फर्श का मैदान और उस पर हो रहे खेल कितना शारीरिक और मानसिक विकास कर पाये गे हमारे बच्चो का ? #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans


कुछ २०-२५ साल पहले मेरे स्कूल के दिनों में इतवार की छुट्टी और घर के साथ में ही एक बड़ा सा मैदान, एक बेट, बाल और स्टांप चाहिये थे, दोस्त तो हम सब थे हीबस फिर क्या था क्रिकेट और क्रिकेट का जनून पता नही चलता था कब सुबह से दुपहर और फिर शाम हो गयी. मेरी माँ मुझे अक्सर इतवार को गुरद्वारे ले जाने की जिद करती थी लेकिन मुझे तो बस क्रिकेट ही खेलना था. लेकिन आज जब मेरे बेटे स्कूल जा रहे हैं तो देख रहा हु कोई मैदान नही हैं हमारे घर के पास. जहां हमारा मैदान था उस जगह पर नजर करता हु तो एक बड़ी सी बिल्डिंग बन गयी हैं, और आस पास भी इमारतो का जंगल खड़ा हो गया हैं.

कुछ ही समय पहले अपने खाली समय के दौरान सोचा आस पास के विधालयो का चक्कर तो लगा कर आयु, देखा तो आखे देखती ही रह गयी, घर के पास के तीन स्कूल और तीनों की अमूमन ३ से ५ मंजिला इमारत. इनमें से २ स्कूल के मैदान भी पकी  फर्श के बना दिये हैं और एक ही स्कूल बचा हैं जहाँ कच्ची मट्टी का मैदान हैं लेकिन वहा विध्राथीयो की संख्या इतनी ज्यादा हैं की मुश्किल से एक बच्चे को हफ्ते में 1-२ पीरियड ही मिलते होंगे खेलने के लिये. अब इस घुटन में आप क्रिकेट या फूटबाल तो खेलना भूल ही जाइये. और इसी दोर में पकी फर्श के मैदानों ने नये नये खेलों को जन्म दे दिया हैं जो की हमारे समय में सिर्फ फिल्मो में ही दिखा करते थे. उनमे से दो का जिक्र तो जरूर करूंगा एक हैं स्केटिंग और दूसरा कराटे. पिछले साल अपने दोनों बेटों को स्केटिंग में रखा था, दोनों के टायर वाले शूज लगभग ५००-८०० में आ गये थे. और इसके सिवा कोच की फीस. कुछ ३-४ महीनों के बाद कोच ने कहा की आप के बच्चे अच्छा कर रहे हैं और इन्हें आगे प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये नये शूज चाहिये होंगे. जिनकी अमूमन कीमत ५००० से ८०००० तक होती हैं लेकिन आप फिलहाल ५००० के शूज ले दीजिये.मेरी पूरी क्रिकेट की किट रबर की बाल के साथ १०० २०० रुपये में आ जाती थी लेकिन आज स्केटिंग के शूज ही ५००० से शुरू होते हैं. फिर गूगल बाबा की हैल्प ली और जाना की कोई बड़ी प्रतियोगिता नहीं होती बस जो लोग स्केटिंग के शूज बेचने का कारोबार करते हैं उन्हीं लोगो ने ये प्रतियोगिता आयोजित कर रखी थी और हर साल करवाते हैं. ये उदाहरण हैं की किस तरह खेलों में आज मार्केटिंग एक हिस्सा बन गयी हैं. लेकिन असल में व्यक्तिगत रूप से में स्केटिंग से खुश नहीं था जहां शारीरिक अभ्यास का माध्यम सिर्फ टायर वाले शूज पे दोडना ही था. अगर बचपन में हम अपने पैरो पर नही दोडगे तो जीवन में कभी भी इस अभ्यास का अनुभव नही कर पायेगे.

