जेनोसाइड, जहाँ पूरे-पूरे के समुदाय को खत्म करने की कोशिश होती हैं.


१९४४, में पोलिश-यहूदी पेशे से वकील, राफेल लेमकिन, ने एक नये शब्द को इजहार किया जेनोसाइड (न्श्ल्कुशी / जातिसंहार), वास्तव में लेमकिन एक यहूदी थे और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जिस तरह जर्मनी, पोलैंड जैसे देशों में कथाकथित सुनियोजित तरीके से यहूदियों का जनसंहार किया गया जिसमें लाखों की संख्या में यहूदियों को मारा गया, उन्हें आर्थिक रूप से बदहाल कर दिया गया. इनकी सम्पति छीन ली गयी. मसलन ये कहा जा सकता हैं की यहूदियों का वर्चस्व खत्म करने के साथ-साथ इस समुदाय को मिटाने की कोशिश की गयी, इसी संदर्भ में लेमकिन ने अपनी किताब में इस अपराध को एक नये शब्द जेनोसाइड के रूप में व्याखित किया.

मूलतः जेनोसाइड को दो शब्दों से जोड़कर बनाया गया हैं जिसमें पहला शब्द ग्रीक में जेनो (genos) हैं जिसका अर्थ कुल, जाति, पीढ़ी, वंश, वर्ग, व्यक्तियों का समूह (समाज) की तरह होता हैं वही दूसरा शब्द लैटिन में साइड (cide) हैं इसका अर्थ वध, शिकार, हत्या, कत्ल हैं, अब इन दोनों शब्दों को जोड कर शब्द बना जेनोसाइड (genocide), मतलब एक समुदाय / समाज, का पूर्ण रूप से हत्या / कत्ल / खत्म करना. समय रहते, पूरे विश्व में इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया गया हैं जिसे जेनोसाइड का नाम दिया जा सकता हैं जिसमें लाखों की तादाद में लोगो को मारा गया, बेघर किया गया, बलात्कार हुये, वह सारे अपराध किये गये जहाँ इंसानियत शर्मसार हो जाती हैं, लेकिन ये अपराध व्यक्तिगत ना होकर पूरे समुदाय को अपना शिकार बनता हैं.

अगर १९१५ के समय से नजर करे तो पहले विश्व युद्ध के दौरान तुर्की पर ये आरोप लगता हैं की इस देश ने एक भाषा और धर्म के सिद्धांत पर उन लाखों लोगो का कत्ल कर दिया जो इस समीकरण में नहीं आते थे इसमें मुख्य रूप से अस्स्य्रिंस (Assyrians), पोंतियन (Pontian), अनातोलियन ग्रीक्स (Anatolian Greeks) मौजूद हैं लेकिन जिस समुदाय को सबसे ज्यादा जान-माल का नुकसान पहुँचाया गया वह था अर्मेनिंस (Armenians), यहाँ अर्मेनिंस ७वी शताब्दी से मौजूद थे और इन्होने अपनी जमीन बचाने के लिये कई बार मंगोलियन, तुर्की, रूस से लड़ाई भी की थी. साल १८९० के आते-आते अर्मेनिंस और तुर्किश सरकार जिसके मुखिया सुलतान अब्देल हामिद थे, इनके बीच तल्ख़ बढ़ने लगी और १८९४ में ८००० और एक साल बाद २५०० अर्मेनिंस समुदाय के लोगो का कत्ल किया गया, साल १९१४ मैं तुर्की जर्मनी के साथ मिलकर पहले विश्व युद्ध में शामिल हो गया और यहाँ तुर्की सेना के आर्मी अफसरों ने अर्मेनिंस समुदाय पर आरोप लगाये की ये रूस से जज्बाती रूप से जुड़े हुये हैं और देश विरोधी होने का आरोप (जहाँ कोई सबूत नहीं होता बस, आरोप लगा  का इजहार कर दिया जाता हैं.) लगाकर, सुनियोजित ढंग से अमूमन १५ लाख अरेमेनिंस समुदाय के नागरिक का कत्ल कर दिया.

