रईस बस शाहरुख़ खान ही मोजूद हैं लेकिन क़ाबिल में फिल्म के रूप में कहानी हैं, किरदार हैं, अभिनय हैं, कैमरा वर्क, हिंसा, जज्बात, निर्देशन, इत्यादि मौजूद हैं जो एक कामयाब फिल्म की पहचान होती हैं.



इस हफ्ते, गणतंत्र दिवस की छुट्टी होने से, तारीख २५-जनवरी-२०१७, को दो बड़ी फिल्म रईस और क़ाबिल रिलीज़ हुई, वैसे तो फिल्म की कहानी और उसमे संजोया अभिनय ही, फिल्म को बड़ा या छोटा बनाता हैं, लेकिन हिंदी फिल्म का कद उसमे मौजूद बड़े और छोटे फिल्म स्टार के रूप में देखा जाता हैं, यहाँ रईस में शाहरुख़ खान और क़ाबिल में ऋतिक रोशन की मौजूदगी और इन दोनों फिल्म का एक साथ रिलीज़ होना, पिछले कई दिनों से सिनेमा प्रेमियों के लिये चर्चा का विषय बना हुआ था, एक दर्शक के रूप में मेरी भी दिलचस्पी, इन दोनों फिल्म में लगातार बनी हुई थी. यहाँ, ये क़यास लगाये जा रहे थे की कोन सी फिल्म को ज्यादा दर्शक मिलेगे लेकिन सही मायनो में तो बॉक्स ऑफ़िस की लड़ाई के सिवा इन फिल्म्स की कहानी और अभिनय का विश्लेषण होना चाहिये.

इन दोनों फिल्म में जो कुछ समानता मौजूद थी वह, एक बड़ा फिल्म स्टार नायक के रूप में और इनके सामने नायिका का किरदार उन कलाकारों ने निभाया हैं मसलन रईस में माहिरा खान और क़ाबिल में यामी गौतम, जो आज भी, फिल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में लगी हुई हैं. .ये, ट्रेंड पिछले कुछ साल से बदस्तूर जारी हैं, की हर किसी फिल्म में जहाँ बड़ा पुरुष फिल्म स्टार हैं उसके सामने किसी नई या अपनी पहचान बनाने में लगी हुई अभिनेत्री को ही मौका दिया जाता हैं इसके ताजा उदाहरण दंगल में आमिर खान के सामने उनकी पत्नी के किरदार में मौजूद साक्षी तंवर और आने वाली फिल्म जॉली एलएलबी में अक्षय कुमार के सामने हुमा कुरैशी हैं. खैर, अगर फिल्म रईस और क़ाबिल की ही बात करे, तो इनमें एक और समानता हैं की ये दोनों फिल्म की कहानी, ७०-८० के कामयाब फिल्मी फार्मूला पर निर्धारित हैं मसलन रईस बुरा इंसान नहीं हैं लेकिन कानून को अपने हाथ में लेकर, इसे अपराध करने में कोई परेशानी नहीं हैं कुछ इसी तरह की फिल्म ७०-८० के दशक में धूम मचा चुकी हैं जैसे दीवार, शक्ति, त्रिशूल, गुलामी, इत्यादि और उसी तरह से फिल्म क़ाबिल की कहानी हैं जिसमें मुख्य फिल्म के नायक की रिश्तेदार या बहुत क़रीबी औरत किरदार के साथ ज़ुल्म होता हैं और बाद में यही मुख्य किरदार अपना बदला लेता हैं, कुछ इसी तरह की फिल्म ८०-९० में काफी सराही जा चुकी हैं मसलन दामिनी, शोला और शबनम, जिगर, इत्यादि. एक और समानता थी इन दोनों फिल्म में वह इनका कुल समय २ घंटे २० मिनिट के आस पास का हैं, अब एक फिल्म के लिये दर्शक को इतना समय खुद से बाँध कर रखना, ये सबसे बड़ी चुनौती हैं और अगर दर्शक बाहर जा कर कुछ समय के लिये ही, खुद को फिल्म के किरदार के रूप में जीता हैं, तो समझ लीजिये फिल्म कामयाबी की और बढ़ रही हैं.

