कुछ दिनों पहले जॉन अब्राहम की फिल्म “फोर्स २” आयी थी जिसकी पूरी कहानी का केंद्र बिंदु हमारे देश की
गुप्तचर संस्था रॉ (RAW) पर टिक्का हुआ था. लेकिन फिल्म देखने के बाद
काफी निराशा ही हाथ लगी, जिस तरह से फिल्म में रॉ के काम करने का तरीका
दिखाया गया हैं वह बड़ा ही हास्यास्पद हैं. “फोर्स २” से लगता हैं की हमारे फिल्म कार हमारी ५० वर्षो से भी पुरानी गुप्तचर संस्था
रॉ को ना अभी तक समझ सके हैं और ना ही इसका व्याख्यान कर सके हैं. “रॉ” जिसे पाकिस्तान अपने यहाँ पर होने वाले हर हादसे का
जिम्मेदार मानता हैं. इसकी वजह से आज अफ्रग़ानिस्तान एक इस्लामिक देश होने के
बावजूद भारत के नजदीक हैं ना की पाकिस्तान के. और “रॉ” ही एक मुख्य तह वजह हो सकती हैं की चाइना १९६२ के बाद कभी भी हमारे देश की सीमा को पार करने की
ज़ुर्रत नही कर पाया. “रॉ” की इन सभी सफलताओ के
मध्यक्रम “फोर्स २” में दिखाये गये “रॉ” के संदर्भ में टिप्पणी करने का अधिकार तो मुझे मिलना ही चाहिये.
१. फिल्म के शुरू होते ही, दिखाया गया हैं की किस तरह गुप्तचर विभाग एक दूसरे से संवाद करते हैं. लेकिन
यहाँ ये भूल गये की ये संवाद कभी भी cctv वाले स्टेशन पर एक पर्ची के आदान प्रदान के रूप
में नही होता. जहाँ तक में मानता हु, रॉ के हर ऑपरेशन की अलग कोड भाषा होगी. जिसे
अमूमन बड़ी ही चतुराई से और बहुत कम, इस्तेमाल किया जाता होगा. ये लब्जो के संवाद
में होगा ना की लिखित रूप में, क्युकी लिखित संवाद गैर के भी हाथ लग सकता हैं.
शायद दो गुप्तचर जो की एक ही मिशन पर हो
फिर भी वह एक दूसरे से अनजान हो सकते हैं.
२. फिल्म में दिखाया गया हैं की किस तरह
चीनी हमारे गुप्तचरों को मार देते हैं. ये मुमकिन नही हैं, कोई भी देश अपने यहाँ दुश्मन देश के जासूस को जिन्दा पकड़ना चाहेगा और उस से वह
सारी जानकारी उगलवाना चाहेगा जो की उसके लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं. और फिर, उसी जासूस को अपने लिये इस्तेमाल करना चाहेगा. अगर ये मुमकिन नहीं तो पर्दे के
पीछे रहकर दुश्मन देश से कई समझौते होंगे. अगर कोई भी विकल्प नही बचता तभी जासूस
की मोत होती हैं और कही भी खून का एक तिनका भी नही गिरता. लेकिन यहाँ तो कोई
बिल्डिंग से कूद रहा हैं तो कही किसी का सर कट रहा हैं. बड़ा ही हास्यास्पद हैं.
३. जासूस इस तरह के होते हैं जो की दुश्मन
के देश में जाकर कोई अनजान ना लगे जिस तरह पाकिस्तान में वही जासूस जा सकता हैं
जिसका रंग सफ़ेद हो और उत्तर भारतीय की तरह दिखता हो, इसे उर्दू और पंजाबी
ज़रुर आनी चाहिये. जबकि चीन में कोई हमारा उत्तर पूर्वी राज्य से ही हो सकता हैं
जिस के नैन नक्शे चीनियों की तरह हो. ये जासूस बड़ी ही लो प्रोफाइल लाइफ में रहते
हैं और अक्सर भीड़ भाड़ वाले इलाकों में ही रहता होगा. ये इस तरह नही हैं की दुश्मन
के देश में गये और काम शुरू कर दिया, नही. पहले ये वहा जाकर अपनी पृष्टभूमि बनाते
हैं और फिर काम शुरू होता हैं. लेकिन फिल्म में तो एक उत्तर भारतीय जो की किसी भी
तरह से चीनी नही लगता, पूरे चीन में इस तरह से घूम रहा होता हैं की ये
उसी का देश हैं.
