शादी की रशमो में दुल्हे का परिवार दुल्हन के परिवार से अक्सर ज्यादा महत्वपूर्ण होने का भ्रम सदियों से पालता हुआ आया हैं और ये अनुसरण युही चलता रहेगा. कही ना कही, हमारा समाज भी इसे क़बूल करने में झिझकता नही हैं. दुल्हे की बारात कई मायनो में खुशी और उल्लास के साथ साथ, दुल्हे के परिवार के लिये एक सामाजिक प्रतिष्ठा का भी चिन्ह होती हैं. यहां, दुल्हे के परिवार के सारे रिश्तेदारो के साथ साथ दोस्तों और पड़ोसियों को भी न्योता होता हैं. दुल्हन के परिवार को हिदायत होती हैं की बारात के स्वागत में कोई कमी नही आनी चाहिये. बारात के स्वागत से लेकर विदा होने तक, दुल्हन के परिवार की तरफ से हो रहे हर प्रकार के रिवायती रिवाजो को दुल्हे के परिवार वालो की तरफ से हर मापदंड पर तोला जाता हैं, और अगर कही भी थोड़ी सी कमी रेह जाये तो लब्जो में प्रहार होने के अंदेशे बन जाते हैं. मतलब, इस तरह का माहौल होता हैं जहाँ अगर आप लड़के वालों की तरफ से हैं तो आपको पूरा अधिकार हैं अपनी ताकत की नुमाइश करने का और इसका विरोध होने की सम्भावना ना मात्र होती हैं और सदियों से हथियारों को ही ताकत की परिभाषा कहा जाता रहा हैं. तो इस तरह के माहौल में, कुछ हवाई फायर तो बस युही हो जाते हैं जो की पहले से तय कार्यक्रमों में पंजी कृत नही होते हैं.
अब बारात में दुल्हे के साथ बाकी बाराती सज्जन भी पूरे जोश में होते हैं. आजकल, चाहे सरे आम हो या चोरी चुपके, किसी ना किसी प्रकार का नशे का परोसना शादी विवाह में आम सी बात हो गयी हैं, फिर चाहे दुल्हे के परिवार की तरफ से हिदायत भी हो की शादी और बारात में शांति बनाये रखे. फिर भी, कुछ ना कुछ बातें दुल्हे परिवार को अनदेखी करनी पड़ती हैं क्युकी अगर सख्ती की तो कोई भी मामा, चाचा या मासा रुठ कर अपने पूरे परिवार के साथ शादी के पर्व को छोड़ कर चला जायेगा और कही ना कही इस खुशी के प्रसंग के साथ साथ रिश्तेदारी में कलह की वजह बन ही जायेगी. अब चाहे किसी भी प्रकार का नशे का सेवन हो या ना हो, शादी के माहौल में जहाँ कोई रोक टोक करना एक गुनाह की तरह माना जाता हैं, ऐसे माहौल में जोश अपनी चरण सीमा पे होता हैं और होश कही ना कही जोश की आड़ में खो गया होता हैं. तो हाथों के लड़खड़ाने की वजह बन ही जाती हैं. काफी सारे बाराती सज्जन इस लड़खड़ाने को ढोल की धनक पे नाच कर संतुष्ट कर लेते हैं लेकिन अमूमन वह बाराती सज्जन जो अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा मनवाना चाहते हैं उनके हाथ अपने आप बंदूक तक पोहच ही जाते हैं. और फिर “धाय धाय”.
अब जिस तरह कहा जाता हैं की कहा गया वाक्य और बंदूक से निकली गोली वापस नही आती उसी तरह इस फायर का पता नहीं होता की किस तरफ निशाना कर लेगा. अगर बंदूक खुले आसमान की तरफ भी तनी हैं फिर भी गोली चलने तक अगर इसका मुँह किसी और मुड़ गया तो तबाही निश्चित हैं. जो की एक पल में खुशी के टहको को गम में बदल देती हैं. बस फिर क्या, जोश कही खो जाता हैं और होश की यही दलील होती हैं की ये कैसे हो गया लेकिन उस होश से कैसी शिकायत जो खुद ही गुम होता हैं और आख मलता हुआ तलाश कर रहा होता हैं की उसने किस ज़ुबान को बंद कर दिया हैं. अमूमन, इस तरह के किसे कानून की गिरफ्त से दूर ही रखे जाते हैं लेकिन कोई तबाह ज़रुर हुआ होता हैं. अगर ये खबरों की सुर्खिया बन भी जाये, तो चंद ही दिनों में हमारा सभ्य समाज इसे भुलाने में ही अक्लमंदी समझता हैं.
अंत में आपको बतादू की उस शादी मे मैं घायल नहीं हुआ था लेकिन कुछ मेरी तरह ही दिखने वाला बच्चा जरुरु चोटिला हुआ था, चोट इतनी नहीं थी की शादी रोक दी जाये लेकिन कही भी अगर बंदूक की गोली का कोण जरा भी बदला होता तो एक हादसा जरुर हो जाता. लेकिन कुलविंदर कौर मेरी तरह भाग्यशाली नहीं थी और उसके गर्भ मे पल रहे बच्चे का क्या कसूर था, जो इस दुनिया को बिना देखे ही रुखसत हो गया. इसलिये कुलविंदर कौर की हत्या से कई अजनबी भी आहात हुये है और सडको पर आकर न्याय की मांग कर रहे है. इसी सिलसिले मे हरयाणा सरकार नै विवाह शादियों पर किसी भी प्रकार से हथियारों के इस्तेमाल को गैरकानूनी घोषित कर दिया है. लेकिन जब तक व्यक्तिगत सोच इस संधर्भ मे नही बदलेगी शायद तब तक इस तरह के हादसों को पूर्णता रोक पाना मुश्किल हो जाता है. हमे खुद को बदलने की जरुरत है समाज की बुराइया अपने आप दूर होती चली जायेगी. और अपने व्यक्तिगत अनुभव से ये भी ज़रुर कहूंगा की हमें फिर से खुद को तलाशने की जरूरत हैं की हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा किस से हैं ? हमारी ताकत से हैं, हथियारों से हैं या हमारी जमीन जायदाद और दौलत से हैं. शायद कही ना कही, एक सभ्य समाज के लिये सामाजिक प्रतिष्ठा का मतलब नम्र व्यवहार से हैं खास कर शादी विवाह जैसे पर्व पर तो ये व्यवहार लाजमी अपनाया जाना चाहिये. यहाँ, दुल्हे के परिवार को सीना तान कर अहंकारी होने की नहीं हाथ जोड़ कर नम्र होने की जरूरत हैं क्युकी दुल्हन अपने पूरे परिवार को छोड़ कर एक नये रिश्ते में बंधने जा रही होती हैं और साथ ही साथ एक नये परिवार को अपनाने जा रही होती हैं. तो इस तरह के आयोजन पर ताकत नही व्यवहार की कसौटी होनी चाहिये. शायद बदल रहे भारत मे ये सोचा भी जा रहा है. जय हिंद.