हमारा सिस्टम और उसका डर. #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans


२०११, दिसम्बर का महीना, मैं गुडगाँव मैं जॉब करता था और अहमदाबाद आने के लिये एक ही ज़रिया था “आश्रम एक्सप्रेस”, जो हर रोज चलती ही पुरानी देहली से और गुडगाँव रुकते हुये अहमदाबाद जाती थी. मैने गुरूवार की टिकट बुक करवा रखी थी लेकिन आखिर मौके पे बॉस ने शुक्रवार को आने के लिये केह दिया. टिकट कैंसल नहीं हो सकती थी सो पैसे भी गये, दूसरे दीन काम पूरा कर ४ बजे गुडगाँव रेलवे स्टेशन पे था, जनरल कोच की टिकट ले रखी थी. अचानक एक मेरा भाई जो साखियों पे चल रहा था और एक अपने पैर से अपाहिज था, मुझे इशारा करके चाय लाने को कहा, भाई नै पैसे खुद दे दिये थे शायद उसे तरस आ गया था मुझ पे और कहा तुम मेरे साथ चलो विकलोगो के कोच मैं तुम्हें वहा सीट मिल जायेगी. कानून के तैहैत एक विकलांग के साथ एक और कोई भी इंसान जा सकता हैं. मैं लालच मैं आ गया की सीट मिल जायेगी और चल दिया. अगर आप मुझे एक मतदाता समझे तो, आप इस लालच को मेरे मत का प्रलोभन कह सकते हैं.

समय पे ट्रेन आ गयी और मैने पहले अपने विकलांग भाई को चडाया और फिर मैं चढा. अन्दर, एक छोटे से कोच मैं बदबू मार रही थी, दो लोगो के खड़े होने की जगह पे चार लोग खड़े थे. टायलेट का टिकाना नहीं था, जिसे जहाँ जगह मिली वही बैठ गया था. मुझे भारतीय रेलवे से शिकायत हो रही थी की “क्या ये सुविधा हैं विकलोगो के लिये या एक तरह का अत्याचार”. फिर मानो कल्पना के उडान पे तीव्र रोशनी हुई और मुझे ये कोच बिलकुल अपने देश जैसा लग रहा था. दो लोगो की जगह चार, बदबू, गरीबी, सड़ा हुआ टायलेट, दिसम्बर मैं भी पसीना बस एक कमी खल रही थी की हमारे देश का सिस्टम कहा है इस कोच मैं. तब मेरी नजर ने ऊपर की सीट पे एक अकेले इंसान को खराटे मारते हुये सोते हुये देखा. मुझे पूरा यकीन हो गया की, यही हैं हमारे देश का सिस्टम. लेकिन हमारे देश मैं एक हथियार जो जरूर चलता हैं और जो गरीब का मदद गार भी हैं वोह हैं इनसानियत का वास्ता, और इसी हथियार के जरी-ये मैने एक मेरे भाई जो की लोकल लग रहा था को बिनती की “मेरे इस अपाहिज भाई को जगह दे दो”. वोह तुरंत खड़ा हो गया और वहा मैने मेरे भाई को बैठा दिया. फिर हिम्मत सी करके ऊपर सो-ये हुये भाई को कहा “बैठने के लिये जगह दे भाई”. दो तीन बार कहने के बाद भी वोह हीला नहीं और जब उसे लगा की ये नहीं मानेगा तब उसने कह दिया “क्या हैं, पुलिस मैं हु, ज्यादा चीक चीक की तो उतार दूँगा डिब्बे से”. अब तो मुझे पूरा यकीन हो गया की यही है हमारे देश का सिस्टम जो अब मुझे डरा रहा है पुलिस का नाम लेकर और कह भी रहा हैं की तुम्हें देश द्रोही बना कर इस कोच से बाहर फिकवा दूँगा. मानो देश से निकलवा दूँगा. और मैं आम सभ्य सा नागरिक बन कर चुपचाप खड़ा रहा रेवाड़ी आते आते मुझे भी एक ऊपर की सीट मिल गयी बिलकुल सिस्टम के सामने लेकिन मेरे साथ दो और भी मुसाफिर थे और हम बैठे थे लेकिन सिस्टम मस्त खराटे मार के सो रहा था. कुछ लोगो ने हिम्मत करके रेवाड़ी रेलवे पुलिस से शिकायत की और पुलिस आयी भी लेकिन जब इस सिस्टम ने कहा की “मैं भी पुलिस हु” तो मानो रेवाड़ी पुलिस कान मैं रुई डाल के चली गयी हो. भाई, सिस्टम ऐसे तो चलता हैं, सिस्टम दूसरे सिस्टम की बुराई नहीं देखता बड़ा प्यार हैं सिस्टम के सारे अंगों को एक दूसरे से.

