पुलिस की FIR कहती हैं की एनकाउंटर में मारे गये निर्दोष के घर से भगवद गीता का अरबिक संस्करण मिला हैं.


हमारे देश में ऐसे कितने लोग होंगे जो दूसरे धर्म की धार्मिक किताब, जिसे अपनी भाषा में अनुवाद किया गया हो, ऐसी किताब अपने घर में रखते हो, शायद इक्का-दुक्का, अमूमन हमारे देश में हर कोई अपनी आस्था और धर्म के अनुसार, अपनी धार्मिक किताब ही अपने साथ या घर पर, बड़ी ही मर्यादा और धार्मिक श्रद्धा से रखते हैं. लेकिन, फिल्म जॉली एल.एल.बी. २, में इसका मुख्य किरदार जगदीश्वर मिश्ना उर्फ जॉली अपने मोवकिल इकबाल कासिम की पैरवी करते हुये, कोर्ट में पुलिस एफ.आई.आर. की कॉपी की नकल पढ़कर बताता हैं की आपत्तिजनक सामग्री में बताया गया हैं की यहाँ भगवत गीता का अरबिक संस्करण भी दिखाया गया हैं. यहाँ, इस फिल्म में नायक और खलनायक दोनों की बहुसख्यंक समाज से दिखाये गये हैं, एक अल्पसख्यंक समुदाय के नागरिक को आतंकवादी कहकर इसका एनकाउंटर कर देता हैं और दूसरा वकील बनकर, इसे निर्दोष साबित करने की पैरवी कर रहा होता हैं. कुछ इसी तरह से हिंदी फिल्म का इतिहास भरा पड़ा हैं मसलन खाकी (2004), इत्यादि, जहाँ अक्सर एक बहुसख्यंक समाज का नागरिक ही अल्पसख्यंक नागरिक के संविधानिक हितों की रक्षा करते हुये दिखाई देगा.

यहाँ, फिल्म के निर्देशक और कथाकार ने, बड़ी ही चतुराई से भगवद गीता को यहाँ शामिल किया हैं, यहाँ जोली एक हिंदू समाज का उच्च जाती का ब्राह्मण हैं, ये अपनी अंतर आत्मा की आवाज सुनकर, एक निर्दोष हत्याकांड में मारे गये इकबाल कासिम की पैरवी कोर्ट में कर रहा होता हैं जहाँ इस किरदार की ईमान दारी पर किसी भी तरह का संदेह नहीं किया जा सकता. फिल्म की कहानी, एक नया मोड़ लेती हैं जब इस केस के जज त्रिपाठी जी, इस मामले में किसी भी तरह की जांच के आदेश देने से मना कर देते हैं. और यहाँ किसी निष्पक्ष जांच की क्या जरूरत हैं, इसे साबित करने के लिये जॉली से कहते हैं. जोली, यहाँ अदालत में तो एक पुराने सिपाही की तरह नजर आता हैं लेकिन इनका ये पहला बड़ा मुकदमा हैं. इसी के तहत, अभी इनके पास कोई ऐसी पहुच नहीं हैं जिससे इस केस से जुड़े हुये किसी भी सरकारी कागज को प्राप्त कर सके.

संविधान के अनुसार और अदालत के हुकुम से, आप किसी भी केस की FIR कॉपी ले सकते हैं, लेकिन ये फिल्म हैं और इसे इसकी कहानी के अनुसार ही हमें देखना होगा, यहाँ, जॉली, वाराणसी के गुरु जी से सम्पर्क करता हैं, यहाँ इनकी मुलाकात गुरू जी द्वारा करवायें जा रहे क्रिकेट मैच में होती हैं जहाँ दो महिला टीम एक बुरके में और दूसरी टीम साडी में खेल रही होती हैं और आखिर में जीत साडी पहनी हुई टीम की होती हैं. यहाँ, गुरु जी ५ लाख रुपये के बदले FIR की कॉपी देने का भरोसा देते हैं. जिसके लियेजॉली अपना १२ लाख में खरीदा हुये चैम्बर को ५ में लाख में बेचकर इस FIR की कॉपी को प्राप्त करता हैं. दूसरा सीन, कोर्ट रूम में हैं, यहाँ, निर्देशक और कहानीकार की बुद्धिमानी का परिचय मिलता हैं, यहाँ, कहानी के इस मोड़ पर, जॉली अपनी बात सच करवाने के लिये, FIR की कॉपी को अदालत में पेश करता हैं, और इसी सिलसिले में, जॉली अदालत को कहता हैं की यहाँ पुलिस बता रही हैं की तफतीश के दौरान पुलिस को इकबाल कासिम के यहाँ एक मशहूर गजलकार की गजल की सीडी मिली हैं, इत्यादि, और अंत में जोली अदालत को बताता हैं की कासिम के घर से पुलिस ने ये किताब बरामद की हैं जो भगवद गीता का अरबिक संस्करण हैं.

