व्यंग के माध्यम से भी में अपना दर्द, विद्रोह और विरोध को दर्शा सकता हु. कोशिश भी यही हैं.

व्यंग के माध्यम से भी में अपना दर्द, विद्रोह और विरोध को दर्शा सकता हु. कोशिश भी यही हैं.

व्यंग और कविता एक माध्यम हैं, अपने विद्रोह को या विरोध को कहने का. एक आम भारतीय नागरिक फिर वह चाहे देश के किसी भी कोने में हो उसके जीवन पर किसी ना किसी रूप में हमारे ही द्वारा चुनी हुई सरकार के फैसलों से प्रभाव पड़ता हैं. और वह शाम को किसी नुक्कड़ पर, गाव की चौपाल पर, शादी के फंक्शन पर, इत्यादि उस हर जगह पर जहां दो से ज्यादा लोग मिल सकते हो वहा किसी ना किसी व्यंग के रूप में या किसी और माध्यम से हमारा नागरिक अपना विद्रोह और विरोध जाहिर करता हैं लेकिन उसे ये भी ज्ञात होता है की इससे कुछ होने वाला नही फिर भी वह अपनी पूरी कोशिश करता हैं. शायद इससे वह अपनी निराशा को दूर कर सकता हो. तो में भी कई ऐसे पहलुयो पर व्यंग के माध्यम से ही कुछ कह रहा हु इसी व्यवस्था के विरोध में.

ना बोलेगे, ना ना बोलेगे, आज हरबंश जी ना बोलेगे,
चाहे मार दो, काट दो, चीर दो, पर हरबंश जी ना बोलेगे,
पत्नी जी ने हुकुम दिया हैं की हम, मतलब, हरबंश जी, आज से, ना बोलेगे,
बस इशारो मे समझ लेना, घर पर पत्नी जी, टीवी पर मोदी जी, बाकी भारत देश में कोई ना बोलेगे,
हरबंश जी, तो बिलकुल ना बोलेगे, ना भाई ना बोलेगे, हरबंश जी ना बोलेगे,

ऊपर की कविता का संदर्भ हमारे देश के प्रधानमंत्री जी श्री नरेन्द्र भाई मोदी जी से हैं, जिनके २०१४ में प्रधानमंत्री बनते ही ये कहा गया की देश को बोलने वाला प्रधानमंत्री मिल गया हैं उससे पहले हमारे प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह के संदर्भ में कहा जाता था की ये बोलते नही हैं और कमजोर भी हैं. लेकिन श्री नरेन्द्र मोदी जी ने हाल की अपनी कई रैलियों में ये सार्वजनिक तोर पर कहा हैं की उन्हें बोलने नही दिया जा रहा. अब इसे क्या कहैं की लोकसभा का २०१६ का आखरी सत्र खत्म हो गया लेकिन हमारे देश के प्रधानमंत्री यहाँ बोल नही पाये लेकिन नोट्बंदी की घोषणा टीवी पर आकर करते हैं, मन की बात रेडियो पर करते हैं, हर चुनाव में मोहरी हो कर चुनावी रैली में बड़ी उत्सुकता से बोलते हैं लेकिन लोकतंत्र के मंदिर में बोलने में असमर्थ हैं.

पति, ऑफ़िस से घर आकर अचानक से कहने लगा "महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलना ही चाहिये."
पत्नी जी "लगता हैं दिमाग सठिया गया हैं. पहले खुद तो आजाद हो जाओ, चलो पहले बर्तन साफ करो और फिर बच्चो को पड़ाना भी हैं. तुम्हारे साथ बात करते हुये टीवी का सीरियल मिस हो गया".
पति जी ने बर्तन साफ किये और फिर बच्चो को पड़ाया, रात को पत्नी जी के पैर भी दबाये. और सुबह अखबार में खबर भी छाप दी, की महिला क्यों घर पर गुलाम हैं. पति जी एक मीडिया पत्रकार थे.
सारांश: पत्रकार को आजादी नही की क्या छापना हैं ये तो उसका मालिक राजनीति पार्टी से घट जोड़ करके बताता हैं कि आज खबर कोन सी होगी.

यहाँ, इस व्यंग के माध्यम से उस पत्रकार की व्यथा का वर्णन किया हैं जो सब कुछ जानता हैं लेकिन अपने मालिक या ऐडिटर साहिब द्वारा कही हुई बातों को ही खबर के रूप में प्रकाशित करता हैं या टीवी पर ऐंकर की रूप रेखा में कहता हैं. ये उसी तरह हैं जिस तरह एक पति अपने पत्नी के जुर्म से चरणसीमा तक परेशान हैं लेकिन खबर यही लिखता हैं की आज भी महिला घर में गुलाम हैं. इसका एक और पहलु भी हैं जो यहाँ पत्रकार को हमारी व्यवस्था के सामने कमजोर खड़ा पाता हैं और इसी रूप रेखा में ये कही जन आक्रोश का सामना करता हैं और कभी कभी किसी दबंग द्वारा ये कत्ल भी हो जाता हैं. क्युकी जब इसके घर पर ही इसकी सुनी नही जा रही तो बाजार में कत्ल हो जाने पर कोन आँसू बहायेगा.

