सरदार जी, एक व्यंग का पात्र, हकीकत में भी, इसे आज एक व्यंग ही समझा जाता हैं.



आज ऑफ़िस में बॉस ने बुलाया, शायद मेरी मानसिकता का परीक्षण लेने के लिये इधर उधर की बातें शुरू कर दी, लेकिन में आदत से मजबूर अति गंभीर मुद्रा में बैठा रहा, बातों बातों में बॉस ने बड़ी ईमानदारी से कह दिया की सरदार जी, सौफ्टवेअर डैवलपमेंट में कम होते हैं, हमने भी यही सोचा था की चलो एक चांस ले लेते हैं.मुझे आज इस ऑफ़िस में पूरा एक साल हो गया हैं और सौफ्टवेअर डैवलपमेंट में १२ साल, इन १२ साल में की गयी जॉब में कही भी अपनी मानसिकता से समझौता नहीं किया गया, जहाँ सच लगा वहा तारीफ़ की गयी और जहाँ गलत था वहा चोट भी मारी हैं. मसलन, १२ साल, अपनी शर्तो पर टिक पाना एक मुश्किल बात हैं. लेकिन में अपने बॉस का भी तहदिल से धन्यवाद करूंगा जिन्होंने इमानदारी से मेरे बारे में उनकी अपनी निजी राय को मेरे साथ साँझा किया. लेकिन अमूमन, जिस जगह  भी में जाता हु नयी जॉब पर या इंटरव्यू देने, सबसे पहले मेरा स्वागत एक अजीब सी मुस्कान से किया जाता हैं, ये कही भी स्वागत वाली मुस्कान नहीं होती, कुछ दिमाग में होता हैं जो मानसिकता बन कर चेहरे पर छलक जाता हैं मसलन संता और बंता के चुटकुले, सरदार जी पर होने वाले व्यंग, इत्यादि जहा सरदार जी एक मजाक का पात्र बना हुआ हैं. और इसी मुद्रा के तहत हकीकत में भी, अपने अनुभव से कह सकता हु की हमारा समाज भी सरदार जी को अति गंभीर नहीं समझता. यहाँ इसकी छवि, चुटकुले वाले सरदार जी के रूप में ही व्याखित की जाती हैं.

 हकीकत हैं की में मेरे पूरे परिवार में दादा-नाना हर तरफ के रिश्ते से, मैं ही हु जो कुछ किताब पड़ गया, लेकिन मेरी पींडी, के एक सरदार जी के रूप में आज पिछड़ा होना, इसका एक कारण और भी हैं जब पंजाब अपने काले दोर से गुजर रहा था, तब १९८४ से लेकर १९९३ तक, पूरी तरह से शिक्षा प्रणाली ठप थी, खासकर पंजाब के गांव तो मानो शुमशान ही थे. और इसी के तहत, आज या तो कोई खेती कर रहा हैं, कोई गैरेज चला रहा हैं, कोई आर्मी में सिपाही भर्ती हो गया, इत्यादि लेकिन कोई अफसर नहीं बन सका या किसी रूप में व्यवस्था से नहीं जुड़ सका. १९९२, के बाद भी कुछ ३-४ साल समाज में हमारी स्थिति दयनीय ही थी लेकिन फिल्म बॉर्डर आने के बाद और दलेर मेहँदी के गीत बोलो ता-रा-रा के आने से, ये कुछ ताकत के साथ साथ नाचने और गाने वालों की छवि बन गयी थी. फिर दोर शुरू हुआ, संता और बंता के चुटकलों का, ये पहले भी थे लेकिन इनकी भरमार अब पूरी तरह से थी. जहा, संता और बंता, हर रिश्ते में फिर वह चाहे पिता का हो, बेटे का हो, पति का हो, एक व्यंग का पात्र हैं, इन्ही चुटकुलों के दौरान संता और बंता, अपने बेटे के फैल होने पर जशन मनाते हैं, शराबी हैं, अपनी पत्नी और दूसरों की पत्नी के चरित्र पर व्यंग करते हैं. ये उस मानसिकता को जन्म देती हैं की कही भी सरदार जी, अपने जीवन, रिश्ते और जीवन की किसी रूप रेखा में कही भी गंभीर नहीं हैं, ये अनपढ़, गवार और जाहिल हैं. ये मानसिकता और भी जटिल हो जाती हैं जब सोशल मीडिया पर या नेट पर किसी ना किसी रूप में संता और बंता को एक पूर्णतः सरदार जी के चरित्र में किसी ना किसी तस्वीर के माध्यम से इनको दिखाया जाता हैं. ये कुछ मेरे ही तरह दिखते हैं. इसकी संज्ञा में, मेरी छवि भी उस एक चरित्र के रूप में उभरती हैं जहा समाज में मुझ पर सिर्फ व्यंग ही किया जा सकता हैं, एक जवाबदेही नागरिक के रूप में, शायद समाज मुझे अपनाने में झिझकता हैं.

