जेनोसाइड के पहले ४ चरण.


दूसरे विश्व युद्ध में यहूदी समुदाय का जेनोसाइड जिसे होलोकास्ट के नाम से भी जाना जाता हैं, इसके बाद पूरे विश्व में ये क़यास लगाने शुरू हो गये थे की ये जेनोसाइड आखिर होता किस तरह हैं, इससे बेहतर सवाल होगा की इसे अंजाम किस तरह दिया जाता हैं क्युकी ये क़ुदरती घटना नहीं हैं, ये मानव समाज का सच हैं जहाँ समय रहते दो समुदाय के बीच का तनाव, अति उग्र होता हैं और जेनोसाइड की घटना हकीकत में आती हैं. इसके आगे भी एक सवाल था की इसे कैसे रोका जाये लेकिन रोकने के लिये, पहले उन कारणों का अध्ययन जरूरी हैं जो जेनोसाइड की वजह हैं. इसी के पश्चात जानकारों ने सभी घटनाओं का अध्ययन करके ये निष्कर्ष निकाला की, जेनोसाइड यकायक नहीं होता, ये समाज के दो समुदाय मुख्यतः बहु स्ख्यंक समाज की तल्ख़ हैं जो अक्सर तनाव पैदा करती रहती हैं ये कभी कम होती हैं और कभी अति उग्र, ये कभी जमीन दोष होती हैं तो कभी सड़क पर अपना नंगा नाच दिखा रही होती हैं.

अध्ययन से पता चलता हैं की जेनोसाइड की घटना के ८ स्तर हो सकते हैं. मसलन जेनोसाइड एक ऐसी प्रक्रिया हैं जो आठ चरणों में विकसित होती हैं, जरूरी नहीं की जेनोसाइड की प्रत्येक घटना में ये ८ चरण सिरे बंद तरीके से लागू हो लेकिन प्रत्येक चरण में, ऐसे निवारक उपाय भी हैं जो जेनोसाइड की घटना को रोक भी सकते हैं जेनोसाइड की घटना में जरूरी नहीं हैं की ये सभी चरण चरण एक श्रेणीबंद रूप में हो, ये भी हो सकता हैं की २-३ चरण एक साथ में अपनी निशानदेही कर रहे हो. जानकारों ने इन सभी चरणों की हकीकत के साथ-साथ इनका नाम भी दिया हैं.

१. वर्गीकरण: ये जेनोसाइड का पहला चरण हैं जहाँ सभी तरह के समाज या देश में, नागरिक को जातीयता, जाति, धर्म या राष्ट्रीयता के जरिए लोगों को "हम और वह" कहकर या दर्शा कर मुख्य समाज से अलग / बाँट दिया जाता हैं. यहाँ, अक्सर बहुताय पक्ष हमकी हामी में होता हैं और अल्प स्ख्यंक वहकी और इस बटवारे को बहुताय पक्ष द्वारा ही लागू करने की कोशिश होती हैं. मसलन जर्मन और यहूदी , हुटु और तुत्सी रवांडा और बुरुंडी द्विपक्षीय समाज हैं जहाँ समाज में एक पक्ष बहुताय हैं और दूसरा अल्प मत में, इस तरह के समाज में सबसे ज्यादा नर संहार होने की संभावना बनी रहती हैं ये घटना इतनी बारीकी से होती हैं की समाज को पता भी नहीं चलता की इस तरह से समाज को बांटा जा रहा हैं. और इस तरह समाज को खंडित करने का क़यास पिछले कई साल या दशक से भी हो सकता हैं. यहाँ, इस चरण को समझकर और थोड़ी सी मुस्तैदी और भाई-चारे इसे यहाँ रोक दिया जाये, तो जेनोसाइड की घटना को बहुत हद तक रोका जा सकता हैं.

२. सांकेतिकता: ये जेनोसाइड का दूसरा चरण हैंयहाँ समाज को हमऔर वहशब्दों से परिभाषित करने के बाद, एक समुदाय की सांकेतिक पहचान की निशानी दी जाती हैं जिससे समुदाय की पहचान मुख्य वर्ग से हट कर की जा सके इसमें समुदाय को एक अलग नाम देना, उनके रंग या पोशाक, भाषा, इत्यादि सामाजिक निशान देही से इस तरह की पहचान को संभव किया जाता हैं. कई बार समुदाय की अलग से पहचान करने के लिये जबरन उनकी पोशाक में अलग तरह के चिन्ह का इस्तेमाल भी किया जा सकता हैं मसलन नाज़ी शासन द्वारा यहूदी समुदाय की पोशाक में पीले रंग के सितारा रूपी चिन्ह को अनिवार्य कर दिया था वही रवांडा में हुतू समाज की पहचान के लिये कार्ड दिये गये थे और वही अल्प स्ख्यंक समुदाय तुत्सी को इन पहचान पत्र से दूर रखा गया था. अगर हम भारत देश की आजादी के बाद १९८४ और २००२ की जेनोसाइड की घटना का अध्ययन करे तो ८४ में सिख समाज अपनी पोशाक से समाज में अलग पहचान रखता ही था वही २००२ की घटना में मुस्लिम समाज की पोषक और खासकर भाषा ने इनकी अलग से पहचान करने में काफी मदद की थी. यहाँ, इस चरण तक हो सकता हैं की जेनोसाइड की घटना अपना उग्र रूप इख्तियार कर ले.

