मेक माय ट्रिप, के विज्ञापन में बिना पगड़ी का हैप्पी, कभी देखा है ?



1996-97 का वक़्त होगा, जब अचानक से टीवी की स्क्रीन पर एक पंजाबी गीत बार-बार चलाया जा रहा था, पहली बार तो इस गीत के वीडियो को देख कर लगा की ये किसी गैर सिख ने गाया है. शायद ये बहुत कम लोग जानते है की पंजाबी भाषा सिख, हिंदू और मुस्लिम समाज की सांझी भाषा है, इसी के तहत मैं ये जाँचना चाह रहा था कि वास्तव में ये कलाकार कोन है ? आप मुझ पर किसी भी तरह का आरोप लगा सकते है लेकिन यहाँ गायक कलाकार ने सिख की तर्ज पर पगड़ी नहीं पहनी थी लेकिन कमांडो की तर्ज पर सर को कपड़े से ढक रखा था.

इस गीत के बोल थे "बोलो ता रा रा", आगे लिखना ठीक नहीं, मेरा अंदेशा है कि अगर ये गीत हिंदी में होता तो ज़रूर इसकी शब्दावली को लेकर समाज में तल्ख देखी जाती लेकिन पंजाबी भाषा में कहा किसी को आपत्ति है, खेर हम यहाँ गायक कलाकार दलेर मेंहदी के बिना पगड़ी के खुद को दिखाने से समाज में हो रहे बदलाव पर ध्यान करे तो यहाँ सिख समुदाय की पगड़ी की मर्यादा कम हो रही थी.

कुछ इसी तरह उस समय ज़ी टीवी पर आ रहे एक धारावाहिक कैंपस में भी एक सिख कलाकार अक्सर बिना पगड़ी के, मात्र एक कपड़े से सर को ढक कर, अपने आप को पेश कर रहा था. अपरिभाषित सिख की नयी रूपरेखा को समाज अपना भी रहा था, मेरे घर के पास रहने वाले कई सिख नौजवान अब पगड़ी के बिना कमांडो यूनीफ़ॉर्म में खुद को पेश करने में ज्यादा सम्मान महसूस कर रहे थे. लेकिन मेरा सवाल उस समय भी था और आज भी है की ऐसा क्यों हो रहा है कि सिख की पुश्तैनी वेषभूषा से छेड़छाड़ की जा रही है.

ये ज़ख्म अब ज्यादा हरे हो गये जब एक होटल बुकिंग के टीवी विज्ञापन में फिल्म जगत के मशहूर कलाकार रणबीर सिंह को एक सिख के किरदार में देखा जहां सिख की पुश्तैनी वेषभूषा से अलग पगड़ी का समावेश ना करके, एक कपड़े से सर को ढका गया है, यहाँ अगर बाकी के कपड़ों को देखे तो लगता है की ये किरदार या तो अभी कही बाहर से आया है या बाहर जाने की तैयारी में है, ऐसी किसी स्थिति में पगड़ी का समावेश नहीं करना और नाम भी हैप्पी सिंह कह के पुकारना, इस किरदार को एक हास्यस्पद  की तरह पेश करनी की सोची समझी नीति लग रही है, इसके पीछे मार्केटिंग का भी कांसेप्ट हो सकता है, लेकिन इस मज़ाक से मेरी व्यक्तिगत भावना ज़रूर आहत हुई है.

धर्म, समाज की रचना करता है और समाज, नागरिक की रूपरेखा को निश्चित करता है, इसी तरह सिख धर्म और समाज के माध्यम से पगड़ी का अपना एक विशेष स्थान है. सही मायनों में सिख पगड़ी ही है जो एक सिख की पहचान की नींव रखती है और इसी तर्ज पर सिख का एक ऊँचा किरदार बनता है, इस किरदार में हर गैर सिख अपने लिये सम्मान और उम्मीद देखता है, व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि भीड़ में खड़े कई लोगो में से मेरी पहचान की गयी हो यहाँ मापदंड सम्मान, स्नेह के साथ-साथ मदद की उम्मीद भी होती है.

थोड़ा सा अगर पगड़ी के इतिहास पर नजर मारे तो साल 1699 की वैशाखी के दिन जहाँ सिख धर्म की नींव रखी जा रही थी वही सिख के पहनावे में पगड़ी का भी समावेश किया गया, यहाँ ऐसा भी कहा जाता है कि उस समय मुगल सत्ता में सिर्फ सत्ता के अधिकार रखने वाले बादशाह, मंत्री, सेनापति, इत्यादि गिने चुने बंदों को ही पगड़ी पहने की इजाज़त थी जहांँ पगड़ी ताज के रूप में पहचान रखती थी और बाकी नुमाइंदों को पगड़ी पहने पर सजा दी जाती थी, मसलन एक आम नागरिक को पगड़ी पहने का अधिकार नहीं था, यहाँ उस समय सिख के लिबास में पगड़ी का समावेश करके जहांँ मुगल सत्ता को ललकारा गया वही पगड़ी एक सिख के लिये आज़ादी की निशानी थी, यहाँ एक सिख पगड़ी पहनकर खुद को सरदार के रूप में पेश कर रहा था, शायद यही से एक सिख को सरदार कहने की रिवायत शुरू हुई होगी.

अब जहांँ, ग़ुलाम समाज में एक सिख आज़ादी की निशानी पगड़ी पहनकर निकलेगा वहां अक्सर सत्ता इस आज़ादी को कुचलने की कोशिश तो ज़रूर करेगी, इसी के तहत सिख इतिहास कुर्बानी से भरा पड़ा है, ये कहा जा सकता है की आज़ादी की निशानी पगड़ी का ताज पहने के लिये बहुत ज्यादा सहादत दी गयी, अब जब जिंदगी कीमत देकर पगड़ी के ताज को सजाया हो वही कोई फिल्मी या गायक कलाकार अपने निजी स्वार्थ के लिये सिख की पहचान पगड़ी से समझौता करेगा तो यकीनन वह जज्बात तो आहत होंगे ही जिनके लिये सिख पगड़ी एक सर्वोच्च स्थान रखती है, मैं पिछले समय में तो कही कुछ नहीं कर सका लेकिन इस लेख के माध्यम से रणबीर सिंह को ज़रूर कहूँगा की अगर ये विज्ञापन में सिख पगड़ी का समावेश करते तो हमारी भावना भी आहत ना होती, वही इस विज्ञापन की ईमानदारी पर भी मोहर लग जाती, क्योंकि आज भी समाज में पगड़ी का बहुत बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है. धन्यवाद.

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