अब ये मानसिकता और भी जटिल रूप में उभरती हैं जब किसी सरदार जी को पंजाब के बाहर किसी जॉब के लिये आवेदन करना हैं मसलन शिक्षक, अर्थ व्यवस्था से जुड़ी हुई जॉब, सौफ्टवेअर डैवलपमेंट, इत्यादि, जहा पर एक सरदार जी के रूप में आप के सलेक्शन होने का अनुपात ५०% ही रह जाता हैं, बाकी के ५०% तो उन चुटकलों ने खत्म कर दी, जहा कही भी सरदार जी को बुद्धिमान नहीं समझा जाता. इसी असफलता या मानसिकता के तहत सरदार जी आज या तो किसी व्यापार को अपना रहे हैं या विदेश जाने में रूचि दिखाई जा रही हैं, कही भी किसी भी रूप में व्यवस्था का हिस्सा बनने से झिझक सी महसूस होती हैं. कुछ इसी परायापन के कारण  आज ज्यादातर सरदार जवान केश ना रखकर, बाल कटा कर एक आम से दिखने वाले नागरिक के रूप को अपनाते हैं और छिपा हुआ तथ्य यही हैं की वह सरदार जी की उस छवि को अपनाना नही चाहते जो की संता और बंता के रूप में, चुटकुलों के माध्यम से एक सरदार जी की छवि बना दी गयी हैं. और इसी के तहत वह उन रोजगार के मोको को भी नहीं खोना चाहते जहा पर कही भी सरदार जी के रूप में चुटकुलों का किरदार संता और बंता क़बूल नहीं हैं.

जीवन के कही माध्यम हैं, यहाँ अगर कोई व्यक्ति आप से नाराज हैं तो वह सबसे पहले उस छवि पर प्रहार करेगा जो की समाज में आप के रूप में रची गयी हैं, इसी के तहत ना चाहते हुये भी कई बार सार्वजनिक स्थानों पर, ऑफ़िस मैं, बचपन मैं, खेल के मैदान पर, इत्यादि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से मेंने संता और बंता के चुटकुले सुने हैं इस तरह के जोक सुनने पर हकीकत में एक सरदार जी, मसलन में कही भी विरोध करने की मुद्रा में नहीं होता, अगर करूंगा भी तो क्या कर सकता हु, कानून को शिकायत, और फिर लग जाओ न्याय पाने की ज्दोजहत में, जहा जिंदगी खत्म हो जाती हैं लेकिन न्याय नही मिलता. तो मैने निजी तोर पर इसी में बेहतरी समझ ली की सरदार जी पर हो रहे चुटकुलों पर एक मुस्कान देकर आगे बड़ जाऊ. मसलन, एक कमजोर और दयनीय स्थिति से होकर गुज़रा भी हु और गुजर भी रहा हु.



हाँ, अब उस मीटिंग में आगे क्या हुआ वह लिखना यहाँ जरूरी हैं, आगे चल कर बॉस ने सरदार जी के रूप में मेरी तारीफ़ करनी शुरू कर दी, की सिख कोम एक देश भक्त हैं, सेवा को समर्पित हैं, ताक़तवर हैं, इत्यादि, कुछ समय के बाद मेरा बोलने का नंबर आया, मेन बड़े ही सहजै हुये लब्जो में एक छोटी सी कहानी सुनाई और आप को भी यहाँ लिख कर सुना रहा हु एक गरीब लड़की, चौराहे पर भीख मांग रही थी, उसके कपडे फटे हुये थे, वहा चौराहे पर हर समाज का या समुदाय का व्यक्ति, गुजर रहा था और ज्यादातर लोग, उस लड़की को वासना की नजरो से ही, देख रहे थे. किसी ने ये नहीं देखा की उस को मदद की जरूरत हैं.ये सुनने के बाद, बॉस तो चुप होने के साथ साथ गंभीर भी हो गया. लेकिन में यहाँ सारांश के तहत अपनी राय रखना चाहता हु, मसलन, बुराई हर किसी की व्यक्तिगत मानसिकता में हैं, इसे व्यंग के रूप से एक छवि को समर्पित करना कही भी इमानदारी नहीं हैं. अगर उसी चुटकुले में संता और बंता का नाम बदल कर रमेश और सुरेश कर दिया जाये या और कोई नाम दे दिया जाये, तो क्या किसी और को उस व्यंग पर हंसी नही आयेगी. जरूर, लोग ह्सैगे. फिर ये कुछ इसी तरह होगा की पप्पू, कांट डांस”, पप्पू भी नाम बताने में झिझकता हैं. उम्मीद हैं, की अब से आप हर व्यंग में खुद का नाम शामिल करेंगे, किसी और की कमियों का मुजहरा करने की बजाय आप खुद पर भी हस कर देखे, शायद इसी के तहत एक सुलझे हुये समाज की रूप रेखा रखी जा सके, जहा किसी की भी कोई टकसाली छवि किसी की भी मानसिकता में मौजूद ना हो. जय हिंद.

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