भारतीय समाज में, फिर चाहे कोई भी
प्रदेश, समुदाय, भाषा हो, यहाँ परिवार का बहुत महत्व हैं. और अक्सर परिवार, में माँ का स्थान सबसे ऊपर हैं या
यु कहे की परिवार का मतलब ही माँ हैं, तो भी गलत नहीं होगा. इसी के, चलते माँ, शब्द इतना भावआत्मक हैं की इससे हर
किसी के जज्बात जुड़े हुये हैं, और में भी इससे अछूत नहीं हु, मेरे लिये माँ का मतलब सब कुछ हैं, माँ, बहन, शिक्षक, भगवान और सच कहूं तो
मेरे लिये मेरी माँ, किसी धार्मिक स्थान से भी कम नहीं हैं, में आज भी मेरी माँ के
पास जाकर शिकायत ही करता हु और कही ना कही मेरे जीवन की कई नाकामियों के लिये मेरी
माँ को ही जिम्मेदार ठहराता हु, लेकिन अक्सर मेरी माँ, सब कुछ सुनकर बस मुस्करा देती हैं
और माँ का यही जवाब होता हैं, “आज तेरी मनपसंद सब्जी बनाई हैं, खाना आज यही खा कर
जाना.”. में, इस धार्मिक स्थान पर अपनी शिकायत करके, दोष मुक्त भी हो जाता हु और भगवान
बस मुस्करा देता हैं और प्रसाद के रूप में, खाना भी खिलाता हैं, सच कहूं तो मेरी माँ
मेरे लिये आदर्श भी हैं और प्रेरणा भी. मेरी माँ, का मेरे जीवन पर बहुत ज्यादा
सकारात्मक प्रभाव हैं.
पिता जी, अपनी नौकरी के चलते
अक्सर, कभी भी मेरे स्कूल में नहीं गये, शायद उन्हें कभी भी ये पता नहीं होगा की मैं स्कूल की
किस क्लास में हु लेकिन मेरी माँ ही मेरे स्कूल भी जाती थी और ट्यूशन के लिये, टीचर भी, मेरी माँ, ही ढूँढ के लाती थी, सुबह तैयार करना, स्कूल छोड़ कर भी आना
और लेने भी जाना, शाम को ट्यूशन भेजना, मेरी माँ ने मेरे लिये अपना हर
दायित्व पूरी इमानदारी से निभाया हैं, मुझे आज भी एक वाकया याद हैं, में क्रिकेट में एक अच्छा खिलाडी
था, मतलब मेरी सोसाइटी का, हर लेग की गेंद मैदान के बाहर होती थी और ऑफ की बाल
को मैं कभी छु भी नहीं पाता था, अक्सर ऑफ की गेंद पर भी लेग में ही शौर्ट मारता था, इसी सिलसिले में, एक दिन रविवार को
मैदान में क्रिकेट का मैच चल रहा था और सुबह से मैने कुछ भी नहीं खाया था, उस दिन मेरी माँ मैदान
पर मुझे दूध के गिलास के साथ पार्लेजी के बिस्कुट भी खिलाकर गयी थी. लेकिन, पड़ाई के मामले, में कोई समझौता नहीं
था, अगर रात को होमवर्क पूरा नहीं हुआ और टीवी अभी भी चल रहा हैं तो समझ लीजिये
रसोई में से कभी भी रोटी को बेलने वाला बेलना घूमता हुआ, मेरी दिशा में आ सकता हैं. मेरी
माँ, कागजी पड़ाई में इतनी निपूर्ण नहीं थी, शायद उन्हें बचपन में इतने संसाधन
नहीं मिले होंगे, जितने मुझे उपलब्ध थे लेकिन मेरी माँ, जीवन की शिक्षा में
बहुत ज्यादा निपूर्ण थी और अक्सर में, उनकी बातें सुनता रहता था जिसका प्रभाव मेरे जीवन पर
बहुत ज्यादा सकारात्मक हुआ हैं.