४. अमूमन, इस तरह के ऑपरेशन में
गुप्तचर संस्था दुश्मन देश के किसी नागरिक को ही चुनती हैं वहा की जासूसी के लिये
लेकिन इस तरह के किसी भी गुप्तचर का इस फिल्म में कोई जिक्र तक नही हैं.
५. जिस तरह फिल्म में एक ही फ्लाइट में
सोनाक्षी सिन्हा और जॉन अब्राहम जाते हैं. इस तरह बिलकुल भी मुमकिन नही हैं, हर एजेंट किसी अलग फ्लाइट से दुश्मन के देश में जाता होगा, इससे खतरा कम रहता हैं की अगर एक पकड़ा भी गया तो दूसरा सुरक्षित होगा. उससे
पहले, जासूस की पूरी तरह से नये पहचान पत्र, पासपोर्ट और उस देश में जाने की वजह भी तलाशी जाती होगी जिस तरह कोई किसी
व्यापार या किसी कॉन्सर्ट की वजह से जा रहा हो लेकिन इस फिल्म से ये सब पूरी तरह
से नगारत हैं.
६. फिल्म में जॉन अब्राहम और सोनाक्षी
सिन्हा, चाइना में अपना रॉ का पहचान पत्र दिखा कर घूम रहे होते हैं.
जिस तरह मानो भारत में हो, अब इसे ज्यादा बचकाना क्या होगा.
७. फिल्म में जिस तरह विल्लन किरदार शिव को
पहली बार जाचा परखा जाता हैं वहा पर सोनाक्षी सिन्हा की घडी के साथ लगा ट्रांसमीटर
नही पकड़ा जाता, अमूमन यहाँ उस हर यंत्र को खोज लिया जाता होगा जो संवाद
पैदा करता हो फिर चाहे ट्रांसमीटर हो या और कोई डिवाइस.
८. अब जिस तरह से सड़क के बीचो बीच वह भी
दूसरे देश में बंदूक की गोलियां चल रही हैं और क़तल हो रहे हैं, ये मुमकिन नहीं हैं. कुछ क़तल खामोशी से होते होंगे और अगर बंदूक की गोली
चलेगी (अमूमन ये चलती नही हैं.) तभी उस पर साय्लंसर लगा होगा.
९. इस फिल्म में जॉन अब्राहम और सोनाक्षी
सिन्हा का भी लोकल नागरिक मददगार नही दिखाया गया हैं. ये मुमकिन नहीं, दुश्मन के देश में कोई तो अपना मिल ही जाता हैं.
१०. और जिस तरह फिल्म का अंत करने की कोशिश की
गयी हैं, ये वास्तव में एक फिल्म की कहानी का अंत ही हो सकता हैं. रॉ
में अंत नही होता होगा बस मिशन का नाम बदल जाता होगा.
लेकिन इस तरह की फिल्मो को देखकर,
सिनेमा प्रेमी अक्सर अपने आस पास कल्पना की
दुनिया में बैठकर जासूसी करने का इरादा रखते हैं, खास कर आज कल जो चलन चला हैं की हर जगह कैमरा लगावा कर
ऑफ़िस की केबिन में बैठकर कंप्यूटर की स्क्रीन पर नजर रखे रखना. लेकिन यहाँ भी कोई
असली जासूस आप को धोखा दे सकता हैं. ध्यान रखिये, फिल्मो से कही हटकर जासूसी होती हैं और की जाती हैं,
जय हिंद.
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