इसी तरह दूसरा उदाहरण यहूदियों का कत्लेआम हैं, यहाँ पहले विश्व युद्ध में करारी हार के बाद जर्मनी पर विजयी मित्र देशों के समूह ने कई तरह से कड़े नियम लागू कर दिये, जहाँ जर्मनी का क्षेत्र कम होने के दबाव में था, वही सामाजिक स्तर पर बेरोजगारी और बाकी समस्याओं के कारण निराशा अपनी चरम पर थी, इसी बीच हिटलर की लोकप्रियता में बढ़ावा हो रहा था और नाज़ी पार्टी १९२८ की २ सीट से १९३२ के चुनाव में २३० सीट जितने में कामयाब रही थी. हिटलर ने आते ही उन सभी कानूनों में बदलाव कर दिया जिसके अधीन यहूदियों को फायदा पहुच रहा था. श्रेणी बंध तरीके से यहूदी समुदाय की सामाजिक प्रतिष्ठा को कम किया जा रहा था, सरकारी नौकरी से बेदखल, उच्च दर्जे के कार्य क्षेत्र से वचिंत करना और किसी भी मूलतः जर्मनी पुरुष या महिला की यहूदी समाज में शादी को ना फ़रमान करना, इत्यादि तरीको से यहूदी समाज को जर्मनी से निष्कासित करने की योजना बंध फैसले लिये गये वही आम नागरिक को प्रचार के माध्यम से ये बताया गया की यहूदी समाज के कारण जर्मनी को पहले विश्व युद्ध में हार का मुंह देखना पढ़ा था, समाज की इस तल्ख़ को चिंगारी लगी जब एर्न्स्ट वोम राथ की हत्या एक नोजवान यहूदी ने कर दी, इसके बाद यहूदी को शिक्षा संस्थानों से भी दूर कर दिया गया, साल के अंत तक क़रीबन १ लाख यहूदी जर्मनी छोड़ चुके थे, वही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जर्मनी ने रूस पर हमला, इसे यहूदी समुदाय के साथ हो रही लड़ाई के रूप में देखा गया, यहाँ शुद्धिकरण के नाम पर नाज़ी सरकार द्वारा अमूमन ५० लाख यहूदियों का कत्ल किया गया, कत्ल करने के लिये ऐसे तरीके अपनाये गये जो पहले देखने में नहीं आये थे मसलन यहूदी समुदाय पर मैडिकल टेस्ट करना, ज़हरी गैस सिलिंडर में लोगो को डालकर मारना, बहुत कम खाना देकर सारा दिन मजदूरी करवाना, यहाँ तक की कड़ कड़ाती ठंड में बिना कपड़ों के लोगो को रहने के लिये मजबूर करना.

इसी तर्ज पर १९७५ में कंबोडिया, १९९० में रवांडा, १९९१ में बोसनिया और २००३ में दारफुर, ये सारे कत्लेआम पर अध्ययन किया जाये तो सभी कतलैआम बहुताय समाज द्वारा अल्प सख्यंक समाज को खत्म करने की तर्ज पर, अत्याचार किये गये, इन सभी स्थान पर ताक़तवर व्यवस्था पर भी आरोप हैं की ये भी व्यवस्थित तरीके से इस कत्लेआम में शिरकत कर रही थी. लेकिन इन सभी घटना में एक सवाल सभी के ज़ेहन में आता हैं की एक बहुताय समाज का आम नागरिक किस तरह से इस तरह के कत्लेआम को स्वीकार कर सकता हैं ? इसके लिये  इन सभी घटना का अध्ययन ये ही दर्शाता हैं की ये सारी घटना यकायक नहीं हुई, काफी समय पहले से समाज में अल्पसख्यंक समूह के खिलाफ नफरत फैलायी जाती हैं और इस नफरत को ज्यादा उग्र करने के लिये, ये दिखाने की पूरी इमानदारी से कोशिश की जाती रही हैं की अल्प स्ख्यंक समूह देश के लिये खतरनाक हैं मसलन १९१५ में तुर्की और १९४१-४४ में जर्मनी, दोनों जगह अल्प स्ख्यंक समूह पर दुश्मन देश से सहानुभूति के आरोप लगाये गये और इसी के तहत बहुसख्यंक समाज के आम एक नागरिक के जज्बातों को आहत किया गया और एक समय ऐसा आया जब समाज की निराशा ने उग्र रूप से कत्लेआम को अंजाम दिया और इसे स्वीकार भी किया.


इस तरह की घटना, विश्व के कोने-कोने में किसी ना किसी समय अंतराल में होती रही हैं और हो भी रही हैं, व्यक्तिगत रूप से में ये निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा हु की किस तरह इस तरह के जेनोसाइड को रोका जा सकता था, लेकिन ये भी सच हैं की इन जगह पर एक बार इस तरह की घटना होने के बाद इस तरह के ज़ुल्म बार-बार देखने को नहीं मिले, मतलब समाज में इतनी नफरत नहीं थी की समय रहते एक ही तरह के जेनोसाइड एक ही जगह पर किये गये हो, तो क्या ये जेनोसाइड तब-तब हुये जब-जब व्यवस्था का मोहरी ताक़तवर इंसान इस तरह की व्यक्तिगत सोच या नफरत रखता था. कहना मुश्किल हैं लेकिन इसे झुठला भी नहीं सकते. धन्यवाद.

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