैं. क्या इस तरह के गीतों का समाज में चलन रोकना जरूरी
नहीं हैं, लेकिन इस तरह के गीतों के खिलाफ मीडिया की कोई जवाबदेही
नहीं हैं ? लेकिन, अक्सर मीडिया इस तरह की फिल्म के विज्ञापन का
माध्यम भी बनता हैं और ओझल तरीके से इस तरह के गीतों को अपने यहाँ जगह भी देता हैं
और हफ्ते के आखिर में ये तय भी करता हैं की इस फिल्म ने कितना व्यवसाय कर लिया हैं
और ये आने वाले दिनों में कितना व्यवसाय और करेगी. अगर आज बलात्कार की घटना कही भी
पूरे देश में हो रही हैं तो इसके लिये पुलिस, व्यवस्था के साथ-साथ मीडिया
भी क़सूरवार हैं.
साल १९९३, में मैं कुछ १४-१५ साल का
था, यहाँ एक सांस्कृति प्रोग्राम में एक दर्शक की रूप रेखा में
खड़ा था, अचानक से सभी की निगाहे मेरी तरफ हो गयी, २-३ लोगो ने मुझे पकड़ भी लिया था लेकिन उतने में एक लड़की ने कहा की पत्थर
इसने नहीं किसी और लड़के ने मारा था, यहाँ मैं निर्दोष था लेकिन अगर ये लड़की मेरी
पहचान क़सूरवार के तहत करती तो मेरी पिटाई लाजिमी थी. परंतु उस दिन इस घिन का भी
एहसास हुआ की लड़की का मतलब शरीर हैं ? नहीं, एक महिला, शरीर से ज्यादा एक व्यक्ति हैं. इनका अधिकार भी समाज में
उतना ही हैं. जितना एक पुरुष होने के नाते मेरा हैं और इसी के तहत इसे अपने जीवन
में क्या पहनना हैं क्या करना हैं, इसकी पूरी आजादी हैं और होनी भी चाहिये.
लेकिन मैं टीवी ऐंकर के कपड़ों की बात करता हू
तो ये टीवी ऐंकर के जरिये खबर को बेचने पर प्रहार हैं की किस तरह टीवी खबर की
टीआरपी बड़ाई जा सके. अगर कुछ और शब्दों में कहूं तो अमूमन आज हर टीवी मीडिया का
ऐंकर फिर वह चाहे पुरुष हो या महिला, अमूमन ४० वर्ष से कम उम्र के हैं, यहाँ कोई उम्र अंदाज व्यक्ति एक ऐंकर के रूप में नहीं दिखाई देता ? यहाँ ऐंकर पुरुष हो या महिला, उनके कपडे और मेक अप फिल्मी कलाकारों के तर्ज
पर होता हैं क्यों ? क्या टीवी ऐंकर एक काले रंग की महिला या पुरुष
नहीं हो सकता ? ध्यान से देखेगे तो शारीरिक रूप से महिला या पुरुष टीवी
ऐंकर इतने तंदुरूस्त हैं की यहाँ फिल्मी कलाकार भी मात खा जाये, लेकिन टीवी ऐंकर का काम बोलने का हैं इसी के तहत एक अंगहीन व्यक्ति टीवी ऐंकर
क्यों नहीं हो सकता ? ऐसे, बहुत से कारण हैं जहाँ, मैं ये सवाल कर सकता हू
की आज टीवी मीडिया में ग्लेमर आ गया हैं. इसी के तहत, मैं ये भी कहूंगा की टीवी मीडिया एक व्यवसाय में बदल चूका हैं और यहाँ अक्सर
खबर को जन्म दिया जाता हैं. आप मेरे किसी भी तर्क से मुझे वाहियात, लालायित, शंकी, कामी इत्यादि कह सकते हैं लेकिन मेरे सवाल को
नहीं धुँकार सकते की आज टीवी मीडिया में ग्लेमर पूरी तरह से मौजूद हैं. धन्यवाद.
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