शाम होते होते अजमेर आ गया, मैं अपना सुसु भी रोक कर बैठा था और पानी भी सकोचीत होकर पी रहा था. सर्दी का महीना और पसीने से बुरा हाल हो रहा था. मैने खिड़की से कुछ पूरी और सब्जी ली और मेरे अपाहिज भाई को खाने के लिये दे दिया. मैं इस सिस्टम के उस पूरे किरदार मैं था जिसने हमारी सोच मैं ये बसा दिया हैं की बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो और मदद करो. मैं मन ही मन सिस्टम को देख कर कह रहा था भाई अब तो उठ ट्रेन चलती हुये पूरे ५ घंटे हो गये है. लेकिन सिस्टम अभी भी खराटे मार के सो रहा था. पता नहीं किस मट्टी का बना हैं. और इसकी सकल सूरत से इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था की ये किस धर्म और समुदाय को जुड़ा हुआ हैं, सच कहूं तो नास्तिक लग रहा था और बस एक अहंकार था इसमें लेकिन, बस ये सो रहा था.
इतने मैं, अजमेर से कुछ और नयी सवारिया चंडी, मेरे पास दो जगह खाली हो गयी थी यही अजमेर मैं जहाँ मैने दो नेत्र हीन भाइयो को अपने साथ मैं बैठा लिया. और बाकी कुछ नीचे बैठ गये इनमें कुछ ओरते भी थी जो शायद किसी और अपाहिज मुसाफिर के साथ थी. दो तीन युवा भी थे, उनमे एक अपाहिज था पैर से और एक हटा कटा, दोनों साथ मैं ही थे. और बस इनकी नजर गयी इस सोते हुये इंसान पे, और बड़ी तमीज़ से एक नै कहा “भाई जगह दे दे बैठने के लिये”, लेकिन कहा हमारा सिस्टम सुनता हैं, और ये दोनों नोजवान भी मुझे कही ना कही अनजान से लग रहे थे हमारे देश के सिस्टम से नहीं तो इससे कौन पंगा लेता हैं. लेकिन सिस्टम के कान पे अभी भी कोई रुई नहीं सरक रही थी. दोनों नोजवान रुक रुक कर अपनी बिनती कर रहे थे और मेरे पास बैठा हुआ भाई मुझ अपने गम बता रहा था. सिलसिला यु ही चलता रहा, की एक नोजवान मानो थक गया था बीनती कर के और उसने अपनी स्टिक उठा के सिस्टम को चुभोना शुरू कर दिया था. बस फिर क्या सिस्टम क्रोध मैं आया और ये भी नहीं देखा की सामने एक अपाहिज हैं और धका दे दिया, अब दूसरा नोजवान उठा और उसने मोर्चा सँभाला लेकिन कहा सिस्टम किसी को पास मैं आने देता हैं. ये सब हो रहा था, और हमारी भारतीय ट्रेन अपनी ही धून मैं चल रही थी, दोनों नौजवान ने कोशिश भी की चैन खींचने की लेकिन साथ के मुसाफिर नै रोक लिया “ भाई ट्रेन को चलने दो, बस २-३ घंटे की तो बात हैं”. हम भी तो यही कहते हैं, की हमें क्या मतलब इस सिस्टम से, बस सीर झुका कर चल दो इसके सामने से. लेकिन उस अपाहिज नोजवान को कही ना कही अपनी बैज्ती मेहसूस हो रही थी और उसने अपने एक साथी को फ़ोन करके सारा हाल बताया और तय हुआ की अगले स्टेशन मतलब “फालना” पे इस कोच मैं नया साथी आ रहा हैं. बस, इतने मैं फालना भी आ गया था और नया नोजवान हमारे कोच मैं, और बड़ी ही हिम्मत से सिस्टम को ललकारा की “सीट खाली कर”. लेकिन सिस्टम कहा सुन रहा था, बस फिर क्या नोजवान नै सिस्टम को खीचना शुरू कर दिया, लेकिन सिस्टम ऊपर बैठा था इसलिये अपनी लातो से ही जवाब दे रहा था. हम भी तो यही करते हैं, बस