क्या आज समाज में कोई गैर हिन्दू पूँजीवाद और समाज के अहंकार के खिलाफ बुलंदी से आवाज़ उठा सकता हैं ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans

तलवार, म्यान के भीतर रहे. कड़े शब्द जुबा में खामोश रहे, ये दोनों अघोषित आतंकवाद का पैमाना हैं, हरबंश हम इंसान है, बस इनसानियत पर यकीन रहे.

पंडित से भी कहता हु, इमाम से भी कहता हु, मंदिर से भी कहता हु, मस्जिद से भी कहता हु, प्रार्थना मे भी कहता हु, नमाज मे भी कहता हु,

फिर झगड़ा किस बात का हैं भाई, हरबंश जरा खिड़की से कभी बाहर भी झाँक कर देखो,
जिस की आंख में शर्म हैं, दिल में दर्द हैं, जुबा पे दुआ हैं, और गैर की मदद के लिये हाथ तैयार हैं,
मैं उसे इंसान कहता हु, मैं उसे इंसान कहता हु, मैं उसे इंसान कहता हु,

आज कल हमारा राष्ट्रीय मीडिया, उस हर बहस को दिखाने में नहीं झिझकता जिसमें कही ना कही हिन्दू मुस्लिम आमने सामने हो, फिर वोह चाहे बीफ का मसला हो या किसी और अपवाद का, इसी बीच आजकल सोशल मीडिया पे भी धर्म के कटरपंथी दूसरे धर्म के खिलाफ घृणा के शब्दों का प्रहार करते आम देखे जा सकते हैं, इस बीच समाज देश भक्त और देश द्रोही इन दो तबको में बटा हुआ दिखाई दे रहा हैं, खास कर देश भक्त और देश द्रोही इन्हें परिभाषित करने का कोई भी सकारात्मक मापदंड नही हैं लेकिन आजाद देश में हर कोई इसके अपने ही माप दंड स्थापित कर रहा हैं. बस इसी दौरान एक सवाल मन में आया की जिस तरह पिछले दिनों कन्हैया कुमार आजाद देश में पूंजीवाद और मनुवाद का विरोध कर रहे थे उनके इन सवालों पर कई बबाल हुये और कईयो को चुभें भी, लेकिन किसी ने उन पर देशद्रोह का सघीन जुर्म नही लगाया. आखिर क्या होता अगर यही सवाल कोई गैर हिन्दू करता ? तो अब तक ताने कसे गये होते और देश द्रोह का अघोषित मुकदमा चर्चा का विषय बन गया होता. कईयो ने बिना देर किये हुये भारत देश छोडने का फैसला भी सुना दिया होता.

ये सत्य हैं की भारतीय समाज में हर किसी नागरिक में धार्मिक कट्टरता हैं कही सूक्ष्म हैं और कही अति तीव्र. अगर कोई हमारे देश में ये कहैं की उसमे धार्मिक कट्टरता नही हैं या वो नास्तिक हैं, तो में बिनती करूंगा की एक बार खुद से जरूर रुबरु हो ले. धार्मिक  कट्टरता का होना कही भी नफरत के पैमाना नही हैं अगर ये बदस्तूर धर्म में कही गयी बातों का अनुसर करते हुये एक सीमा के भीतर रहे, लेकिन जब ये नफरत की ज़ुबान कहती हैं जिसे दुनिया का कोई मज़हब क़बूल नही करता तब तब पूरे समाज के धार्मिक ताने बाने में खलबली सी मच जाती हैं. अगर में खुद की ही मिसाल दू, में भी धार्मिक कट्टर हु लेकिन कही ना कही इस सूक्ष्म कट्टरता को समझ चूका हु और इसे अपने जीवन का माध्यम बना रहा हु, पूरी मुस्तैदी से इस पर पाबंदी हैं की ये ज़ुबान से या कलम से बयाँ ना हो, क्युकी कभी भी अगर ये नफरत का पैगाम लब्जो में बयाँ करेगी  तो कही ना कही में अपने ही मज़हब से बेईमानी कर रहा हूँगा. हर धर्म में दो बातों का लाजमी प्रमाण मिलता है की सच बोलना और किसी की निंदा नही करनी और इसी के साथ इसका भी जिक्र होगा ही की सच सुनना भी हैं और क़बूल भी करना हैं. बस कही ये धार्मिक कट्टरता जीवन का माध्यम बन जाये तो यकीनन नफरत मिट जायेगी और ये दुनिया और भी ख़ूबसूरत नजर आयेगी. लेकिन इसके लिये उस हर अहंकार को त्याग ने की जरूरत हैं जो बाधा बनकर सच से रुबरु होने में रूकावट पैदा करता हैं.