फिर घर वालों से बात की, उन्हें समझाना और भी मुश्किल था. आज हम कुछ भी सह सकते हैं लेकिन ये कभी नहीं चाहते की हमारे बच्चे के विकास में कोई कमी रह जाये. शायद इसी का नतीजा हैं की स्कूल में ऐसी, प्रोजेक्टर, आरओ का पानी और ख़ूबसूरत बिल्डिंग तो होनी ही चाहिये फिर चाहे मैदान फर्श का ही क्यों ना हो. लेकिन में अपने घरवालो को समझाने में कामयाब रहा और बच्चो को स्केटिंग से हटा कर कराटे में लगा दिया. ”, “हु”, पता नहीं इस अभ्यास में ये किस तरह की आवाजें निकालते हैं. लेकिन इसका खर्चा बस कराटे की पोषक तक ही सीमित था जो की ५०० रुपये में आ गयी थी. और कोच की महीने की फीस. लेकिन अभ्यास के दौरान कोच अक्सर बच्चो से कहता था ध्यान से फर्श पर सर नही टकराना चाहिये. नही तो चोट लग जायेगी.अभिभावक भी इस बात को समझते थे लेकिन किसी और खेल के विकल्प का ना होना उन्हें मजबूर करता था अपने बच्चो को फर्श के मैदान पर कराटे का अभ्यास करवाने के लिये. ये बहुत खतरनाक हैं क्युकी कराटे खेल ना होकर एक मार्शलाट हैं. यहाँ भी कुछ ही महीनों में मेरी हिम्मत जवाब दे गयी. में अपने बच्चों को इस अनजान खतरे में और नही देखना चाहता था. शायद इससे अच्छा तो स्केटिंग ही था. फिर खोज करनी शुरू कर दी और एक टेनिस अकादमी का पता चल ही गया यहाँ फीस थोड़ी ज्यादा थी और वक्त भी सिर्फ एक घंटा लेकिन मट्टी का मैदान और उससे जुड़ा हुआ खेल, जिसमें खेल का अपना ही एक मजा था और कोई अनजान खतरा भी नही था. मैने आँव देखा ना ताब और ना ही घर वालों से बात की चुप चाप बच्चों का यहाँ ऐडमिशन करा दिया. आज में कह नहीं सकता की अपने इस फैसले से कितना खुश हु या नहीं लेकिन खुद के बच्चों को सुरक्षित ज़रुर मान रहा हु.

विकास के कई मायने होते हैं, हमारे बचपन में मूलभूत सुविधायें चाहे कम ही थी जिस तरह पूरे मोहल्ले में एक ही टीवी हुआ करता था लेकिन खेल के मैदान बहुत थे और इतना तो खेले ही हैं की बचपन को कोई शिकायत नहीं रही. लेकिन आज टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल हर घर में हैं लेकिन खेल के मैदान वह भी मट्टी के तो बिलकुल नही, मानो हमारे शहर से पूरी तरह गायब से ही हो गये हैं. अगर कही हैं तो वहा कोच और उनकी फीस बहुत ज्यादा हैं. शायद इसलिये ही आज बच्चे क्रिकेट भी मोबाइल पर खेलना पसंद करते हैं. अब आप समझ ही सकते हैं की इससे हमारे बच्चो का कितना शारीरिक और मानसिक विकास होगा. अंत में, एक व्यंग के माध्यम से ही, इस हो रहे विकास से अपनी असहमति दर्शाते हुये एक चुटकला तो ज़रुर कहूंगा.

एक बार एक बीमार बच्चे का पिता, अपने बच्चे को डॉक्टर जी के पास लेकर गया. डॉक्टर जी ने अपनी जांच पूरी करने के बाद कहा आप के बच्चे को कुछ भी तो नही हुआ हैं. इसे खेलने के लिये प्रोत्साहित कीजीये.ये सुनकर बच्चे का पिता तुरंत बोल उठा डॉक्टर साहिब, ये हर वक्त तो खेलता रहता हैं.”. डॉक्टर साहिब ने अचंभित होकर पूछ ही लिया कोन सा खेल खेलता हैं ?”. पिता जी ने कहा जी, विडियो गेम.


आप हस सकते हैं, लेकिन आप उस खतरे को ज़रुर समझे जो मैदानों के ना होने से हमारे बच्चो के शारीरिक और मानसिक विकास को बाधित कर रहा हैं. जय हिंद.

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