हमारे सभ्य समाज मे अक्सर सवांद को अधुरा ही
छोड़ दिया जाता है, अगर इसे पूरा करने की कोशिश भी की जाये तो ना चाहते हुये भी आपको
सवाल करने पड़ सकते है और सवाल पूछे जाना ये कही भी हमारी सभ्यता मे मंजूर नहीं है.
शायद इसी के चलते हमारे देश के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी जी ने, तारीख
०८-११-२०१६ को जब नोटबंदी की घोषणा की तब सिर्फ और सिर्फ इससे किस तरह हमारी अर्थ
व्यवस्था को फायदा पोह्चैगा और किस तरह काले धन पर रोक लगाई जा सकती इसी के भीतर
रहते हुये हमारे देश की जनता को प्राइम टाइम न्यूज़ चैनल्स पर सम्भोधित किया था.
यहाँ सिर्फ प्रवक्ता बोल रहा था किसी को भी शायद सवाल करने की आज्ञा नहीं थी. आज
जब नोट बंदी की घोषणा को लगभग 1 महीने से उप्पर हो गया है तो मेरी जेब खाली है,
बैंक मे पैसा है लेकिन बैंक के भीतर जाने से पहले बैंक का कर्मचारी पूछ रहा होता
है “सर, भीतर जाने की मनाही है. आप कैश लेने कल आईये आज नकदी खत्म हो गयी है. और
एटीएम मे भी पैसा नहीं है.” लेकिन आज ना हमारे प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र भाई
मोदी और ना ही बैंक का कर्मचारी बता रहा है की किस तरह नकदी के बिना मे अपने जीवन
का निर्भाह कर सकता हु ?
व्यक्तिगत रूप से पिछले कई सालो से नकदी मे ही
राशन लिया करते थे लेकिन अब वापिस से उधार वाली कापी को क्रियावंत कर लिया है. कई
दिनों से घर मे दूध उधारी से ही आ रहा है, सब्जी खरीदनी लगभग बंद कर दी है, और दाल
से ही काम चला रहे है. कुछ समझ नही आ रहा, ये उधार वाली कापी तो 1 दशक पहले ही बंद
कर दी थी लेकिन आज इसकी जरूरत फिर से क्यों पड़ रही है ? क्या इसका कारण विकास और
अर्थ व्यवस्था मे सुधार है ? अगर हां, तो मे इस विकास का हिस्सा क्यों नहीं बन पा
रहा हु ? आज मे ही क्यों हाथ फैलाने को मजबूर हु ? बैंक से कहा जाता है की अगर कैश
लेना है तो सुबह १० बजे आकर लाइन मे खडे हो जाये , २-३ घंटे लाइन मे खडे होने के
बाद यकीनन आपका नंबर आ जायेगा लेकिन उस समय तक कैश होगा या नहीं इसकी कोई गारंटी
नही है और ऑफिस से छुटी नहीं दी जाती, कहा जाता है की अगर काम छोड़ कर गये तो तनखाह
काट ली जायेगी. यानी मे आज नुकशान मे जी रहा हु, एक तरफ कुआ है और दूसरी तरफ खाई.
हमारी सरकारी व्यवस्था ना तो रोजगार पैदा कर पा रही है लेकिन इस नोट बंदी के चलते
कुछ और रोजगारो को जरुर बंद करने पर तुली हुई है, शायद मे व्यक्तिगत रूप से इसका
शिकार हो सकता हु.
अगर ये मान भी लिया जाये, की कुछ दिन इस तरह
बिना नकदी के जीने से हमारी अर्थ व्यवस्था मे सुधार आ पायेगा और कालेधन पर रोक
लगाई ज सकती है. लेकिन अब जब नोट बंदी की घोषणा को 1 महीने से ऊपर हो गया है और
करोड़ो की संख्या मे नई २००० रुपये की नोटों को जगह जगह से कालेधन के रूप मे बरामद
किया जा रहा है. तो ये कहना की कुछ सुधार हो पायेगा ये एक जुमले से ज्यादा कुछ और नही
लग रहा है और अगर ये कहा जाये की नोटबंदी के रूप मे जनता से एक तरह का मजाक किया गया
है तो इसके बारे मे आज किसी को भी संदेह नही हो सकता. इसी समझ का परिचय आज हर गली
और मोड़ पर खड़ा हमारे देश का नागरिक दे रहा है की सिर्फ और सिर्फ नोटों के कागज और
छपाई बदल जाने से कालेधन पर रोक नही लगाई जा सकती. तो क्या इस बात का अंदेशा हमारे
प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी को या इस देश की व्य्वश्था को नहीं था जो
आज़ादी के ७० वर्ष का जशन मनाने की भव्य तैयारी कर रही है ?
