में हिंदी माध्यम में ही पड़ा हुआ हु, और मेरे दोस्त सारे या तो उत्तर भारत से थे या फिर किसी हिंदी भाषित राज्य से, हम हमेशा एक दूसरे को अपने पहले नाम “नरेन्द्र”, ”प्रकाश”, ”दिलीप”, “बाबाराम”, “प्रदीप”, “हरबंश” से ही बुलाते थे कभी भी कोशिश नहीं की नाम के पीछे लगे “कुमार”, “यादव”, “झाँ”, “राजपूत”, “शर्मा”, “सिंह” को जानने की. हकीकत कहूं तो नाम का पहला शब्द
ही हमारे लिये मायने रखता था बाद में क्या लगा हैं इसका हमारे लिये कोई मतलब नही
था और ना ही इसके सिलसिले में कुछ जानने की जरूरत थी . हम पड़ते भी थे और साथ ही
साथ मस्ती भी करते थे. और इसमें मैं अक्सर मोहरी होता था इसी कारण सर जी की मार भी
पड़ती थी. आज भी याद हैं हाथ पे लगी हुई डस्टर की ख़ूबसूरत मार. कभी कभी तो आख से
आशु आ जाते थे लेकिन दर्द बस दूसरे पल ही भूल जाता था कही भी मेरी किसी सोच में
इसका व्याख्यान नही मिलता. इसी दौरान कम से कम हफ्ते में एक बार तो सही लेकिन
स्कूल के बाद क्रिकेट मैच तो ज़रुर खेलने जाया करते थे. मेरी यादो में मेरा बचपन, मेरे दोस्त और मेरा स्कूल बहुत ख़ूबसूरत से सजा हुआ हैं.
लेकिन सन ९० के सन में जहाँ खबर का मतलब सिर्फ
दूरदर्शन से प्रसारित होते समाचार ही थे सितम्बर में एक छात्र के आग लगाकर ख़ुदकुशी
का दुखद समाचार सुनाई दिया. उस समय १२ साल के बच्चे के लिये अंदाजा लगाना भी
मुश्किल था की जिंदगी, मोत और ख़ुदकुशी क्या होती हैं ? लेकिन दूसरे दिन सुबह सुबह हम फिर उसी उत्साह से अपना दिन शुरू कर रहे थे और
मोदी मैडम इंग्लिश के विषय में हमे पड़ा रही थी की अचानक से यादव सर आये और हमें
कहा जाओ बच्चो आज तुम्हारी छुट्टी कर दी गयी हैं. अब स्कूल में अचानक से छुट्टी
मिलना मतलब मानो करोड़ो की लौटरी लग गयी हो. हम सब बाहर आये और बजाये ये जानने के
की स्कूल क्यों बंद हुआ हैं ? हमने सब ने प्लान किया की अब से आधे घंटे बाद
क्रिकेट के मैदान पे मिलते हैं और वही टीम बनाकर खैलैगे. वह दिन तो हँसी खुशी बीत
गया लेकिन दूसरे दिन फिर यादव सर गुजराती के पीरियड में आये और कहा की स्कूल की
छुट्टी हो गयी हैं. लेकिन उस दिन हम उत्साहित नही थे क्रिकेट खेलने के लिये. और ये
सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा, कभी भी किसी भी पीरियड में स्कूल के बंद होने
की जानकारी मिल जाया करती थी.
लेकिन अभिभावकों के दबाव के चलते, थोड़े दिनों बाद से ही स्कूल अपने समय अनुसार चलना शुरू हो गया था. लेकिन एक
दिन अचानक, यादव सर ने हमें स्कूल के बाहर इक्ट्ठा कर लिया खास कर
कक्षा ९ और १० के विधार्थियों को. स्कूल का मुख्य द्वार बंद कर दिया गया था और उस
तरफ कुछ युवा खड़े थे शायद उनकी उम्र १८-२२ साल की रही होगी, निजी रूप से में उसमे से किसी को भी नही जानता था. उसी समय, एक युवा मुख्य द्वार पे चडकर खड़ा होकर कहने लगा “आज से स्कूल बंद, जब तक हम नही कहते कोई भी तुम में से स्कूल नही
आयेगा. अगर, कोई भी आया और स्कूल अपने समय काल के अनुरूप खोला गया तो हम
बाहर खड़े होकर पत्थर मारे गे जो तुम में से किसी को भी लग सकता हैं. खिड़की का
कांच टूट सकता हैं. समझ लेना, आज से स्कूल नही आना हैं.”. वह तो इतना कह कर चले गये, यादव सर भी नजरे झुका कर खड़े थे और हम भी किसी
से कोई सवाल नही कर रहे थे. फ़रमान हो चूका था बस अब इसे मानना था. स्कूल से हम सब
ने अपना अपना दफ्तर उठाया और चल दिये अपने अपने घर को. परिवार से बात करने के बाद
भी हमें यही कहा गया की कल से स्कूल कुछ दिनों के लिये नही जाना हैं.
अभी भी में ये सवाल नहीं कर रहा था की क्यों
स्कूल बंद हुआ हैं ? यही तो बचपन का आनंद हैं की जिंदगी के गहरे
सवाल नहीं पूछ करता लेकिन मेरे उस समय का भी और आज का भी बस यही सवाल हैं की वह
कोन थे जो स्कूल बंद करवाने आये थे?. अब जब उन्हें खोजने के कोशिश करता हु तो अक्सर
नाकामयाबी ही मिलती हैं लेकिन उनके नाम कुछ हमारी तरह ही रहे होंगे ओर आज वह भी
चेहरे के सफ़ेद बालों से ढक गये होंगे. शायद ये मंडल कमीशन के विरोध में खड़े हुये
थे इसी सिलसिले में कई जाने भी गयी थी, तोड़ फोड़ भी हुई थी लेकिन
मेरे जीवन के कई ख़ूबसूरत दिन जो मेरे भविष्य की नींव रख रहे थे वह युही व्यर्थ
बतीत हो गये और उन दिनों का महत्व और भी बड़ जाता हैं खासकर अब जब उन सहपाठियो
दोस्तों का पता भी नहीं हैं की जीवन के किस कोने में कहा होंगे. इस व्यथा में उन
दिनों में स्कूल के जबरन बंद होने का गम तो सदा ही बना रहेगा. जय हिंद.