८० के दसक मैं पंजाब के अंदर बंदूक वाला आतंकवाद और बाहर ज़ुबान वाला अंतकवाद. #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans

१९८४ का “ब्लू स्टार” ऑपरेशन और उसके बाद हुई श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से भडके दंगो मैं हजारों सीखी की जान ली, इज्जत लूटी और रोजगार को तहस नहस किया गया. इसी नफरत की आग में सदियों पुराने इंसानीयत के रिश्ते को भी दाग दार कर दिया और जब इस नफरत ने जुबा से बया होना शुरु किया तब और कई जज्बात घायल हो गये. बस उन्हीं जज्बातों को में, आज आप से बाटना चाहता हु.

मेरे पापा और ताऊ जी, उन दिनों गुजरात रोडवेज़ में ड्राइवर की नौकरी किया करते थे और श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, कई दिनों तक घर पर ही रहे थे. सारा सिख समाज भयभीत था और डर लगा रहता था. लेकिन गुजरात प्रशासन की सख्ती से और गुजराती अमन पसंद समाज में हमें किसी को भी पूरे गुजरात में खरोंच तक नही आने दी. लेकिन शब्दों के बाण लगातार चल रहे थे और घर से एक ६ साल के बच्चे को कहा गया था “अगर कोई कुछ कह तो सर झुका के चले जाना किसी का भी पलट के जवाब मत देना. कुछ ही दिनों में लोग सब भूल जायेगे.”. और इसी चुप्पी ने ये वाक्य सुना ““गोल्डन टेम्पल तो आंतकवादीयो का गड बन गया हैं” जिसे मेरी ६ कक्षा की हिंदी की टीचर ने कहा था. फिर १९९४ मैं १२ क्लास के कैमिस्ट्री के टीचर ने भरी क्लास मैं कहा था “क्या पगडा पहन के ट्युशन आ जाते हो.”. इसी दौरान मुझे कई बार दोस्तों द्वारा “पिंडा” कहकर बुलाया जाता था. में बस चुप था, लडाई करू तो किससे सामने वाला चेहरा आखिर है तो मेरी जान पहचान का ही. और कही ना कही इन लब्जो के बाणों के मेरे ज़ेहन ने भुला भी दिया था.

लेकिन एक दुखांत मुझे अक्सर याद आता हैं जहाँ चेहरा नही था बस बंदूक की आवाज़ थी, मुझे आज तक पता नही चला की बंदूक चलाने वाले हाथ किसके थे ? दादा जी की मोत के बाद, पंजाब के गाव के घर पर ताला ही होता था लेकिन दरवाजे पे एक जान पहचान के दर्जी को बैठा रखा था ताकि घर का दरवाजा खुला रहे. और हम सिर्फ गर्मियों की छुट्टी पे जाया करते थे, १९९० की गर्मियों मैं १२ साल का था, मेरा भाई ८ साल का, दादी, पापा और माँ हम पंजाब गये हुये थे. उसी दौरान एक दिन पापा हमारी जमीन जो की किराये पर बीज ने के लिये दी हुई थी उसके पैसे लेकर आये थे और माँ ने संदूक में संभाल दिये थे. गर्मी के दिन और बिजली का ना होना, मजबूर करता था घर के आंगन में सोने को और गाव में आंगन अमूमन बहुत बड़े होते हैं ताकि ट्रेक्टर ट्राली अंदर रख सके. बस हम सोने की तैयारी ही कर रहे थे की घर के पीछे से बन्दूक की गोली चलने की आवाज सुनाई दी. बस, इतने में बिजली भी चली गयी. हम सब भाग कर घर के सबसे बड़े कमरे में इकट्ठे हो गये. आँगन बड़ा होने की वजह से और बिजली ना होने की वजह से, हमें खिड़की से कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था. इतने में गाव के और दूसरे कोनों से तीन अलग अलग बंदूक की गोलियों की आवाजें आयी. और एक ट्रक के जाने की आवाज़ सुनाई दी जो की हौर्न बजाते हुये जा रहा था. मैने उस दिन जाना की डर क्या होता हैं.

कमरे की खिड़की से पानी की शराही बांध रखी थी लेकिन किसी की हिम्मत नही हो रही थी उसे छूने, खोलने की और पानी पीने के लिये. छोटा भाई, प्यास से तड़प रहा था और मेरी ही माँ उसे बड़ी दबी ज़ुबान से चुप करवा रही थी लेकिन माँ की ममता ज्यादा समय तक खुद को रोक ना सकी और हिम्मत कर शराही से एक ग्लास पानी निकाला और आधा मेरे भाई को दिया और आधा पानी मेरी दादी को दिया. घर का आगन रात के साथ और अंधेरे में डूबता जा रहा था, हवा से हिल रहे झाड़ के पते भी किसी परछाई का भेद खड़ा करते थे. हम सारे अपनी ज़ुबान को दातो तले दबाये बैठे थे के दर्द की चीस भी ना निकले. वोह रात इतनी लम्बी हो रही थी की सूरज की पेहली किरण को तरस गये थे. और जैसे ही सूरज की रोशनी अंधेरे को चीरती हुई आँगन में उतरी, हमारी सांस एक बार फिर शरीर में बहने लगी. दरवाजा खोल कर बाहर आये और आस पास देखा और बस में सो गया.

दूसरे दीन, किसी की हिम्मत नही हो रही थी पूछने की कोन था गोली चलाने वाला ? क्या उसने पगड़ी पेहनी थी या नहीं ? कैसा दिखता था ? कुछ दिनों बाद अफवाह फैलने लगी की लूटरे थे लेकिन किसी का घर नही लुटा था ? उन दिनों किसी की हिम्मत नही होती थी पुलिस के पास जाने की जिसे हर कोई आतंकवादी लगता था. तो फिर वोह थे कौन ? ये राज बस राज ही रह गया लेकिन ये भी सच्चाई हैं की अगर उस दिन हमारे पूरे परिवार का क़तल भी हो गया होता तो पता नही चलता की क़ातिल कौन था. दो बच्चों के लिये जिनकी उम्र ८ और १२ साल थी उनके लिये ये बंदूक वाला अंतकवाद था पंजाब का और वोह स्कूल में क़ह गये बोल वोह ज़बान वाला अंतकवाद था. घायल दोनों नै किया था, कही जिस्मानी तो कही जज्बाती और शिकार में ही था एक सिख. जय हिंद.

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