अल्पसख्यंक होने के नाते, मुझे अक्सर खुद को एक अच्छा नागरिक होने की रूप रेखा में खुद को पेश करना होता हैं. ये, मेरी सामाजिक आजादी तो नहीं ही हैं.



कुछ दिन पहले, ट्रैफिक सिंगल पर, जल्दी से निकलने के चक्कर में मेरा मोटर साइकिल हल्का सा सामने खड़ी एक्टिवा जिसे एक लड़की चला रही थी, उसे लग गया. यकीनन, में खुद को कोस रहा था भाई, घर से थोड़ा जल्दी नहीं निकल सकते, अब तेरा क्या होगा, इतनी भीड़ जो की ट्रैफिक सिंगल पर खड़ी हैं, इस लड़की के जज्बातों की कदर करते हुये, तुझे मक्की के भुट्टे की तरह मारेगी.खैर, ग़नीमत रही की, थोड़ा सा नजरों से मुझे कोस कर, एक्टिवा की चालक आगे चल दी, और में पीछे, लेकिन रास्ते की कनी काटकर, दूसरे रास्ते से चलने में ही मैने मेरी ग़नीमत समझी. ऑफ़िस, आकर सोचने लगा, “क्या होता, अगर उस लड़की ने मुझे, भला बुरा कह दिया होता ? क्या होता, अगर २-३, और लोग आकर, मुझे भला बुरा कहते , तो में क्या कर सकता था ?”, अल्प स्ख्यंक होने के नाते, यहाँ में जोर-जोर से बोलने का अधिकार नहीं रखता और ना ही मुझे, यहाँ किसी बहस का अधिकार होता, मुझे बस सौरी कहकर ही निकलना पड़ता. इसी दौरान, मूक दर्शक बनी, भीड़ भी मेरे बारे में एक राय बना चुकी होती की, ये मैने जानबूझकर किया हैं और यहाँ से भी मुझे, हमदर्दी मिलने के आसार कम ही थे. शायद, आप का ये तर्क होगा की, अगर कोई बहुस्ख्यंक समुदाय से लड़का होता तो भी, उसी से इस तरह का बर्ताव किया जाता, लेकिन इस मामले में, मूक दर्शक खड़ी भीड़ दो राय बनाती की गलती एक्टिवा चालक की हैं या मोटर साइकिल वाले लड़के की, यहाँ लड़के को जोर-जोर से बोलने का भी अधिकार होता, वह अपना पक्ष भी रख लेता  और भीड़ भी उस पर अचानक नहीं टूट पड़ती. लेकिन एक अल्पसख्यंक होने के नाते, अक्सर मुझे अच्छा-अच्छा रहना पड़ता हैं. शायद आप मेरी बात से सहमत ना हो, तो अनुभव कीजिये की अगर आप २-३ दिन सरदार जी वाली पगड़ी पहन कर थोड़ा सा बाजार घूम ले, तो हो सकता हैं की आप के विचार बदल जाये.

मुझे, मेरे लिबास और मेरी शान, सरदार जी की पगड़ी पर बहुत नाज हैं, हमारा इतिहास भी गौरव मयी हैं, इसी के तहत जब भी बाहर जाता हु, मुझे हर पल, अपने आप को क़ाबू करके अच्छी तरह से पेश आना होता हैं, में किसी से हाथा पायी नहीं कर सकता, अगर कही भी मेरी पगड़ी को या चेहरे के बाल को, किसी भी तरह से नुकसान हुआ तो, ये मेरे धार्मिक और व्यक्तिगत जज्बातों का कत्ल होगा, यहाँ, मुझे अक्सर सौरी कहकर या थैंक्यू कहकर, चलते रहना होता हैं, इसी अच्छा होने के चक्कर में या यु कहूं की किसी भी लड़ाई / बहस से बचने के लिये एक आम चहक जिंदगी से दूरी बनाये रखता हु मसलन मैं सिनेमा का शोकिन सिनेमा में किसी संवाद पर सिटी नहीं मार सकता, खुली सडक पर नाचने का मन करे तो नहीं नाच सकता, में लाइन में खड़ा हु और अगर कोई आकर ये कहैं की उसे यहाँ खड़ा होने दे (साथ में, प्लीज जोड़ दिया हैं या नहीं) तो में मना नहीं कर सकता, ये आम सी बात हैं की हर सार्वजनिक जगह पर में एक सामान्य व्यक्ति होने का अधिकार खो देता हु. मसलन, अगर हम चार मित्र किसी राजनीति या देश के हित पर चर्चा कर रहे हैं, तो मुझे उनकी हाँ में हाँ मिलानी पड़ती हैं, में अपनी अलग राय रखने का हकदार नहीं गिना जाता, अगर कहूंगा भी, तो कितना सुना जाऊँगा ? अगर सुना भी गया तो, क्या ये मेरे शब्दों या राय को इमानदारी से समझा जायेगा या एक सहानुभूति होगी की मुझे मेरी राय रखने का मौका, बहुसख्यंक मित्रों ने दिया हैं ? शायद, सहानुभूति ज्यादा होगी. इसका उदाहरण भी देता हु, समय-समय पर राजनीतिक दल या किसी और व्यवसाय के मोहरी ये कहते रहते हैं की सिख देश-भक्त हैं, इत्यादि. क्या इस तरह से, सिख समाज की तारीफ़ करना, समाज में हमें अल्पसख्यंक होने का मान देता हैं ? इस तरह की तारीफ़, कभी भी बहुस्ख्यंक समाज की नहीं की जाती, क्युकी बहुस्ख्यंक समाज देश भक्त हैं, ये सच हैं और जिस सच पर कोई शक ना हो, उसे सार्वजनिक रूप से कहने की जरूरत नहीं होती.

