फिल्म किसी भी देश या समाज की मानसिकता को
दिखाती हैं उसमे हमारा बोलीवूड तो फिल्म निर्माण एक अग्रसर नाम बन गया हैं. लेकिन
आज भी जब इसके भव्य फिल्म सेट को देखता हु जहां फिल्म की शूटिंग की जा रही हैं तो
लगता नही की भारत में कोई गरीब हैं. इसकी मानसिकता के अनुसार एक मध्यम वर्गी
भारतीय परिवार कुछ बड़े से घर में रहता हैं, मॉडर्न कपडे पहनता हैं, गाडी अच्छी होती हैं, घूमने भी जाता हैं, यानिके सारे शोक अमीरों वाले उस पर भी अगर कोई मानसिक रूप से बीमार हैं तो बड़ा
बिजनेसमैन होगा या फिर कोई बड़े घर का इकलौता या लाडला बेटा या बेटी, यहाँ पर कही भी उस मध्यम वर्गी या गरीब की निराशा का वर्णन नही होता जिसे
मानसिक तकलीफ के चलते लोग पागल तक कह देते हैं यकीन नही आता अरे भाई में ही हु
जिसे हर किसी ने पागल कहा था लेकिन उस समय किसी ने ये सवाल नही किया की में इतना
निराश क्यों हु ?
किसी ने हौसला नही दिया ? किसी ने जीवन की राह नही बताई ? बस हर कोई शब्दों के बाण से जख़्म दे रहा था या
इन्हें खरोंच रहा था.
साल २०००, पड़ाई पूरी होने के बाद
लगी पहली जॉब छोड़ दी थी, और अगली जॉब जो जान पहचान से लगी थी वहा मुझे
एक बार इस कदर डाटा गया, वह भी सब के बीच में की आत्म विश्वास की धजिया
उड़ गयी थी. जैसे तैसे वह दिन पूरा किया, थोड़ा सँभला लेकिन फिर
धीरे धीरे जॉब पर जाना बंद कर दिया. अब कोई काम नही था मेरे पास. घर, ये कुछ १०० स्क्वायर फिट का होगा, अगर कमरों की बात करे तो ७० स्क्वायर फ़िट के
क्षेत्र में होंगे. इससे ज्यादा नही, मसलन अगर आप को रात को टीवी देखना हैं तो आवाज
म्यूट होनी चाहिये अन्यथा दूसरे रूम में कोई सो नही पायेगा. यानिकी, कुछ कदमों पर दीवार और फिर कुछ कदमों पर दीवार, यही था घर. और अब इस घर
के अंदर में था. बाहर जाने से डर लगता था और अब किसी से में आख मिलाकर बात नही कर
सकता था. मुझे नही पता की में कितनी बार रोया था, बस आवाज कोई सून ना ले
इसलिये मुँह में हाथ देकर आवाज को चुप करवा देता था. दो तीन बार ख़ुदकुशी करने का
भी मन बनाया था. लेकिन फिर ज़ेहन में मेरी माँ की तस्वीर दिख जाती थी, जिस के कठिन जीवन ने मुझे एक राजकुमार की तरह
पाला था. लेकिन ये उम्मीद किसी और बाहरी से अमूमन नही की जा सकती, कुछ दिन और फिर महीनों के बाद ये सार्वजनिक हो चूका था की उनका बेटा जो की कुछ
किताबे पड़ गया हैं आज बेरोजगार होने के कारण अपना मानसिक संतुलन खो चूका हैं. साफ़
साफ़ शब्दों में कंहू तो पागल हो चूका हैं. जो दोस्त थे वह भी रास्ता कतराने लगे थे
और जिनसे थोड़ी सी खटकती थी उनकी आखो की चमक ही अब लाजवाब हो चुकी थी. अगर में बाहर
गेट पर खड़ा हु तभी लोग हस्ते हुये मुझे देखते हुये जाते थे. लोगों ने हमारे घर आना
बंद कर दिया था. और मैने किसी सार्वजनिक जगह पर जाना.
