मोदी सरकार सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव हैं लेकिन ये उस आवाज को सुनने से मना कर देती हैं जिसने व्यवस्था से शिकायत की हो.



मोदी सरकार सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहती हैं, मोदी जी द्वारा किया गया एक ट्वीट उनके मंत्री मंडल के मंत्रियों द्वारा और भी नागरिक इसे सरहाने के साथ साथ आगे भी शेयर करते हैं, इसी के तहत हमारी देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी, अक्सर उनके सराहनीय सहयोग के तहत खबरों में बनी रहती हैं मसलन दुबई में किसीभारतीय की मदद करना या कनाडा में भारतीय राष्ट्रध्वज की अवमानना के चलते अमजोंन को लताडना ही क्यों ना हो. खासकर मोदी सरकार और उनकी सहयोगी, नोट्बंदी के चलते, भारत को डिजिटल बनाने के लिये अक्सर क़यास भी कर रहे हैं और इस पर भारतीय नागरिक को उत्साहित भी कर रहे हैं. आज डिजिटल मीडिया, इंटरनेट और ४ जी मोबाइल नेटवर्क के चलते दुनिया बहुत छोटी हो गयी हैं, खासकर सोशल मीडिया पर लोग इस तरह जुड़ गये हैं की हर एक आम व्यक्तिगत परेशानी, खबर खास बन जाती हैं. और इसी के तहत हम व्यवस्था से भी जुड़ सकते हैं. लेकिन ये माध्यम सरकार के साथ सहयोग, जुडने के तहत तो ठीक हैं लेकिन कही इसी के माध्यम से व्यवस्था पर सवाल किया गया तो क्या भारत का डिजिटल बनना व्यवस्था को या सरकार को क़बूल होगा ? हाल ही में एक जवान ने इसी सोशल मीडिया के तहत, उन्हें दिये जाने वाले खाने पर सवाल उठाने के साथ साथ विडियो में वह कम गुणवता का खाना भी दिखाया, ये विडियो वायरल भी हुआ, जानी मानी हस्तियों ने इस पर अपना सहयोग भी दिया लेकिन कही भी व्यवस्था से इस जवान को कोई उम्मीद नहीं दिखाई गयी लेकिन इसकाट्रांसफ़र ज़रुर कर दिया गया. तो क्या समझा जाये की सोशल मीडिया के तहत भारतीय सरकार, भारतीय नागरिक से एक तरफा संवाद कर रही हैं. अगर कुछ इमानदारी से प्रयास किये जाये तो सोशल मीडिया के तहत सरकार से संवाद की आजादी एक ख़ूबसूरत भारत की छवि बना सकता हैं.

२००८, में भारत के एक राज्य से मेरी बाइक चोरी हो गयी थी, और वहा भी आम सी दिखने वाली भयंकर वर्दी ने फ़र्स्ट इनफ्रामेंशन ऑफ़ रिपोर्ट यानी की FIR लिखने में बहुत आना कानी की, कभी किसी पुलिस स्टेशन में भेज देते थे तो कभी किसी पुलिस चोकी पर, एक आम सा दिखने वाला मेरी तरह एक आम नागरिक, यहाँ पुलिस से सवाल नहीं कर सकता की क्यों मेरी FIR नहीं लिखी जा रही, संविधान मुझे इसकी इजाजत देता हैं. वास्तव में अगर FIR लिख ली जाये तो पुलिस की जवाबदेही बनती हैं, और इसे अदालत में जवाब देना पड़ता हैं. हर पुलिस स्टेशन के लिये अदालत में एक जज की नियुक्ति होती हैं जो उस पुलिस स्टेशन में रजिस्टर होने वाली FIR को कानून की नजर से देखता हैं. (मैने, अपने व्यक्तिगत अनुभव से यही देखा हैं.). लेकिन मेरी FIR नहीं लिखी जा रही थी, बाइक चोरी होना मतलब, उसका इंजन और चैसी नंबर चोरी होना, जो की बाइक के पंजीकृत होने के साथ साथ लिखे जाते हैं. अमूमन, आतंकवादी, चोरी की गयी बाइक से ही आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं. मसलन, बाइक मेरी चोरी हुई, FIR लिखी नहीं जा रही, और अगर ये किसी गैर क़ानूनी कारवाही में पकड़ ली गयी तो जवाबदेही मेरी होगी. लेकिन, मेरा कंप्यूटर और इंटरनेट में अनुभव होने से, मुझको इसका बहुत फायदा हुआ, मेंने उस समय पुलिस के उच्च अधिकारियों को और भी सम्मानित व्यक्तियों को ईमेल के जरिये, इसकी सुचना दी. और इसी के तहत मेरी FIR लिखी गयी, लेकिन आज भी जब भारत को भारत की सरकार डिजिटल करने की होड़ में लगी हैं तब मुझे ऐसी कोई अप्प, वेब साइट या सोशल मीडिया का माध्यम नजर नही आता जहा इस तरह से कोई आम भारतीय व्यवस्था से अपनी शिकायत कर सके. अगर, वास्तव में ऐसा कोई माध्यम बना दिया जाये तो कितने अपराध पंजीकृत होंगे, कही ज्यादा, और हो सकता हैं इसी के तहत हमारी व्यवस्था के बेहतरीन होने की छवि भी दागदार हो जाये.

