सिख धर्म के सर्वोच्च श्री गुरु ग्रन्थ साहिब
जी में १० सिख गुरुयो में से ६ सिख गुरुयो की
गुरबाणी दर्ज हैं वही इस पावन ग्रन्थ में संत रविदास जी और संत कबीर जी, और भी कई भक्तो और संतो की की
बाणी भी दर्ज हैं. सिख धर्म में गुरबाणी के अनुसार और धार्मिक मर्यादा में भी कही
किसी उच्च नीच का फर्क नहीं हैं इसके विपरीत गुरबाणी हर तरह के भेदभाव पर कटाक्ष करती है फिर चाहे वह जात-पात का सामाजिक फर्क हो या महिला और परुष मे शारीरिक ताकत के पैमाने से भेदभाव हो. इसका प्रतीक गुरु का लंगर हैं जहाँ सभी लोग एक
पंगत में बैठकर भोजन खाते हैं. लेकिन जब धर्म को समाज में ढाल कर एक धार्मिक समाज
की रचना की जाती हैं तब इस तरह के समाज में अक्सर जात-पात अपनी जगह बना ही लेती
हैं. मेरे पंजाब के गाव जहां लगभग सभी लोग सिख धर्म में विश्वास रखते हैं लेकिन
गाव के समाज में भी ये जात-पात मौजूद हैं.
पंजाब के गाव कृषि प्रधान ही हैं और यहाँ सबसे
उच्च होने का मान सिर्फ किसान जाती से संबधित लोगो को ही हासिल हैं, जिसे पंजाबी भाषा में “जट” कहा जाता हैं. इसका एक
सामाजिक और आर्थिक कारण भी हैं, पंजाब के गाव् में ज्यादातर रोजगार खेती और पशु
पालन से ही जुड़े होते हैं और अभी भी किसी-किसी जगह पर मजदूर को मेहनताना अनाज के
रूप में ही दिया जाता हैं. और इन सभी प्रकार के रोजगार को पैदा करने वाला जमीन का
मालिक जट ही होता हैं. तो सारी सामाजिक सुख सुविधायो का मालिक भी जट ही हैं. इनके
यहाँ कइयो के आलिशान और बड़ा मकान होता हैं और इनके यहाँ शादियों पर लाखों खर्च
किये जाते हैं लेकिन मेंने व्यक्तिगत रूप से किसी भी जट को स्कूल की इमारत पर खर्च
करते हुये नही देखा. लेकिन यहाँ एक और विशेषता हैं की जट ये भी अलग-अलग गोत्र से
संबोधित होते हैं जिस तरह “सिधु”, “संधू”, “ढिल्लों”, “बजवा”, “धालीवाल”, इत्यादि. लेकिन इनके घर
भी गोत्र पत्ती के अनुसार गाव के अलग-अलग भागों में होते हैं. यानिकी सिंधु गोत्र
से संबधित सभी घर गाव के एक हिस्से में होंगे और ढिल्लो के दूसरे हिस्से में. मैने
बड़ी कोशिश की, कही ढिल्लो पती में किसी सिंधु का घर मिल जाये, लेकिन ऐसा हो ना सका. और ये सारे जमीनी भाग एक दूसरे जट पती से जुड़े हुये
होते हैं, यहाँ कही भी किसी और जाती से संबधित का घर आपको नही मिलेगा.
जट सिख की शादी किसी दूसरे जट सिख परिवार में ही हो सकती हैं बस दोनों वर-वधु
परिवार का गोत्र अलग होना चाहिये. राजनैतिक और सामाजिक, कोई भी क्षेत्र हो जट सिख का दबदबा पूरे पंजाब में हैं.