अगर पहले, फिल्म रईस की बात करे, तो यहाँ शाहरुख़ खान की मौजूदगी ही, सिनेमा दर्शक की दिलचस्पी इसमें बड़ा देती हैं, अगर, शाहरुख़ खान की फिल्मी सफर पर एक नजर मारे तो देवदास के सिवा हर संजीदा फिल्म में फिर वह चाहे मैं हु नाया कल हो ना हो”, लेकिन यहाँ अभिनय में कही दर्शय के रूप में या कही संवाद के रूप में व्यंग मौजूद हैं, खान की लगभग हर फिल्म एक पारिवारिक फिल्म ही होती हैं लेकिन में हु नामें जिस तरह सुषमिता सेन को साड़ी के भीतर दिखाया गया हैं, वह लाजवाब था, लेकिन यहाँ रईस में शाहरुख़ खान अपनी रोमांटिक इमेज से हट कर एक डॉन का किरदार निभा रहे थे, ना ही यहाँ कोई व्यंग मौजूद था और ना ही किरदार के रूप में कोई गंभीरता, यहाँ व्यक्तिगत रूप से मुझे खान साहिब थोड़ा थके हुये नजर आये और लग रहा था, की ये जबरदस्ती इस किरदार को निभाने की कोशिश कर रहे हैं, मसलन फिल्म फेन में सुपर स्टार आर्यन खन्ना के रूप में जो गंभीरता और संवाद को बोलने का नजरिया था, वह कही भी रईस में मुझे नजर नहीं आया. दूसरा, इस फिल्म की कहानी, जहाँ रईस लोगो का कत्ल इस तरह से लेता हैं मानो रसोई में मूली-गाजर काट रहा हो, लेकिन किसी का भी दर्द इससे देखा नहीं जाता, ये रोबिन हुड वाली बात कही ना कही फिल्म को बेजान कर रही थी, यहाँ फिल्म निर्माता की कुछ मजबूरी भी होगी जिसे फिल्म को सेंसर बोर्ड से पास करवाने के लिये, फिल्म की कहानी से समझौता करना पड़ता हैं. अगर, यहाँ संवाद की बात करे, तो दो ऐसे संवाद हैं जिन पर वाह वाही की जा सकती हैं मसलन दिन और रात इंसानों के होते हैं, शेरो का जमाना होता हैं.और मोहल्ला बचाने में शहर जला दिया”, लेकिन यहाँ रईस की ज़ुबान में और चेहरे के हाव भाव में ना ही कोई वजन दिखा और ना ही कोई दर्द. खान की भारी भरकम आवाज भी यहाँ नामोजुद रही. शाहरुख़ खान की ऐक्टिंग पर किसी को कोई संदेह नहीं लेकिन यहाँ वह मौजूद होकर भी नामोजुद थे. खान की फिल्म में आइटम सोंग शायद पहली बार शामिल किया गया हैं, यहाँ ये इस बात का प्रमाण हैं की निर्माता की उम्मीद सिंगल स्क्रीन के दर्शक को जोड़ने की ज्यादा थी, लेकिन शाहरुख़ खान, शहर के मल्टीप्लेक्स में ज्यादा सरहाया जाता हैं. और अब अगर बाकी कलाकारों की बात करे तो माहिरा खान, शाहरुख़ खान के सामने किसी नो-सीखिया कलाकार की तरह लग रही थी, यहाँ छोटे रईस का किरदार और मजुमदार के रूप में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, की मौजूदगी अच्छी लगी. बाकी, कैमरा वर्क और निर्देशन कुछ ज्यादा कमाल नहीं दिखा पाये.  अगर, इस फिल्म में से शाहरुख़ खान का नाम हटा दिया जाये तो, ये फिल्म एक डिब्बा के सिवा और कुछ नहीं हैं.