घर से दबाव पड़ना शुरू हुआ कुछ डॉक्टर को भी
मुझे दिखाया गया लेकिन सब का यही कहना था की सब कुछ ठीक हैं, ये सब डॉक्टर शारीरिक रोग के ऐक्सपर्ट थे. फिर बात पोह्ची ज्योतिषी तक, राहु और केतु सब कुंडलि में घूम रहे थे पता चला की नाग जी का दोष हैं तो सबसे
पहले हाथ में एक सफेद और एक काला नग को जड्वाकर दो अँगुठी बनाई गयी जिसे एक हाथ
में पहना दिया गया और कहा ये गया की गुस्सा नही आयेगा और सफलता चरण चूमेगी. और इसी
के तहत एक दिन नर्मदा के किनारे एक पूजा भी करवाई गयी. में ये सब मूक बन कर देख
रहा था, यहाँ में अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से कहने और सुनने की
आजादी खो चूका था,
मेरा कोई भी तर्क अब किसी के लिये कोई मोल नही
रखता था. अगर कहूं की सुबह की चाय, दुपहर और शाम का खाना और फिर एक लाश की तरह सो
जाना यही जिंदगी थी तो गलत ना होगा. मसलन एक चलती फिरती लाश.
यहाँ कुछ में परेशान था और कुछ ज्यादा ही लोगो
के केंद्र में आने के कारण और ज्यादा परेशान कर दिया गया था. यहाँ सब अपनी अपनी
बुद्धिमानी का परिचय देते थे और कुछ ना कुछ सलाह अक्सर दी जाती थी. और अब दबा हुआ
आत्म विश्वास गले के भीतर अपना नाच कर रहा था, ये मचल रहा था की में भी
ज़ुबान से बयान हो जाऊ, में अपनी मौजूदगी का एहसास करवाऊ. और परम ज्ञान
भी कही भीतर से ही आया, पहले सब रिश्ते जो सहानुभूति देते थे उन से
मुँह मोड़ लिया और सबसे कठिन फैसला, माँ से मुंह मोड़ना था जो मना कर रही थी की हाथ
में पहनी हुई ज्योतिष की अंगूठी नही उतारनी हैं. यहाँ मुझे दुनिया से लड़ना था और
इसके लिये मेरे पास खोने को कुछ नही होना चाहिये फिर वह चाहे पारिवारिक प्रतिष्ठा
ही क्यों ना हो. इसी के अंतर्गत खुद को हर सहानुभूति से अलग कर लिया. और ज्योतिष
महाराज की दी हुई अँगुठी, हाथ से उतार कर कही दूर सडक पर इस तरह फैक दी, की कोई इन्हें फिर से खोज कर मुझे पहनाने की कोशिश ना करे. अब मेरे हाथ किसी रोजगार को मचल रहे थी, इतना कायम नही था की जॉब कर सकू, साल २००३, मई का महीना, घर पर एक गाडी खरीदी गयी टाटा सूमो, और में उसका ड्राइवर था.
कुछ २००४ अगस्त तक इसे इस तरह चलाया की एक
हाथ गीयर पर और एक हाथ इसके स्टेरिंग पर, इस तरह चलते थे की आत्म
विश्वास अपनी लो दे रहा था जिस के तहत जीवन की निराशा का जलना लाजमी था. फिर
जिंदगी ख़ूबसूरत लग रही थी. मेरी आख में भी चमक थी और ज़ेहन में किसी मंजिल को
फ़तेह करने का इरादा था.
जीवन का ये ज्ञान इतना महत्वपूर्ण था की इसका
एक ही सारांश निकल सका, बोलने की झिझक, अपने आप को अपनी ही बनाई
हुई छवि में कैद कर लेना. लेकिन जब इस छवि को तोड़ दिया और बोलने की झिझक सब खत्म
हो गयी तब यही दुनिया सलाम कर रही थी. लेकिन आज भी एक मध्यम वर्गी भारतीय परिवार
मानसिक परेशानी को समझ नही सकता ये आज भी किसी ना किसी ज्योतिष से कुंडली दिखावा
रहा होता हैं. और हो भी क्यों ना, हमारा समाज मानसिक तनाव को नही समझ सकता और ना
ही हमारी फिल्म. इसके चलते कुछ दुखद परिणाम भी हो सकते हैं. लेकिन अपने व्यक्तिगत
अनुभव से कहना चाहता हु की इस तरह किसी मानसिक परेशान व्यक्ति को कोई नाम ना दे और
ना ही उसकी कोई छवि बनाये, आप उस से बात करे, आप की थोड़ी सी हल्ला शेरी उसके लिये बहुत मायने रखती हैं. और उसी तरह उसकी बात
को भी सुने और समझे भी, किसी भी तरह से इस तरह के किसी भी व्यक्ति को
नजर अंदाज ना करे,
usai और उसकी मानसिक परेशानी को अपनाये, ये सब से बड़ी दवाई का काम करता हैं. और यही एक मर्ज हैं किसी भी मानसिक
परेशानी को हल करने का. जय हिंद.
No comments:
Post a Comment