अब गाव के दूसरे हिस्से की बात करते हैं, इसे किस नाम से संबोधित किया जाता हैं ये में यहाँ नही लिख सकता. यहाँ मकान
छोटे और गलिया तंगदिल होती हैं. साफ़ सफाई पर विशेष ध्यान नहीं होता. शायद किसी
किसी घर में ही शोच होगा नहीं तो क्या पुरुष और क्या महिला, शोच करने के लिये खुले खेतों में ही जाते हैं. ज्यादातर लोग यहाँ शिक्षा से
अछूत ही रहते हैं. और रोजगार का पेशा परुष के लिये खेतों में मजदूरी होती हैं. ये
मजदूरी दैनिक दिहाड़ी भी हो सकती हैं और एक साल के लिये उच्चक्र पैसो पर जट के यहाँ
खेती पर काम करने की नौकरी भी हो सकती हैं. और महिला के लिये जट के घर पर काम करना, पशुयो का शोच उठाना और चावल की लगाई के समय या कपास को चुनने के लिये, खेतों में काम करना. अक्सर, जमीन का अभाव में अपने इक्के दुक्के पशुयो के
लिये ये औरते खुली सड़क पर, नदी, नहर, नाले के किनारों से घास काटती देखी जा सकती हैं. यहाँ सामाजिक खुशिया अक्सर मुंह फेर कर खड़ी होती हैं. इनके यहाँ
शादी विवाह के लिये ज्यादातर लोग पैसे जट से पैसा कर्जा उठाकर लेते हैं. और इसे
उतारने का तरीका सिर्फ और सिर्फ जट के खेतों में मजदूरी ही होती हैं. जट के यहाँ
काम करने पर, इनका भोजन जट के वही होता हैं जिसमें सुबह दाल या सब्जी, रोटी और लस्सी. इनके बर्तन ये घर से खुद लेकर आते हैं और जट के घर कही दूर
कोने में रखते हैं. इन्हें जट के घर, चौखट से आगे जाने की अनुमति नही होती. अक्सर जट
चारपाई पर बैठा होता हैं और खेती मजदूर जमीन पर. यहाँ जिंदगी एक तरह से सामाजिक
उपेक्षा सह रही होती हैं. राजनैतिक पार्टी भी इन्हें एक वोट बैंक के सिवा और कुछ
ज्यादा तब्जो नही देती.
हाँ, बदलते भारत में कुछ तर्ज पर हालात यहाँ भी बदले हैं,
पींडी दर पींडी जमीन कम हो रही हैं और कई जट
परिवार कुछ २-४ अकेड ज़मीन के मालिक ही रह गये हैं. इसी के चलते आज जट समुदाय
रोजगार के दूसरे क्षेत्र में भी अपने हाथ अजमा रहा हैं फिर चाहे वह ट्रांसपोर्ट और
या विदेश में जाना. वही सरकारी नौकरियों में जाती रिजर्वेशन के आधार पर लोगो को
नौकरिया दी जा रही हैं. लेकिन इससे भी कुछ ही गरीबों का भला हो रहा हैं. इन सभी
तरह के सामाजिक बदलाव के चलते भी मेरे गाव के हालात ज्यादा नहीं बदले हैं. अभी भी
जात-पात सामाजिक जीवन में उपेक्षा का कारण बनी हुई हैं. इस पर में खुद पर भी
व्यक्तिगत कटाक्ष करूंगा, कई बार सोचा की में किसी खेती मजदूर के साथ खाना क्यों नहीं
खा सकता ? गुरुद्वारे में तो एक पंगत में नीचे बैठ कर खाने में सुकून मेहसूस होता हैं तो
बाहर क्यों नही ? उसी तरह गुरुद्वारे में किसी के भी झूठे बर्तन धोने में सेवा का अहसास होता
हैं और बाहर क्यों नही ? अपनी उम्र के कई साल मैने इसके बारे में सोचा नही और अब जब सोचना शुरू किया
हैं तो अपनाने में पता नहीं कितना और समय लग जायेगा. जात-पात हमारे समाज में नहीं,
हमारी सोच में कट्टर रूप धारण कर बैठी हैं.
लेकिन अगर एक सुखी, सुरक्षित, सर्व सम्पन्न समाज की कल्पना को सच करना हैं, तो हमें जात-पात को जड़ से मिटाना होगा. अब धर्म को सिर्फ
और सिर्फ गुरद्वारे में ना होकर मेरे गाव की हर गली में सार्थक करना होगा. हर
नागरिक को उसका मूलभूत अधिकार देना होगा जो हमारे देश का संविधान कहता हैं. तभी
असली मायनो में एक ख़ूबसूरत और महान देश, भारत की नींव रखी जा सकती हैं. जय हिंद.
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