अमीर: आज मेरे पास, पैसा हैं, गाडी हैं, बंगला हैं, बैंक बैलेंस हैं, तुम्हारे पास क्या हैं ?
गरीब: गहरी सोच में डूब गया.
लेकिन बगल में खड़ा एक भिखारी बोला:
ये फुटपाथ मेरी, ये जमीन मेरी, ये खुला आसमान मेरा,
हर किसी को दुआ देता हूं, राम भी मेरा, खुदा भी मेरा,
जो बोल दे हस के वह मेरी जन्नत हैं, बाकी सब दर्द हैं मेरा,
हमारा हक मार के, हरबंश, तुम आज अमीर हो,
फिर भी तुम को, दुआ देता हूं, तुम पर ये एहसान हैं मेरा,

यहाँ इस छोटी सी रूप रेखा में एक सच्चाई बयान की जा रही हैं की आज भारतीय अमीर और अमीर होता जा रहा हैं और गरीब और गरीबी की दलदल में धसता चला जा रहा हैं. यहाँ गरीब की मानसिकता इस तरह निराश हो चुकी हैं की वह इसे बयान भी नही कर सकता, और इसी रूप रेखा में एक भिखारी ज़रुर कहता हैं की अमीर तू अमीर इसलिये हैं क्युकी मेरे हिस्से की खुशियों का दामन तू चुरा कर ले गया. मसलन, वह सारे घोटाले जो गरीबी के नाम पर हुये लेकिन तिजोरी बस अमीरों की ही भरी है.

हरबंश जी ने कहा:
विद्रोह की मशाल, खून की मांग करती हैं.
नेता ने कहा:
क़ुरबानी कोन देगा.
जनता ने कहा:
घोर कलयुग हैं.

ये व्यंग उस व्यवस्था को ताना मारता हैं जो हर सरकारी सुविधा को भोगती हैं और उसका पूरी तरह से आनंद उठाती हैं लेकिन जब यही व्यवस्था कही भी किसी भी रूप रेखा में खुद को जटिलता से घिरा हुआ देखती हैं तब ये सारे व्यवस्था को भोगने वाले चेहरे वहा से नामोजुद होते हैं. मसलन नोटबंदी के चलते हर आम नागरिक बैंक की लाइन में लगा हैं या लगा था फिर वह चाहे किसान हो, ग्रहणी हो, आम नागरिक हो, छोटा व्यापारी हो, इत्यादि लेकिन कही भी कोई नेता, सरकारी अफसर, पुलिस का बड़ा अफसर, दबंग, इत्यादि इस तरह की लाइन से अमूमन गायब ही रहते हैं और फिर ये भ्रम फैलाया जाता हैं की ये कदम काला धन को खत्म करने के लिये हैं. लेकिन जो व्यवस्था में बैठे हैं और जिनके हाथ में फैसला लेने की ताकत हैं , वह सारे इमानदार हैं ? उनका काला धन कभी खत्म होगा ? जवाब आप को खोजना हैं, में इस व्यंग के माध्यम से कह चूका हु.

आज हम ये सार्वजनिक करते हैं,
की, पैसो की कमाई की रेस से, हम पीछे हटते हैं,
पता नही किसको पीछे करने की होड़ में रहते हैं,
हरबंश जी, अब थक गये हैं,
अमीरी में नही, हम, फकीरी मे यकीन रखते है.

आज भारतीय नागरिक, पैसा कमाने की होड़ में इस तरह मसरुफ हैं की ये कब पैसा कमाने वाली मशीन बन गया इसे पता ही नही चला, आज पैसा जरूरत ना रहकर एक नुमाइश की चीज बन गयी हैं और इसका तर्क भी हैं की जितना पैसा जेब में होगा उतना ही ये समाज आपको इज्जत देगा. लेकिन में इस दोड में थक चूका हु अब और नुमाइश की चीज नही बन सकता, इस के चलते में एक अपनी ख़ूबसूरत जिंदगी से दूर होता जा रहा हु. अब ये और बर्दाश्त नही. आप पैसे को जिंदगी समर्पित करे हम खुद को इस जिंदगी के रुबरु करते हैं.

शब्द थोड़े हैं व्यंग के माध्यम से कहे गये हैं लेकिन मेरी जिंदगी के अनुभव और इस व्यवस्था से मिली लाचारी एक विद्रोह या विरोध का कारण बन ही जाती हैं. अगर मौका मिला तो इस व्यवस्था को ज़रुर बदलने में कोशिश करूंगा फिर वह चाहे नाकामयाब ही क्यों ना हो लेकिन अपनी आने वाली पींडी को एक सपनों का देश भारत समर्पित करने की इमानदार कोशिश हैं. जय हिंद.

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