सौफ्टवेअर कंपनी हैं तो राजनीति तो होगी ही ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans



आज कुछ १२ सालो से सौफ्टवेअर एन्गेनिरिंग के व्यवसाय से जुड़ा हु और इसी के अंतर्गत कई कंपनियों में काम कर चूका हु. आज भी कर रहा हु और ना चाहते हुये भी भविष्य में भी इसी से जुड़ा रहूंगा. इसी के माध्यम से जब जब में जॉब को चेंज करता हु अमूमन हर जगह कुछ एक जैसा ही माहौल मिलता हैं, बड़ी ही ताज़गी से आप का स्वागत किया जाता हैं, ये सिलसिला 1-२ दिन युही चलता हैं. फिर गुड मोर्निंग और गुड नाइट तक सीमित रह जाता हैं लेकिन कुछ 1-२ हफ्तों के बाद ये सारे चेहरे अनजान से बन जाते हैं. परेशानिया चेहरे पर दिख रही होती हैं, केबिन के अंदर हो रही मीटिंग में एक दूसरे पर रशा कशी की जा रही होती हैं. और बाहर आकर यही सुनाई देता हैं, “फलाना पोलिटिक्स कर रहा हैं. ये लोग इस ग्रुप के हैं. इस से सावधान रहना, ये बॉस का चमचा हैं. सब कुछ अंदर जाकर हग आता हैं.यहाँ सिगरेट पीते हुये गाली भी इंग्लिश में दी जाती हैं व्हाट अ फ़क इस दिश ?”. में कही भी यहाँ खुद को निर्दोष नहीं मान रहा हु और ना ही इस तरह की कोशिश हैं, हम भी पाक नहीं हैं, कई बार इस गंगा में डुबकी लगा चुके हैं. लेकिन ये हकीकत हैं की ऑफ़िस में राजनीति की जाती हैं और इसकी वजह से आप की जिंदगी घर पर भी परेशान रहती हैं. यहाँ व्यक्ति विशेष ना होकर उस मानसिकता को समझने की जरूरत हैं जो ऑफ़िस में राजनीति को जन्म देती हैं. और इसके लिये कई पैह्लुयो को समझने की जरूरत हैं.

सबसे पहले यहाँ बात शिक्षा की करे जिसे इस व्यवसाय में नींव का काम करना चाहिये वह कही मौजूद नहीं हैं अगर हैं भी तो एक आम विद्यार्थी उसकी पोहच से बाहर हैं. अगर में अपना व्यक्तिगत उदाहरण दू तो मैने बी.एस.सी. फिजिक्स सांइंस में की हैं और उसके बाद 1 साल का कोर्स कर, लुढ़काते लुढ़काते इस व्यवसाय में पोहच ही गया. अब मेरी वह १५ सालों की शिक्षा किस काम की जिसमें बस सिर्फ निपूर्ण ही हुआ था. उसी तरह आज जगह जगह सौफ्टवेअर इंजीनियर के कॉलेज तो कई खोल लिये गये हैं लेकिन उनमे पड़ाई सालो पुरानी ही होती हैं मसलन आज भी कई कॉलेज में विजुअल बेसिक ६.० सिखाया जाता हैं लेकिन वास्तव में इसका उपयोग कही १० साल पहले से आम तोर पर बंद कर दिया गया हैं. ग़ोर करने वाली एक बात और हैं यहाँ की इन कॉलेज में अमूमन प्रोफेसर वही होते हैं जिन्होंने इसी कॉलेज से या किसी और कॉलेज से पास हुये हो और बेरोजगारी के चलते यहाँ कुछ १०-१५ हजार में यहाँ पड़ा रहे होते हैं. तो आप समझ सकते हैं की हालात क्या होंगे ? नोएडा में एचसीएल के वाल्किंग इंटरव्यू में पुलिस लाठी चार्ज होने की खबरें अक्सर आती रहती हैं. सोचिये हमने सौफ्टवेअर इंजीनियर  के रूप में किस भीड़ को जन्म दिया हैं. कुछ मेरी तरह लुढक लुढक कर किसी कंपनी का इंटरव्यू पास कर या कोई जान पहचान लगाकर कही जॉब शुरू कर देंगे लेकिन अभी भी यहाँ उस ज्ञान की कमी हैं जिस की मांग सौफ्टवेअर इंजीनियर की जॉब करती हैं. अब जब मूलभूत ज्ञान की कमी के चलते एक इंजीनियर बन गया तो हर वक्त जॉब खोने का अंदेशा लगा रहता हैं, जॉब इन सिक्योरिटी बनी रहती हैं.

सौफ्टवेअर कंपनियां प्रोजेक्ट पर काम करती हैं, मसलन किसी को कोई सौफ्टवेअर, मोबाइल एप्प या साइट बना नी हैं तो वह सौफ्टवेअर कम्पनी से सम्पर्क करेंगे. अब प्रोजेक्ट कैसे आता हैं उससे जरूरी हैं की इस पर काम कैसे होता हैं. सौफ्टवेअर प्रोजेक्ट के तहत अलग अलग डिपार्टमैंट के लोग प्रोजेक्ट पर काम करते हैं, प्रोजेक्ट मैनेजर, डेवलपर, युआइ डिज़ाइनर, टेस्टिंग करने वाले टेस्टर, इन सबके ऊपर डिलीवरी मैनेजर, उसके ऊपर ऑपरेशन मैनेजर. फिर सबका बड़ा बॉस. लेकिन एक प्रोजेक्ट के लिये यहाँ प्रोजेक्ट मैनेजर की एक अपनी ही धांत होती हैं और इस भारतीय मानसिकता का यही मानना होता हैं की अगर ख़ौफ़ होगा तभी डेवलपर काम करेंगे अन्यथा इन्हें बिगड़ने में देर नही लगती. असलियत में एक प्रोजेक्ट के लिये यहाँ प्रोजेक्ट मैनेजर के साथ साथ डेवलपर और सभी काम करने वाले हाथ , उतने ही मूल्यवान होते हैं. लेकिन आम तोर पर अगर प्रोजेक्ट कामयाब हो गया तो इसकी मलाई प्रोजेक्ट मैनेजर के हिस्से में आती हैं अन्यथा किसी चेहरे की तलाश की जाती हैं की कोन हैं इसका जवाबदार ? बस राजनीति यही से शुरू होती हैं. अगर सब कुछ सही हैं तो हर कोई अपना अपना गुणगान कर रहा होता हैं लेकिन अगर प्रोजेक्ट डूब रहा हो तो सब चेहरा पलट कर खड़े होते हैं और शक होता हैं की कही कोई मुझे देख तो नही रहा ? अगर हाँ, तो उसका ध्यान बटाने के लिये किसी और को मुर्गा बनाया जाता हैं.

