“संवाद” मेरी ताकत हैं, में यहाँ अपनी एक भी पहचान नहीं बताऊंगा क्युकी
जिंदगी के किसी ना किसी मोड पर या समाज के ताने बाने में हम कही ना कही अकेले और
कमजोर होते हैं, लेकिन अगर “संवाद” को उसके मूलभूत दो नियमों के अधीन अपनाया जाये
तो ये हमारी सबसे बड़ी ताकत बन सकती हैं, और वह पहला नियम हैं की चाहे विचारधारा में
समानता हो या जमीन आसमान का अंतर, “संवाद” में दोनों पक्षों की गरिमा और विश्वास बना रहना
चाहिये और दूसरा नियम हैं की “संवाद” का अर्थ कहैं हुये शब्दों से भी हैं और उन
शब्दों से भी हैं जो हम सुन रहे हैं यहाँ “संवाद” के जरिये हम से किसी ने कहैं हैं. तो शब्दों को
सुनने में भी इमानदारी होनी चाहिये.
“संवाद” इसका सबसे बड़ा उदाहरण यूनाइटेड नेशन के सिवा और
क्या हो सकता हैं जिस की नींव दूसरे युद्ध के ख़तम होने के तुरंत बाद रखी गयी थी
ताकि इस तरह का और कोई दूसरा युद्ध विश्व स्तर पर ना हो और ये काफी हद तक सफल भी
रहा हैं. यहाँ हर देश को अपनी बात रखने की आजादी और सुविधा हैं जिसे सारा विश्व
सुनता हैं. भारत और पाकिस्तान अक्सर इस मंच से ही अपना अपना पक्ष रखते हैं. इसी
जगह से ये संभव हो पाया हैं की विश्व के ताक़तवर देश और समाज के साथ यहाँ एक कमजोर
और गरीब देश को भी जगह मिली हैं. यहाँ हर देश अपनी समस्या का जिक्र कर सकता हैं
फिर वोह चाहे भुखमरी हो, अशिक्षा हो या कोई
अतिगंभीर बीमारी का फैलना हो, उस हर समस्या को यहाँ कहा और सुना जाता हैं
शायद यही से ही इन समस्याओ को दूर करने के उपायों पे चर्चा होती हैं और किसी
निर्णय तक पोहचा जाता हैं.
लेकिन जब संवाद को एक तरफा करने की कोशिश की
जाती हैं तो अमूमन वह संवाद ना होकर एक तरह का अहंकार और फैसले में बदल जाती हैं.
और कही ना कही यही एक तरफा संवाद तानासाह शासक को जनम देती हैं फिर चाहे वोह साउथ
कोरिया हो या पुराना लीबिया और मिश्र, आप से वहा एक तरफा संवाद ही किया जायेगा. यकीन
मानिये आप किसी भी ऐसे माहोल में ज्यादा समय तक नही रह सकते जहां दो तरफा “संवाद” की आजादी ना हो. शायद आप जी भी नही सकते. और
यही कारण हैं की जब लोगो ने सोशल मीडिया के जरिये “संवाद” करना शुरू किया और अपना पक्ष रखने कहने की और
सुनने का मौक़ा मिला, शायद तब उन्हें आजादी का एहसास हुआ. और यही सम्पूर्ण संवाद
लीबिया और मिश्र के तानाशाहों के खिलाफ एक विद्रोह के रूप में उभरा और सालो से चल
रही तानाशाही का अंत हुआ. ग़ोर करे, तो आज भी उसी देश में तानाशाह हैं जहां दो तरफा
संवाद करने की आजादी नही हैं फिर चाहे वह साउथ कोरिया हो या चीन.
विश्व के लोकतंत्र
देशों में दो तरफा संवाद की अलग ही महिमा और पहचान हैं, शायद यही संवाद असलियत में
लोकतंत्र को रुपरेखा देता हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण लोकतंत्र देश में शक्ता पक्ष
के साथ साथ विपक्ष का होना, जहां विपक्ष शक्ता पक्ष से सवाल या संवाद कर सके.
लेकिन समय रहते बड़ी ही चतुराई से, जनता के इस दो तरफा “संवाद” को भ्रमित करने की कोशिश की जा रही
हैं किस तरह से इसका उदाहरण हमारे न्यूज चैनल का प्राइम टाइम हो सकता हैं, जहाँ न्यूज चैनल का
ऐंकर अपने सवाल के साथ अपनी राय भी रखता हैं और अपने शो में सबसे ताक़तवर होने के
कारण उसी संवाद को आगे बढ़ाने की कोशिश करता हैं जो उसके खुद के तर्क से मेल खाता
हो. लेकिन कही ना कही आज का दर्शक इस छल को समझ रहा हैं और इसका बेहतरीन उदाहरण डोनलड
ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में चुने जाना हैं जहाँ चुनावो के पहले लगभग
पूरा न्यूज मीडिया उनके विरोध में खड़ा हुआ दिख रहा था. लेकिन लोकतंत्र में सामाजिक
दो तरफा संवाद के उदाहरण अख़बार और टेलीविज़न के सिवा और भी कई हैं जिस तरह इंटरनेट
का सोशल मीडिया, टीवी पे प्रोडेक्ट की मार्केटिंग, टेलीविज़न का धारवाहिक
और फिल्मे. और आपका समर्थन और असमर्थन इन्हें दो तरफा संवाद बना देता हैं. जिस तरह
एक फिल्म “अब तक छप्पन” में पुलिस संविधान के कानून को ना मानते हुये
अपराधियों का एनकाउंटर करती हैं और इस फिल्म को मिली सफलता, उस दो तरफा संवाद को
सफल करती हैं जहाँ सामाजिक रूप से एनकाउंटर होने की मंजूरी दी जा रही हैं. और इसी
संवाद से तय होता हैं की हमारे देश में कही भी कोई एनकाउंटर हो जाये हमारी देश की
जनता विद्रोह नही करेगी. इस दो तरफा संवाद के छल को हमारा नागरिक जो इस फिल्म को
प्रोत्साहित करता हैं समझ नही पा रहा हैं शायद ये तभी समझ आयेगा जब हमारे किसी
क़रीबी का दुखद एनकाउंटर होगा.
अंत में खुद का उदाहरण
ज़रुर दुगा, एक समय जीवन के अंधकार से होकर गुज़रा था लेकिन जब बाहर निकला तो कारण को तलाश
ने की कोशिश की क्या वजह थी समय के इस अंधकार की ? जवाब खोजने से मिला मुझमे संवाद
करने की कमी होना. बोलने में झिझकना. और जब से इसे दूर किया हैं, आज में सर उठाकर समाज
की हर गली से और ताक़तवर होकर गुज़रता हु. लेकिन में उनका भी शुक्रिया करना
चाहूंगा जिन्होंने मुझे अपने साथ संवाद करने का मौका दिया. लेकिन मेरे पास उस समाज
और व्यक्ति का कोई तर्क या जवाब नही हैं, जो दो तरफा संवाद को मंजूरी नही देता यहाँ और अपनी
सोच पर अड़ियल होकर पेहरा दे रहा हैं. शायद यही कारण हैं की लोकतंत्र के होते हुये
भी सामाजिक और पारिवारिक विद्रोह होते हैं. यकीन मानिये, दो तरफा संवाद को बराबरी का दर्जा
दीजिये कई तरह के विद्रोह को रोका जा सकता हैं.
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