हमें अपने काम से मतलब हैं फिर चाहे हस्ते हुये रिश्वत ही क्यों ना देनी पड़ जाये या चलती हुई सड़क पे कही गिर जाये, अपनी पतलून तो झाड़ के खड़े हो जायेगे लेकिन इस सिस्टम से सवाल नहीं करेंगे. चलो वापिस आते हैं अपने कोच मैं, इस तरफ ये नोजवान सिस्टम को खींच रहा था और दूसरी तरफ सिस्टम लाते चला रहा था, और बाकी मुसाफिर डर के मारे चिल्ला रहे थे उनमें बच्चे भी थे और औरत भी थी. फिर मैं नीचे उतरा अपनी सीट से (भाई कोई, सुपर मैन नहीं आ गया था, मुझे डर था की कही अगर कानून का परचा कट गया तो कई मासूम झाड़ इस आग मैं बिना वजह ही जल जाये-गे.).  और पेहले आ कर उस नोजवान को क़ाबू किया, वोह नोजवान केह रहा था की “पा जी मुझे छोड़ दो”. लेकिन उसे धीरे धीरे शांत कर के  एक बात समझाई की, रेलवे का अलग कोर्ट और कानून होता हैं अगर यहाँ परचा कट गया तो जिंदगी निकल जायेगी लेकिन नतीजा या इंसाफ नहीं मिलेगा. इस नोजवान को ये बात जल्दी समझ आ गयी और बिलकुल शांत हो गया, बाकी भी इसे देखकर चुप कर गये और कोच बिलकुल शांत हो गया, लेकिन सिस्टम अभी भी सो रहा था, मानो कोई दया भावना ही नहीं. अगले स्टेशन, पे वोह नया नोजवान अपने कोच मैं चला गया, मैं भी कुछ गुम सूम था, भाई सुसु कंट्रोल नहीं हो रही थी, और मैं भी उतर गया “आबू रोड” स्टेशन पे. यहाँ ट्रेन १५ मिनट तक रुकती हैं, सबसे पहले उत्तर कर सुसु किया और फिर चाय की चुस्की ली मन इतना खुश था की मानो कोई जेल से छुट कर आ रहा हु, एक बात तय कर ली थी की यहाँ से बस पकड लुंगा लेकिन इस कोच मैं नहीं बैठूँगा. बस फिर अगले जर्नल कोच मैं चढ़ गया, जैसे तैसे खड़ा होकर पालनपुर तक पोहचा और फिर हिम्मत करके स्लीपर कोच मैं चला गया. जर्नल की टिकट पे स्लीपर कोच मैं था, गुनाह था लेकिन सिस्टम से इतना तर-सत था की मुझे कोई डर नहीं लग रहा था. और फिर धीरे धीरे एक खाली सीट देखी और सो गया, २-३ घंटे मैं साबरमती भी आ गया (साबरमती जहाँ गांधी जी का आश्रम हैं, अहमदाबाद मैं.) और मैं उत्तर गया. मन मैं इतनी घृणा हो गयी थी इस सिस्टम से की मैने पलट कर भी नहीं देखा उस विकलांगो के कोच को. और चुप चाप निकल लिया.

घर तक जाते हुये, रास्ते मैं एक पंडित जी प्रवंचन दे रहे थे स्वर्ग और नर्क के बारे मैं, मुझे स्वर्ग का तो पता नहीं लेकिन भारतीय रेल के इस अपाहिज कोच मैं ऐसा सिस्टम देख लिया था जिससे मुझे डर लग रहा था, शायद यही नर्क है. और अगली बार ये तय कर लिया था, की पैसे दुग-ने दे दूँगा लेकिन इस जर्नल कोच मैं नहीं आऊंगा. शायद यही फ़लसफा हैं हमारे रिश्वत देने का और इस सिस्टम से डरने का. अगर, आप को मेरी इस बात पे यकीन ना हो तो आप भी, एक बार जीवन मैं भारतीय रेल के जर्नल कोच मैं मुसाफिर करे और मुझे यकीन है, आप को भी कोई ना कोई, इस सिस्टम के रूप मैं वहा कोई मिल जायेगा लेकिन हो सकता हैं की इस बार चेहरा और बोल चाल का नजरिया नया हो. लेकिन होगा उतना ही डरावना. जय हिंद.

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