अब्दुल लतीफ, गुजरात का पहला डॉन, पहला अपराधी जिसने ऐके ४७ का प्रयोग किया और पहला अपराधी जिसका एनकाउंटर गुजरात पुलिस ने किया, और ये भी एक वजह था गुजरात के २००२ दंगो का, जिसमें मुस्लिम समाज को भारी नुकसान उठाना पड़ा था.



कहा ये जाता हैं की खुद दाऊद ने अब्दुल लतीफ के साथ साथ दोस्ती करने की पेशकश की थी और इसी के तहत १९८९ में, इन दोनों के बीच दुबई मेंमुलाकात हुई और तय ये हुआ की, अब ये दोनों गैंग एक दूसरे के साथ मिलकर काम करेंगे, इसी बीच लतीफ के कहने पर १९९२ में हंसराज त्रिवेदी के साथ और ८ लोगो का कत्ल, १९९३ का मुंबई ब्लास्ट और इसमें दाउद के हाथ होने के सबूत मिलना, इसी बीच १९९५ में भारतीय जनता पार्टी की स्वतंत्र राज्य सरकार के रूप में गुजरात में स्थापित होना. यहाँ उस समय केशु भाई मुख्य मंत्री थे और शंकर सिंह वाघेला, को दर किनार कर दिया गया था. नरेंद्र भाई मोदी को राज्य सरकार की चुनावी इकाई से हटाकर देल्ही की सक्रिय राजनीति में शुमार कर लिया गया था. समय बदल रहा था, और इसी बदल रहे समय में, अब्दुल लतीफ का पतन होना लाजमी था.

दाउद, की दोस्ती के चलते, १९९३ के मुंबई ब्लास्ट के बाद, अब्दुल लतीफ को भी भारत छोड़ना पड़ा था, अगस्त १९९३ से दिसम्बर १९९४ तक, लतीफ कराची में दाऊद के साथ रहा और इन दोनों की लगभग हर रोज मुलाकात होती थीलतीफ ने ही गिरफ्तार होने के बाद भारतीय गुप्तचर एजेंसी को बताया था की १९९३ के ब्लास्ट के बाद दाउद, को बहुत से लोगो ने बधाई संदेश भेजे थे. लेकिन, अब्दुल लतीफ को पाकिस्तान रास नहीं आया, और वह देल्ही में आकर छुप कर एक आम इंसान की तरह रहने लगा. इसी बीच, १९९५ में गुजरात राज्य सरकार ने लतीफ को पकड़ने की कोशिश ईमानदारी से शुरू कर दी थी, इस नई सरकार के रूप में भारतीय जनता पार्टी, लतीफ को किसी भी हाल में पकड़ कर सलाखों के पीछे भेजना चाहती थी. गुप्तचर एजेंसी अपना काम कर रही थी और भारतीय जनता पार्टी की राज्य इकाई में अंदरुनी खींचा तान बढ़ती जा रही थी, शकर सिंह वाघेला का असंतोष मुख्य मंत्री केशु भाई पटेल के खिलाफ उग्र रूप ले रहा था.

गुप्तचर एजेंसी लतीफ की खोज में फोन रिकॉर्ड को खंगाल रही थी, उन सभी लोगो के फ़ोन रिकॉर्ड किये जा रहे थे जो किसी ना किसी प्रकार से अब्दुल लतीफ से जुड़े हुये थे. इसी बीच, देल्ही के एक एस-टीडी बूथ की पहचान हुई जहाँ से तकरीबन रोज राजस्थान और गुजरात में फोन किये जाते थे. पुलिस द्वारा इस बूथ पर लगातार २ महीने तक नजर रखी गयी. और जब पूरी तरह से पहचान हो गयी, की ये व्यक्ति लतीफ ही हैं तब, गुजरात पुलिस और देल्ही पुलिस ने मिलकर लतीफ को पकड़ने का प्रोग्राम बनाया और समय रात का चुना गया. नवम्बर १९९५ मैं, लतीफ देल्ही से पकड़ा गया, तब उस समय ये जानकारी आ () रही थी, की लतीफ देल्ही में अपनी पत्नी और एक नजदीकी के साथ रह रहा था और पुलिस रेड से भागने के चक्कर में इसे देल्ही पुलिस के एक कांस्टेबल ने दबोच लिया था. अब इसे किस्मत ही कहेगे की एक डॉन की गिरफ्तारी एक आम से दिखने वाले पुलिस कांस्टेबल की मदद से हुई थी.

लतीफ को पकड़ कर गुप्तचर एजेंसी और जानकारी एकत्रित कर रही थी, वही गुजरात राज्य की राजधानी में राजनीति एक नयी करवट ले रही थी. अक्टूबर १९९६ में, शकर सिंह वाघेला ने भारतीय जनता पार्टी की राज्य इकाई को तोड़ कर एक नई पार्टी बनाई जिस का नाम था राष्ट्रीय जनता पार्टी और कांग्रेस की मदद से, गुजरात राज्य के मुख्य मंत्री बन गये. इस समय लतीफ साबरमती जेल में था और शकर सिंह वाघेला गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में सुशोभित थे. लेकिन, साबरमती जेल से भी मोबाइल फोन के तहत अब्दुल लतीफ का आपराधिक दुनिया से पूरी तरह मेल जोल था, यहाँ बैठ कर भी लतीफ लोगो से जबरन वसूली के लिये धमकाता था. और इसी सिलसिले में १० लाख रुपये की मांग सगीर अहमद से की गई जो पेशे से एक बिल्डर थे और उस समय के शंकर सिंह वाघेला के क़रीबी माने जाते थे. सगीर अहमद के ना कहने पर, उनकी हत्या कर दी गयी , कत्ल का आरोप तो अब्दुल वहाब पर था लेकिन कहा ये जाता हैं की ये हत्या अब्दुल लतीफ के कहने पर हुई थी.