साल १९९४, में कक्षा १२ का
फिजिक्स सांइंस का प्रक्टिकल की एग्जाम थी और में उस दिन घर से निकल भी चूका था, लेकिन, माँ को लगा की आज
बायोलॉजी का टेस्ट हैं और इसका प्रक्टिकल संसाधन वाला बॉक्स मैं घर भूल गया हु, इसे लेकर मेरी माँ
पीछे-पीछे एग्जाम सेंटर तक पहुच गयी थी. कक्षा १२ की परीक्षा की तैयारी में अक्सर
रात के ४ बजे तक मेरी पड़ाई होती रहती थी और मेरी माँ भी मेरे साथ देर रात तक जागती
रहती थी. में ये वाकया इसलिये यहाँ लिख रहा हु, की मेरी माँ मुझे कामयाब बनाने के
लिये हर तरह से इमानदारी से कोशिश कर रही थी. जैसे-तैसे १२ क्लास पास करके, में कॉलेज चला गया, पता चला की स्कूल की पड़ाई तो हिंदी माध्यम से हुई हैं
लेकिन गुजरात राज्य में उस समय सिर्फ और सिर्फ गुजराती या इंग्लिश माध्यम में ही
विज्ञान प्रवाह के कॉलेज थे, और इसी के चलते मेंने इंग्लिश कॉलेज में बीएससी में
ऐडमिशन ले लिया, कॉलेज में कुछ पले नहीं पड़ता था और घर आकर माँ, से ही शिकायत रहती थी, की मुझे इंग्लिश
माध्यम में क्यों नहीं पढाया.
खेर, कॉलेज पूरा होते-होते
एक बात समझ आ गयी थी की मैं जिसे शिक्षा समझ रहा हु, वह सिर्फ और सिर्फ लकीर के फकीर की
नीति को ही बढ़ावा देती हैं, इससे मुझे कही रोजगार में कोई मदद नहीं होने वाली, कॉलेज के पश्चात, कुछ कोर्स किये, नौकरी भी की लेकिन साल
२००० से २००३ तक में पूरी तरह से बेरोजगार था, यहाँ कोई ऐसा विकल्प नहीं था जहां
में खुद को व्यस्त रख सकू, इसी के चलते निराशा अपनी चरम पर थी और शिकायत माँ से, की मुझे क्यों पढाया ? इससे अच्छा तो कही
किसी गैरेज में लगा देती तो में आज कुछ कमा तो लेता, लेकिन माँ खामोश ही रहती और अक्सर
माँ का यही जवाब होता था, “जिंदगी में मुसीबत आती रहती हैं इसका सामना करो.”, यहाँ माँ प्रेरणा
स्वरूप बन रही थी, एक दिन २००२ के आखिर में, जब मुझे कोई भी विकल्प नहीं सूझ
रहा था. तब माँ, ने ही कहा था की मुझे ड्राइविंग कर लेनी चाहिये, मुझे इस बात ने झँझोड़
दिया था की मेरी माँ जिसने मुझे पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, आज मुझे ड्राइविंग के
लिये कह रही हैं, कुछ दिन हम माँ-बेटा में ये बहस चलती रही लेकिन आखिर
में, मैने ड्राइविंग करने की ठान ली और इसके लिये मुझे मेरी माँ ने ही प्रोत्साहन
दिया था.
कुछ, १८ महीने ड्राइविंग
करने के बाद, मेरा खोया हुआ आत्म-विश्वास मुझ में वापस आ गया था, अब निराशा एक आशा में बदल गयी थी, साल २००५ आते-आते
ड्राइविंग को छोड़कर फिर से इंटरव्यू देने शुरू किये और मुझे नौकरी मिल गयी. आज, एक समान जनक पोजीशन पर
काम कर रहा, हु जीवन में व्यक्तिगत रूप से इतना मजबूत हो चूका हु की जीवन की मुसीबतों से
अक्सर खो-खो का खेल खेलता रहता हु लेकिन यहाँ मुसीबत आगे होती हैं और में पीछे, इसका तब तक पीछा करता
हु जब तक इस मुसीबत का हल ना निकल आये, लेकिन मुझे मजबूत इंसान बनाने में मेरी माँ का ही
योगदान हैं, कुछ दिनों पहले माँ ने बताया की “साल २००३ में, मुझे ड्राइविंग के लिये प्रेरित
करने की वजह पैसो की कमाई नहीं थी, लेकिन मुझे घर से बाहर जाकर दुनिया से लड़ने की एक
वजह थी, जिससे मुझे मेरा खोया हुआ आत्म विश्वास वापस मिल सकता था.” माँ, सही थी, अक्सर माँ अपनी संतान
के लिये कुछ कठोर फैसले लेती हैं जिसका एक संतान होने के नाते हमें, इसकी भनक भी नहीं लगती
की इन कठोर फैसलों की वजह से ही हमारा आने वाला जीवन सफल हो सकता हैं. असलियत में
मेरी माँ ही, मेरी शिक्षा हैं ना की वह काले रंग के अक्षर जो स्कूल और कॉलेज की किताबों में
लिखे हुये थे और जिन्हें में जोर-जोर से पड़ा करता था. धन्यवाद.
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