यहाँ, थोड़ा सा रुकना जरूरी हैं, फिल्मकार और निर्देशक की चतुराई देखिये, यहाँ एक दर्शक के रूप में आप ये बिलकुल मना नहीं कर सकते की इकबाल कासिम के घर से किसी गजलकार की गजल की सीडी ना मिली हो, इसी के तहत आप और भी किसी वस्तु पर सवाल नही कर सकते. और इसी सिलसिले में सबसे आखिर में पेश की गयी भगवद गीता का अरबिक संस्करण, जब आप एक दर्शक के रूप में इकबाल कासिम के घर से बरामद किसी और वस्तु पर अपनी सहमति प्रकट कर रहे हैं तो आखिर में दिखाई गयी, भगवद गीता के अरबिक संस्करण पर आप किस तरह से कोई सवाल कर सकते हैं. यहाँ, भी आप की सहमति बन ही जायेगी. लेकिन, फिल्म कार या लेखक की चालाकी देखिये, यहाँ पुलिस की FIR के आधार पर ये बात बताई जा रही हैं, जिसे झूठा करार देने के लिये जोली इस अदालत में आया था, अब कहानी कार के रूप में यहाँ फिल्मकार कासिम के घर से भगवद गीता का अरबिक संस्करण मिलने पर एक ओझल सा प्रश्न चिन्ह लगा रहा हैं लेकिन जिस चतुराई से इसे पेश किया गया हैं वहां दर्शक के रूप में आप इस पर सवाल नहीं कर सकते. इसी का प्रतीक हैं की यहाँ इस फिल्म में आगे जज त्रिपाठी जी भी यही कहते हैं की भारत में भगवद गीता का मिलना, गुनाह कब से हो गया.

यहाँ, फिल्म की कहानी कुछ नये मोड़ लेती हैं और आखिर में जॉली ये बात साबित कर देता हैं की इकबाल कासिम निर्दोष था. ये फिल्म दर्शकों द्वारा खूब सरहाई भी जा रही हैं और बॉक्स ऑफ़िस पर भी धूम मचा रही हैं. अब सोचिये, की यहाँ निर्देशक और फिल्मकार को भगवद गीता के अरबिक संस्करण को यु ओझल करके दिखाने की क्या जरूरत थी ? दो पल के लिये सोचिये, की इस फिल्म में निर्दोष मारा गया अपराधी इकबाल कासिम का नाम सुरेश मेहता हैं और इनको बेगुनाह साबित करने के लिये जो वकील केस लड़ता हैं उसका नाम जगदीश्वर मिश्ना उर्फ जॉली ना होकर समीर कुरेशी हैं. इसी तर्ज पर सारे किरदारों का नाम बदल दीजिये. और यहाँ अदालत में समीर खान बताता हैं की सुरेश मेहता के यहाँ से इस्लाम धर्म से जुड़ी हुई किताब का हिंदी या संस्कृत संस्करण मिला हैं. कुछ इस तरह से अगर फिल्म दिखाई जाती तो क्या आप इसे एक दर्शक के रूप में स्वीकार करते ? क्या इस तरह से दिखाई गयी फिल्म, इतनी सरहाई जाती या बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाब हो पाती ? शायद नहीं.


अंत, में एक दर्शक के रूप में हमें समझना होगा की राजनीति का धर्मवाद या जिस धर्म में हम यकीन करते हैं वो हमारे ज़ेहन में एक कट्टरता के रूप में शामिल हैं ना की उदार के रूप में. अक्सर हर धर्म में इनसानियत का ही संदेश देता हैं और उदार वाद की महक हैं, लेकिन आज हमारे जीवन में जो भी वस्तु हमसे संवाद करती हैं फिर वह चाहे मीडिया हो, सोशल मीडिया, तस्वीर, फिल्म, इत्यादि वह शब्दों के जाल से धार्मिक कट्टरता को ही प्रोत्साहित कर रही हैं और हमें पता भी नहीं चलता की कब हमारी मानसिकता भी एक धार्मिक कट्टरवाद के रूप में प्रफुलित हो गयी. यकीन मानिये, धार्मिक कट्टरता भारत के लोकतंत्र और समाज के ताने बाने को तहस नहस कर सकती हैं. और इस कट्टरता को दूर करने के लिये हमें अपने-अपने धर्म या आस्था को एक बार फिर से समझने की जरूरत हैं लेकिन अपने नजरिये से ना कि किसी और के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से. और सामाजिक आजादी के लिये, संविधान को ही हमारी श्रद्धा की किताब के रूप में स्वीकार करना होगा लेकिन यहाँ भी किसी तरह के अंध विश्वास के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिये.

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