अभी नोटबंदी की मार तो झेल ही रहे है इसी बीच
राष्ट्रिय सवेक संघ आरएसएस के नेता नै कहा है की जल्द ही २००० के नये नोट भी सरकार
द्वारा बंद किये जा सकते है. अब इस भ्रम की स्थति को सुलझाने के लीये ये भी कहा जा रहा
है की भारत को दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिये और इसी के संदर्भ मे
भारत को कैशलेस बनने का प्रवचन दिया जा रहा है. शायद हमारे देश की पेहचान शहरों के
उदारीकरण के रूप मे ही देखी जा रही है जहा हर युवक के हाथ मे मोबाइल फ़ोन है और उसे
पता है की किस तरह इसका इस्तेमाल करना है. लेकिन क्या हमारी सरकार ये नही जानती की
हमारे देश की ज्यादातर आबादी दूर दराज के गावो मे और देहात मे बस्ती है, जहा आज भी
जीवन की मूलभूत सुविधाये जिस तरह बिजली, साफ़ पानी, पक्की सड़क, सुरक्षा, शिक्षा इत्यादि
तो पोहच नहीं पाई है. तो क्या इन्टरनेट आने वाले दिनों मे यहाँ पोहच पायेगा ? यदि
हा, जो की जमीनी हकीकत से कोसो दूर है तभी यहाँ किस तरह इन्टरनेट के माध्यम से नागरिक
को शिक्षित किया जाये की वह कैशलेस बन जाये ? थोडे से बंद के चलते उत्तर पूर्वी राज्यों
मे खाने की कीमतो मे और पट्रोल-डीजल के भाव आसमान को छु रहे होते है तो ऐसी
परिस्थति मे यहाँ कैशलेस किस तरह किया जा सकता है ? कुछ अक्षरों की जानकारी और गणित
के नंबर का जोड़-घटाव कर लेना कोई शिक्षा का माध्यम नही है. आज भी हमारे भारत देश
के गाव का युवा इतना शिक्षित नहीं है की वह कुछ ही दिनों मे काशलेस बन जाये. जीवन
का निर्भाव के लीये, सुबह से शाम तक घर की ग्रहणी को दूध, सब्जी, बच्चो के लीये
पेंसिल, इरेज़र, चोकलेट इत्यादि नकदी मे ही लेनी होती है. जो आज भी अपने घरवालो की
आज्ञा के बिना ना वोट दे सकती है और ना ही मोबाइल पर बात कर सकती है, वह किस तरह
कैशलेस को अपना सकती है ?
हमारी व्यवस्था दशको से हमारे नागरिक का
इम्तिहान ले रही है और कभी किसी फैसले के अंतर्गत और कभी किसी के, हर वक्त देश
भक्ति, सुरक्षा, अर्थ व्य्वश्था, कालाधन, रोजगार, इत्यादि शब्दों का इस्तेमाल किया
जाता रहा है.हमारी सरकार इसी भ्रम मे रहती है की देश का नागरिक उनके साथ खड़ा है. लेकिन
हर बार, हमारा नागरिक अपनी राय चुनाब मे अपना मत इस्तेमाल कर देता है. याद रहे, हमारे
दूर दराज के गाव मे और देहात मे आज भी मत देने का प्रमाण हमारे शहर के मत के
प्रमाण से कही अधिक होता है. लेकिन इस बार जिस तरह हमारे देश का नागरिक एटीएम की
लाइन मे और फिर बैंक की लाइन मे एक मूकदर्शक बन कर खड़ा है, उसके अंदर एक विद्रोह
जन्म ले रहा है, शायद ये २०१९ तक का इन्तेजार ना करे. ये निराशा अगर अपने चरण पर
पोहच गयी तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते है. शायद नोट बंदी के साथ साथ इस बार हमारा
नागरिक और भी कई सवाल कर सकता है जिसके जवाब हमारी सरकार के पास नही होगे. मानसिक
प्रवर्ती कई तरह के संदेश मानवीय तरंगो के जरिये देती है ये मानवीय तरंगे आज
मोबाइल फ़ोन की तरंगो से भी कही अधिक तेजी से प्रवाह करती है. तो इन्ही संदेशो को
सुनकर जल्द ही हमारी सरकार को कुछ ऐसे उपाय करने चाहिये की जिससे नकदी की कमी जल्दी
पूरी की जा सके अन्यथा नकदी की तंगी का परिणाम अति उग्र और सवांद रहित हो सकता है.
शायद फिर हमारे प्रधान मंत्री आज जिस विश्वास से सवांद करते है उनका ये विश्वास
कही डगमगा जा सकता है और शब्दों की कमी भी मेहसूस हो सकती है. जय हिंद.
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