३. अमानुषिक: ये जेनोसाइड का तीसरा चरण हैं जहाँ एक समूह जो हमकी हामी भरता हैं वह दूसरे समूह को जिसे वहकहकर मुख्य समाज से अलग कर दिया गया हैं, इस अल्प समाज के नागरिक को मानव या इंसान मानने से इनकार कर देता हैं. इस तरह इनकी तुलना जानवर, कीड़े या रोग / बीमारी की तरह की जा सकती हैं. रवांडा जेनोसाइड में पीड़ित वर्ग तुत्सी को एक कीड़े का नाम से पुकारना, इसी चरण का उदाहरण था. वही जर्मनी में नाज़ी सरकार द्वारा कई इस तरह के कानून को अपनाया गया जहाँ यहूदी समाज को मुख्यतः समाज से अलग-थलग कर दिया गयामनो विज्ञान भी इस चरण को साबित करता हैं की एक आम मानव के लिये किसी दूसरे मानव की हत्या करना मानवीय और जज्बाती द्रष्टिकोण से संभव नहीं हैं, अगर फिर भी यहाँ कत्ल किया जाता हैं तो संभव हैं की कत्ल करने वाला नागरिक अति हताशा का शिकार हो जाये, लेकिन जब प्रचार और भाषण के द्वारा बहु स्ख्यंक समाज में इस धारण को प्रचलित किया जाता हैं की समाज का अल्प स्ख्यंक समुदाय मानव समुदाय श्रेणी में ही नहीं आता तो मनोविज्ञान का ये नियम एक तरह से खारिज कर दिया जाता हैं. समाज की यही नफरत मुख्यतः जेनोसाइड का कारण बनती हैं. मसलन १९८४ और २००२ के दंगो में एक समानता थी की दोनों जगह पर पीड़ित समुदाय के नागरिक को आग लगाकर जला कर मारने की घटना सबसे ज्यादा देखी गयी और पीड़ित समुदाय के नागरिको ने बाद में ये बयान भी दिये की यहाँ आग लगाकर जलाने के बाद, बहुताय समाज के नागरिक वहां जशन में नाच रहे थे. मनोविज्ञान की द्रष्टिकोण  से इस तरह के अमानवीय अपराध तभी संभव हो सकता हैं जब पीड़ित नागरिक को मानव / इंसान ही ना समझा जाये.

४. संगठन: जेनोसाइड का ये चोथा चरण हैं, बयान करता हैं की बिना किसी मजबूत संगठन की भागीदारी के इस तरह की जेनोसाइड घटना को अंजाम देना मुश्किल हैं. यहाँ संगठन, अपने लडाको को अक्सर युद्ध रणनीति के तहत ट्रेनिंग भी देता हैं और अक्सर जेनोसाइड में इस्तेमाल होने वाले हथियार भी इन्हें इसी संगठन द्वारा दिये जाते हैं. इस संगठन में आम तोर पर राज्य व्यवस्था की भागी दारी भी देखी जा सकती हैं जो नागरिक की रक्षा, अपने इस कर्तव्य निर्वाह से पीछे हट जाती हैं. मसलन रवांडा में तुत्सी जेनोसाइड में  MNRD और Interahamwe संगठन की भागीदारी होना वही जर्मनी की होलोकास्ट के लिये नाज़ी सरकार. कुछ इसी तरह १९८४ पूरे उत्तर भारत में अंजाम दिये गये सिख विरोधी दंगो के लिये कांग्रेस पार्टी और २००२ के गुजरात दंगो में उस समय की मोदी राज्य सरकार पर आरोप लगाया जाता हैं की इनकी निशान देही पर ही इन दंगो को अंजाम दिया गया.


1   जेनोसाइड की इन तमाम घटनाओं में एक समानता और देखने में आ रही हैं की जहाँ-जहाँ भी इस तरह दो समुदाय की मौजूदगी में, अल्प समाज का जेनोसाइड किया गया, इन सभी जगह पर ज्यादातर देशों में लोकतंत्र स्थापित हैं और चुनाव द्वारा चुनी गयी सरकार ही व्यवस्था की देखभाल करती हैं, लेकिन इन्ही चुनी हुई सरकार पर जेनोसाइड को अंजाम देने के आरोप लगते रहते हैं, तो क्या चुनावी जीत भी जेनोसाइड का एक मक़सद हो सकती हैं. शायद हाँ. धन्यवाद.

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