यहाँ जो लोग काम करते हैं उन्हें इसके तहत फैसला लेने की आजादी नही होती और ना ही बोलने की, और जो केबिन में बैठ कर फैसला लेते हैं वह कभी दिलचस्पी से प्रोजेक्ट पर काम नही करते लेकिन फैसला लेने का अहंकार और अधिकार इन्ही का होता हैं. इनका भी एक तथ्य हैं, की हम हर जगह मौजूद नही हो सकते लेकिन यहाँ भारतीय मानसिकता अपनी उपस्थिति भी दर्ज करवाना चाहती होती हैं. और जो काम कर रहे होते हैं, उनके लिये बॉस का मतलब हैं कंपनी, अगर बॉस नाराज तो कंपनी भी आप से नाराज हो जायेगी. इसी के तहत ये समय रहते ना बोलने में ही अक्लमंदी समझते हैं, इनका तथ्य होता हैं की एक प्रोजेक्ट जायेगा तो दूसरा मिल जायेगा लेकिन बॉस नाराज हो गया तो समझो जॉब गयी. ये पूरी सभ्यता इंग्लिश की उस कहावत पर काम करती हैं की बॉस इस ऑलवेज राइट”. अब एक और तथ्य, ऑफ़िस में हफ्ते के कम से कम ४०-४५ घंटे एक कर्मचारी बतीत करता हैं. उन्हीं चेहरों को और उन्हीं कुर्सी टेबल से गुज़रता हुआ अपना काम कम्प्यूटर पर करता हैं. बदलाव के बिना जीवन निराशा को तो जन्म देता ही हैं. तो ये निराशा भी कब एक राजनीति को जन्म दे देती हैं.


अगर ऑफ़िस राजनीति का सारांश लिखना हो तो, सौफ्टवेअर कंपनी की मांग को समझना होगा जो समय रहते बदलती रहती हैं लेकिन उसके अनुसार हमारा विकास नही हो पाता या हम असमर्थ होते हैं इस विकास को समझ पाने में ये अपनाने में और सीखने में. तो समय के अनुसर पीछे रह जाते हैं. इसी के तहत जिस पोजीशन पर काम रहे होते हैं उसमे कही अपना आत्म विश्वास नही जगा पाते और हमारी मानसिकता इसे परमात्मा की दया ही समझती हैं ना की हमारी मेहनत और हुनर, और खुद को इतना भाग्यशाली समझते हैं की परमात्मा की दया की लाइन में हमारा नंबर पहला हैं. तो पूरा प्रयास इमानदारी से किया जाता हैं की हमारी पोजीशन हमसे कोई हथिया ना ले. और इसका तिकड़म भी लगाया जाता हैं और सब अपनी अपनी पोजीशन बचाने के चक्कर में ही लगे रहते हैं. अमूमन इस पूरी राजनीति की शुरुआत कंपनी के सर्वोच्च से होती हैं और वह इसे रोक भी सकते हैं लेकिन अनदेखा करने में ही सब की भलाई समझी जाती हैं. अब जिस तरह जंगल में शेर हैं उसी तरह कोन माई का लाल कंपनी के सर्वोच्च से आँख में आँख मिलाकर बोलेगा. अगर बोले तो ऐसा टर्मिनेट लैटर बनाया जाता हैं की कोई किसी कंपनी में आप को जॉब नही देगा. तो आप ना चाहते हुये भी इस राजनीति का हिस्सा बन ही जाते हैं. अगर इस राजनीति से बचना हैं तो में अपने व्यक्तिगत अनुभव से कहना चाहता हु की अपने सौफ्टवेअर के ज्ञान को समय रहते अप डेट करते रहे और इसी के तहत अपना आत्म विश्वास जगाये की अगर एक जॉब चली भी जायेगी तो कही और कोशिश की जा सकती हैं. अपने सीनियर से ज्यादा घुले मिले नही और उसी तरह अपने जूनियर से भी लेकिन उनकी समस्या को सुने और कोशिश करे की आप से वह एक इमानदारी की उम्मीद कर सके. ऑफ़िस में खुद को निराश ना होने दे, अमूमन ऑफ़िस में कम बोले, कुछ ऐसा ना करे की आप की तरफ किसी और का ध्यान केंद्रित हो लेकिन कुछ गिने चुने दोस्त ज़रुर बनाये और उनसे काम के सिवा किसी और मुद्दे पर बात करे. काम करते समय अगर संगीत में दिलचस्पी हैं तो उसे ज़रुर सुने. खुद में हमेशा उम्मीद और आत्म विश्वास रखे. निराशा को दूर करने के लिये लिखते भी रहे. जय हिंद.

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