अब अगर बात करे फिल्म क़ाबिल की, यहाँ कहानी, जानी पहचानी सी हैं, लेकिन जिस तरह नेत्रहीन किरदारों का यहाँ समावेश किया गया हैं, वह क़ाबिले तारीफ़ हैं, ऋतिक रोशन, यामी गौतम, रोनित और रोहित रॉय, इन सब का किरदार बढ़िया था, और अगर निर्देशन की बात करे तो संजय गुप्ता अक्सर हिंसक फिल्म को फिल्माने के लिये जाने जाते हैं, इनकी फिल्म, हिंसा को भी पेश करती हैं और दर्शक के जज्बात को भी फिल्म से जोडती हैं, शरुआत से ही, रोहन के किरदार के रूप में उसकी बुद्धिमानी का परिचय मिलता हैं, हर छोटी से छोटी चीज को वह अपने नजरिये से इस तरह देखता हैं और उसे इस तरह से पेश करता हैं, की बाकी के किरदारों को, इसका नेत्रहीन होना कही ना कही एक संदेह ही लगता हैं, और यही फिल्म की जान हैं, की कही भी दर्शक के रूप में इस किरदार की काबिलियत पर आप सवाल नही कर सकते. यहाँ, रोहन और सुप्रिया का मिलना और फिर अलग होना, एक दर्शक के रूप में मुझे अपने साथ जोड़ लेता हैं और वही खलनायक के रूप में रॉय भाइयो का किरदार मुझे उनसे नफरत करवाने के लिये बहुत हैं, और संजय गुप्ता की मौजूदगी से, बढ़िया फाइट सीन और अच्छा कैमरा वर्क हैं. इस फिल्म की इतनी तारीफ़ हैं, की आप के २ घंटे २० मिनिट कब पूरे हो गये इसका आपको अंदेशा भी नहीं होगा और आप सिनेमा हाल के बाहर आकर रोहन और सुप्रिया के साथ हमदर्दी ज़रुर रखेगे और कुछ पल तक, जब तक आप अपनी निजी जिंदगी में फिर से मसरुफ नही हो जाते, तब तक, ये दोनों किरदार आप के ज़ेहन में पूरी तरह से मौजूद रहेगे और इसी से ये अंदाजा लगाया जा सकता हैं, की ये फिल्म कामयाब होने की और हैं. दर्शक फिर चाहे सिंगल स्क्रीन का हो या मल्टीप्लेक्स का, इस फिल्म को ज़रुर पसंद करेंगे.


अंत, में एक फिल्म के लिये इसकी पूरी यूनिट और पूरी टीम जिम्मेदार होती हैं, तो कही भी फिल्म का विश्लेषण करने से पहले, हर किसी की मेहनत को नाप तोलना जरूरी हैं, रईस फिल्म की कहानी और किरदार कमजोर हैं, अभिनय पर ज्यादा जोर नहीं दिया गया लेकिन क़ाबिल में ये सब मौजूद हैं. रईस एक डॉन की कहानी हैं लेकिन बकरों की मंडी में भी जहाँ बकरों को काटा जा रहा हैं वहां भी डर नामोजूद हैं लेकिन फिल्म क़ाबिल में जज्बात और डर ये दोनों पूरी तरह अपना परिचय दे रहे हैं. आज शाहरुख खान हर लहजे से ऋतिक रोशन से एक बड़ा कलाकार हैं, लेकिन यहाँ अपनी मौजूदगी इमानदारी से पेश नहीं कर पाये. लेकिन, उम्मीद करता हु, की ये दोनों फिल्म अपने दर्शक को ज्यादा खुश कर पायेगी और व्यक्तिगत रूप से शाहरुख खान की अगली फिल्म में ये अपनी मौजूदगी और गंभीरता का परिचय दे पायेगे जिस तरह अक्सर ये अपनी फिल्म से दर्शक को जोड़ लेते हैं. धन्यवाद.

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