आज भी, हमारे समाज में एक महिला और बच्चो की सुरक्षा कही दयनीय हैं, ज्यादातर अपराध घर की चार दिवारी में या किसी नजदीकी के द्वारा ही किये गये होते हैं, उस पर ह्यूमन ट्रैफिकइंग का अपराध कही बड़ा हैं, शायद इसकी रूप रेखा अभी तक उस नजर में नहीं आयी जिस के तहत ये पिछडे हुये राज्य, प्रांत, कसबे, गांव में एक भयभीत करने वाला रूप ले चूका हैं, आज भी सरकारी आकड़े कहते हैं की ये अपराध आये दिन बढते जा रहे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई ऐसा उपाय नहीं दिख रहा जिस के तहत व्यवस्था द्वारा इस मामले पर कोई पहल इमानदारी से पहल की गयी हो बस कुछ दिये हुये बयान या इस पर कुछ हुई मीटिंग, सोचिये अगर एक मोबिअल अप्प, वेब साइट या किसी भी तरह से इंटरनेट के माध्यम से भारतीय नागरिक हमारी सरकार से जुड़ सके या अपना संवाद कर सके, तो ये मामले कितने कम हो सकते हैं. मसलन, अगर एक मोबाइल अप्प हो जिस से आप किसी लावारिस से दिखने वाले बच्चे की तस्वीर लेकर सरकार या व्यवस्था को भेज सके और सरकार के पास खोये हुये बच्चो का पूरा डाटा हो, तो इस तरह के कितने अपराध को सुलझाया जा सकता हैं. यहाँ, सोच की इमानदारी पर सवाल  हैं आधार कार्ड का डाटा रिलायंस को जिओ का कनेक्शन देने के लिये दिया जा सकता हैं लेकिन यही डाटा किसी और अपराध को सुलझाने में उपयोग क्यों नही किया जा सकता.


सोशल मीडिया और इंटरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया हैं जो की एक आम इंसान की पोहच के भीतर हैं और इस से कई सराहनीय सामाजिक कार्य किये जा सकते हैं जिस के तहत होने वाले अपराध कम भी किये जा सकते हैं साथ ही साथ इसी की रूप रेखा में संविधान में लिखे गये सच को भी जमीन पर जीवित किया जा सकता हैं जो हर नागरिक को समान अधिकार देता हैं. लेकिन इसके लिये, ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत हैं, हमारी सरकार जो की काले धन पर इतनी संगीन हैं, नोट बंदी कर सकती हैं और भारत को डिजिटल करने की होड़ में लगी हैं, वह इस तरह का प्रयास की जानकारी नहीं रखती हैं की इंटरनेट या सोशल मीडिया से किस तरह अपराध में कमी लायी जा सकती हैं, ये कहना थोड़ा सा बेईमानी होगा लेकिन क्यों नहीं कर रही ? ये एक सवाल करके, यहाँ पर में अपनी बात को खत्म करता हु. धन्यवाद.

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