कभी कभी सोचता हु की धर्म आखिर है क्या ? शायद एक सहजता और सरलता से जीवन जीने का माध्यम, लेकिन किसी पंडित जी के लिये या इमाम जी के लिये इसके और भी मतलब हो सकते हैं, इसकी वजह ये भी होगी की खाने को रोटी हैं, सर पे छत हैं और तन पे कपडा हैं, लेकिन उस गरीब का क्या जो इन मूलभूत सुविधायो से दूर हैं. उसके लिये आखिर धर्म का मतलब क्या हैं ? कई बार रेलवे स्टेशन या बस स्टेशन पे और कई धार्मिक घरों के बाहर भी कई ऐसे माँगने वाले मिल जाये गे जो की अलग अलग धर्मो से तालुक रखते हो लेकिन इन्हें साथ में बैठकर चाय पीते और ब्रेड खाते अक्सर देख सकते हैं. और उस समय कोई नफरत नहीं बल्कि इनके चेहरे पे बड़ा ही संतोष नजर आता हैं. कुछ सालो पहले हिन्दुस्तान के एक चकाचौंध शहर से रात के समय किसी तंग्गली से गुजर रहा था चलते चलते कुछ मजदूर औरतो के टहाके मार के हंसने की आवाज़ सुनाई दी ग़ोर से देखा तो इन औरतों में एक औरत सलवार कमीज पहन कर भी बैठी थी और बिना किसी रोक थाम के हस रही था, शायद किसी भी तरह की नफरत से वोह आजाद थी. गरीबी का भी एक अपना मजा हैं यहाँ खोने को कुछ नहीं हैं अगर सही लब्जो में कहूं तो बस आजादी हैं. तो क्या नफरत की ज़ुबान वोह कहते हैं जिन्हें खोने का डर होता हैं ? हमें सही मायनो में अपने-अपने धर्मो के अनुसार जिस भगवान और खुदा ने जन्म दिया हैं, उस पर यकीन, उसे और उसके कहैं हुये शब्दों के अनुसर का, खोने का डर होना चाहिये ना की उसकी बनाई हयी कायनात का.


अंत में कटाक्ष भी में खुद पर ही करूंगा, कई लब्जो में, मैं शाकाहारी हु (धार्मिक या सामाजिक दृष्टिकोण से नहीं) लेकिन अगर में किसी इस तरह की दुविधा में फंस गया जहाँ कोई शाकाहारी भोजन ना हो और खाने का विकल्प सिर्फ मांस ही हो तो शायद एक दिन या दो दिन ही भूख बर्दाश्त कर पाऊंगा और जब कोई विकल्प ना बचे तो शायद मास को भोजन में स्वीकार कर लू. एक और बात भी कहूंगा, की अगर मोत ना होती तो क्या कोई धार्मिक स्थान होता ? शायद नही. क्युकी मुख्य-तह  हमारा डर ही एक मुख्य वजह हैं हमारे इष्ट के प्रति एक श्रद्धा का. तो फिर यु कीजियेगा, एक बार ज़रुर प्रेम के भाव से अपने इष्ट या खुदा को मिलने जाये यकीनन इससे नफरत और अहंकार का नाश होगा. जब समाज इस तरह से गठित होगा तभी कोई गैर हिन्दू इतना आजाद होगा की वोह समाज की बुराईयों के प्रति हौसले से विरोध के सुर कह सके, बोल सके. जय हिंद.

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