किसी भी तरह से अपराध तभी तक समाज में पनप सकता हैं जब तक ये परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सरकारी व्यवस्था को चुनौती ना दे, लेकिन यहाँ अब्दुल लतीफ ने वह दहलीज़ को पार कर दिया था, सगीर अहमद की हत्या के रूप में, सीधे तोर पर उस समय के गुजरात के मुख्य मंत्री श्री शंकर सिंह वाघेला पर हमला किया था. कहा ये जाता हैं, की जब श्री शकर सिंह वाघेला, सगीर अहमद के घर दुःख को प्रकट करने गये थे, तभी उन्होने ये सकेंत सगीर अहमद के परिवार को दे दिये थे की उन्हें न्याय जल्दी दिलाया जायेगा.

सगीर अहमद की हत्या के थोड़े दिनों बाद, नवम्बर १९९७ में अब्दुल लतीफ अब्दुल वहाब शैख़ उर्फ लतीफ के एनकाउंटर में मारे जाने की खबर आयी, पुलिस के बयान के मुताबिक लतीफ को सगीर अहमद की हत्या की पूछ ताछ के सिलसिले में लतीफ को सगीर अहमद की हत्या वाले स्थान पर लेकर जा रही थी, तभी अचानक से लतीफ़ ने भागने की कोशिश की और जवाबीकार्यवाही में लतीफ मारा गया, अब यहाँ ये सवाल दरकिनार थे की क्या उस समय, लतीफ के पास हथियार था जो उस पर पुलिस फायरिंग की गयी ? क्या गोली पैर मैं नहीं मारी जा सकती थी ? क्यों उस समय, लतीफ जो कड़ीयो से बांधकर नहीं रखा गया ? ख़ैर, ये सवाल यहाँ नामोजुद थे, सगीर अहमद के परिवार को न्याय मिल गया था. याद रखिये, श्री शंकर सिंह वाघेला को, गुजराती भाषा में बापूकहा जाता हैं, इसका अर्थ, गांधी जी वाले बापूसे बिलकुल विपरीत मतलब दबंगहोता हैं. तो लतीफ, के रूप में, गुजरात ने पहला डॉन भी देखा, एक ४७ का नाम भी सुना और लतीफ के रूप में ही, गुजरात पुलिस द्वारा पहला एनकाउंटर भी  किया गया.

यहाँ लतीफ, का जिस्मानी रूप से कत्ल हुआ था लेकिन उसकी दहशत, उसके बाद भी मौजूद थी, खास कर एक मुस्लिम ताक़तवर, अपराधी और गैर मुस्लिम को डराने के रूप मैं, इस का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता हैं, की लतीफ की गिरफ्तारी के बाद कई हिंदू बहुसंख्यक विस्तार में फटाके फोडे गये थे., इस बात के भी संकेत मिलते हैं की लतीफ हिंदू मुस्लिम दंगो को कर वाने में अहम रोल निभाता था, और उस से जुड़े हुये लोग कही ना कही हिंदू व्यक्ति को दंगो के दौरान शारीरिक हानि पोहचातै थे. खैर, १९९७  के अक्टूबर में शंकर सिंह वाघेला, अपना बहुमत साबित नहीं कर सके और उन्हें मुख्य मंत्री की कुर्सी छोडनी पड़ी लेकिन उन्हीं के पार्टी के श्री दिलीप पारीख मुख्यमंत्री बने और अभी भी सक्ता श्री वाघेला जी के पास ही थी लेकिन मार्च १९९८ में श्री वाघेला की पार्टी को सक्ता छोडनी पड़ी. फिर इलेक्शन हुये, इस बार केशु भाई फिर से मुख्य मंत्री बने. २००१ में भूकंप ने गुजरात को भी हिलाया और इसकी राजनीति को भी, उसके बाद श्री नरेन्द्र मोदी जी, गुजरात के मुख्यमंत्री बने, २००२ में साबरमती ट्रेन के कोच में आग लगाने के बाद, पूरे गुजरात में दंगे फैल गये और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव अहमदाबाद में दिखा, यहाँ वह विस्तार भी क्षतिग्रस्त हुये जहां मुस्लिम बहु आबादी थी और जहां लतीफ़ के डर से लोग जाया नहीं करते थे, मेरा यहाँ व्यक्तिगत मानना हैं की इन दंगो में हम सरकारी कार्य शेली पर सवाल उठा सकते हैं लेकिन जो डर लतीफ के रूप में लोगो के मन में घर कर गया था, वह भी, इन दंगो के दौरान सडक पर था. यहाँ पर शायद, लतीफ ने मुस्लिम समाज की मदद अपने स्वार्थ राजनीतिक स्वार्थ या इसी समाज को अपनी एक ढाल बनाने के लिये की हो सकती हैं, लेकिन इसी मदद ने नफरत के रूप मैं, कही ज्यादा नुकसान मुस्लिम समाज का किया हैं.


सारांश के रूप में यही लिखूंगा की एक नागरिक, समाज और समुदाय के रूप में हमें देखना होगा की कोई हमारे जज्बातों को इस्तेमाल कही अपने किसी निजी फायदे के लिये तो नहीं कर रहा अगर हैं तो इसका परिणाम हमें ही भूकतना होगा, उससे पहले, इस तरह के अपराधी लोगो से समाज और समुदाय का नाम ना जोड़े, उसी में आज एक सबक हैं. धन्यवाद.

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