भीड़ मैं दो इंसान एक दूसरे से बात कर रहे थे लेकिन लब्जो मैं बड़ी तंगदिली थी, पहले ने दूसरे से कहा की तुम कौन हो और जवाब मिला “हिन्दू” फिर दूसरे ने पूछा पहले से की तुम कौन हो और जवाब मिला “मुसलमान”. मैं भी वहा खड़ा था लेकिन मुझ से ना कोई पूछ रहा था और ना ही कोई किसी जवाब की उम्मीद मुझ से रख रहा था. ये बिलकुल उसी तरह लग रहा था मानो हमारा देश का मीडिया पूरे विश्व को भूलकर सिर्फ केन्द्रित बिंदु “पाकिस्तान” को ही बनाता है. आखिर क्यों हमारा समाज सिर्फ दो गुटों मैं बटा हुआ है ? क्यों यहाँ “हिन्दू” और “मुसलमान” के सिवा और किसी समुदाय का होना बेईमान सा लगता है ? तो चलो आज, मैं अपने अनुभव आप से बाटता हु.
नोट: सच्चाई की इस कलम ने लेखन के मापदंडो को मानते हुये, पात्रों के नाम बदल दिये गये हैं.
अगले साल जब जॉब को बदला तो पहले ही दीन नयी कंपनी में मेरे होश उड़ गये, ये कंपनी एक मुसलमान की थी जो की बाहर विदेश मैं हैं और यहाँ का संचालन भी एक मुसलमान ही करता था, नाम था “अकरम भाई”, ये हफ्ते मैं दो या तीन बार दो तीन घंटों के लिये आते थे, और ऑफ़िस में इनकी केबिन से बस सिगरेट का धुँआ ही आता था,पहले कभी नहीं देखा इस तरह का माहौल , बाकी स्टाफ भी ज्यादातर मुसलमान ही थे. जो मेन टीम लीड था “वकार भाई”, वोह थोड़े दीनो मैं मेरे साथ काफी घुल मिल गया था, उसने बताया की वोह एक सिया मुसलमान हैं और भारत मैं पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा महफूज हैं. उसने ये भी बताया की कंपनी भी एक सिया मुसलमान की हैं और यही कारण हैं की वोह यहाँ पे टीम लीड हैं. “वकार भाई” को सबसे ज्यादा आजादी थे, कभी भी आते थे और कभी भी चले जाते थे. कोई नही पूछता था. मैने आखिर पूछ ही लिया भाई क्या कारण हैं इतनी आजादी हैं, बदले मैं जवाब मिला “यकीन”, बस और कोई वजह नही थी. ना ही और कोई ऐसा विशेष कारण नही था बस कंपनी के मालिक को वकार भाई पे इसलिये यकीन था की दोनों सिया मुसलमान है. ज्यादातर समय वकार भाई और बाकी स्टाफ भी नमाज पड़ते थे, कंपनी मैं कैमरे लगे थे और मालिक कही ना कही दूर बेठ के सब कुछ देख सकता था. लंच मैं भी यहाँ आजादी आप कुछ भी ला सकते थे. मैं यहाँ, एक बात साफ़ कर दू, की यहा किसी भी और धर्म के इंसान पे कोई पाबंदी या निखता चीनी नही थी, लेकिन कही ना कही बाकी लोगो को लगता था की धर्म के नाम पर सैलरी बड़ाई जाती हैं और काम भी दिया जाता था,मानो एक मुसलमान स्टाफ बस हाथ बांध के बैठा रहता था लेकिन उसे किसी भी प्रकार की कोई बंदिश नहीं थी, और सैलरी भी बड़ जाती थी. कही ना कही धर्म के नाम पे भेदभाव था, मेरा यहाँ दम घुट रहा ऑफ़िस ना होकर कुछ और ही हो गया था. खास कर, सिगरेट का धुँआ. मैं बस दो महीनों में ही तोबा कर गया.
उसके बाद एक और नयी कंपनी से जुड़ा जो की एक हिन्दू परिवार की थी, ऑफ़िस मैं ही मंदिर बना रखा था, और सुबह शाम मालिक यहाँ पूजा किया करते थे, किसी और को मंदिर मैं जाने की अनुमति नही थी. मालिक बड़े ही संतोष से कहते थे की मेरे यहाँ पूरा हिंदुस्तान बस्ता हैं, हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई, सभी धर्मो को मानने वाले यहाँ काम करते हैं और हम कोई भेदभाव नही करते, मुस्लिम स्टाफ को एक जगह नमाज पड़ने की इजाजत थी और रमज़ान के महीने मैं वोह ऑफ़िस से एक घंटा पहले चले जाते थे. ना ही तो सिगरेट थी और ना ही लंच मैं आप शाकाहारी के सिवा और कोई खाना ला सकते थे, मुझे लग ही रहा था, की सब कुछ ठीक ठाक हैं. लेकिन धार्मिक कट्टरता जो की बड़ी सूक्ष्म रूप से मौजूद थी उसका ज्ञान गणेश चतुर्थी मैं लग गया, जब मैं पूजा मे खड़ा नहीं हुआ. भाई, मैं मूर्ति पूजक नहीं हु, बस वोह तीन दिन मुझे निकालने मुश्किल हो गये. मैं यहाँ साफ़ कर दू की मालिक ने मुझे कुछ नहीं कहा लेकिन उसके चहीतो ने कुछ छोड़ा नहीं. हर नजर मैं नफरत सी आ गयी थी, कोई दबी ज़ुबान काफी कुछ कह जाता था. मैं लगभग उन्दीनो मैं अकेला सा हो गया था, मुझे अपरोक्ष रूप से प्रमाण देना पड़ता था की मैं क्यों खड़ा नहीं हुआ. कही ना कही धर्म के नाम पे भेदभाव था सैलरी मैं, काम मैं. मेरा उसी तरह से यहाँ भी दम घुट रहा था.
अंत मैं, कुछ अच्छी बाते कहूंगा, भगवान राम ने सबरी के झूठे बेर खाये थे, रावण जो की एक देहलीज पार कर गया था, उसके सव पे भी कफ़न डाल कर, एक गरिमा का परिचय दिया था, शायद इसलिये ही उन्हें मर्यादा पुर्शोतम राम कहा जाता हैं. उसी तरह इस्लाम मैं भी झूठ बोलना मंजूर नहीं, और एक इंसान जब सच बोलेगा तब उसमे और एक संत मैं कोई फर्क नहीं रेह जाता. तो फिर एक सच्चा हिन्दू और एक सच्चा मुसलमान प्रेम की भाषा बोलेगा और समझेगा. और इस तरह के समाज, मैं हर कोई इंसान चाहे वोह गैर हिन्दू हो या गैर मुस्लिम, वह क़बूल होगा. लेकिन फिर ये नफरत कहा से आ गयी. मैं पूरे हिन्दू और मुसलमान समाज से, हाथ जोड़कर बिनती करता हु की नफरत को छोड़ दे. लेकिन अगर, मेरे ये लब्ज क़बूल नहीं और नफरत को ही जीवन बनाना हैं, तो खुल कर वोह सब भड़ास निकाल दे, लड़ ले, जो कर सकते हैं कर ले, जब जुर्म का जलूस ख़तम हो जायेगा तब मंजर कुछ ऐसा होगा की हर आख मैं पानी होगा, और सवाल होगा आखिर क्यों ? और फिर दोनों समाज प्रेम की भाषा ही बोलेगे. तो आज से और अब से ही क्यों नही ? जय हिंद.
No comments:
Post a Comment