में पुलिस और अदालत में जाने से अक्सर डरता रहता हु, सोचिये की कही किसी जगह पर मेरा एनकाउंटर करके मार दिया गया और मुझे किसी देश द्रोही अपराध के तहत आतंकवादी कह दिया गया, तो कितनी खबरों में सच छपेगा ? कितने लोग मुझे, आतंकवादी ना समझकर, एक भारतीय होने के नाते, इस एनकाउंटर की जांच की मांग सडक पर आकर करेंगे. कुछ इसी तरह १९९१, उत्तर प्रदेश के पिलीभीत में राज्यपुलिस ने १० सिख का एनकाउंटर किया था जिसका इंसाफ २५ साल के बाद, एक लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद मिला हैं. यहाँ मेरा सवाल हैं की कितने लोकल लोग या नागरिक इंसाफ की मुहिम में, इन पीड़ित परिवारों के साथ खड़े हुये थे  ? १९८४, के सिख कत्ले आम के बाद, कितने आम नागरिक सडक पर आये और गुन्हैगारो को कानून के अधीन सजा देने का प्रावधान किया, शायद कोई नहीं. यहाँ, ३१ अक्टूबर या १ नवम्बर को, पत्रकार या टीवी न्यूज चैनल, दंगे पर एक छोटी सी रिपोर्ट दिखा देती हैं लेकिन यहाँ सहानुभूति से ज्यादा और कुछ नहीं होता. सार्वजनिक रूप से १९८४ के दंगे को, भुला देना ही एक वजह हैं जिसके कारण आज भी इन दंगो के दोषियों को सजा मिलने में देरी की जा रही हैं. यकीन मानिये, इन दंगो में कुछ ३-५ हजार लोगो का कत्ल हुआ था लेकिन जो जिंदा लाश बनकर आज अपनी जिंदगी बतीत कर रहे हैं, उनकी गिनती कही भी दर्ज नहीं हो सकती.


मेरा एक सवाल ज़रुर हैं, की आतंकवादी या देश द्रोही कोई अल्प स्ख्यंक ही क्यों होता हैं ? क्यों एनकाउंटर भी एक अल्पसख्यंक का ही होता हैं ? इसी के तहत, में ब्लू स्टार ऑपरेशन पर अपनी राय रखने का अधिकार खो देता हु, यहाँ भी कहा जाता हैं की उस समय, गुरुद्वारे में आतंकवादी घुसे हुये थे और आर्मी ऑपरेशन जरूरी था. क्या ये आतंकवादी, इसी देश में पैदा नहीं हुये थे ? क्या, राशन-पानी-बिजली की सप्लाई बंद करके इन्हें बाहर आने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता था ? व्यक्तिगत रूप से में सोचता हु, की अगर उस समय में भी गुरुद्वारे के भीतर होता तो, मुझे भी आतंकवादी कहकर मार दिया जाता. ख़ैर, आतंकवादी, इस नाम से में कई बार ८०-९० के दशक में पुकारा जा चूका हु, लेकिन आजकल लोग पाजी कहकर बुलाते हैं, तो अच्छा लगता हैं, लेकिन पंजाब राज्य चुनाव में मोड़ मडी में एक बम धमाके ने मुझे फिर व्यक्तिगत रूप से भय का इजहार करवा दिया हैं, सोचिये अगर खुदा ना खास्ता, कुछ ऐसे ३-४ और बम ब्लास्ट हो गये जिसमें ना चाह कर भी कुछ परदेशी मजदूरों की हत्या हो गयी, तो मेरा आतंकवादी के रूप में, मेरा नामकरण होने में कितना समय लगेगा ? व्यक्तिगत रूप से मेरा ये मानना हैं, की हमारे देश का संविधान तो सभी नागरिको को एक समान होने का अधिकार देता हैं लेकिन हकीकत में जितनी सामाजिक सुरक्षा बहूस्ख्यंक समाज को हैं उतनी मुझे एक अल्पसख्यंक समाज के नागरिक के रूप में नहीं हैं, अगर आप मेरे विचारों से सहमत नहीं हैं, तो २-३ दिन सरदार जी बनकर समाज में घूम आइये, खासकर तब, जब पंजाब मैं कोई बम फटा हो. धन्यवाद.

No comments:

Post a Comment