मेरे बचपन में क्रिकेट
और हम चार दोस्त, ये काफी था. महेद्र मेरे साथ ही पड़ता था, जीतू पड़ोस में रहता था
और विनोद हम सबसे बड़ा था और हमारे सामने वाले घर के एक रूम में अपने पापा के साथ
किराये पर रहता था. क्रिकेट विनोद के घर के आँगन में ही खेली जाती थी. लेकिन विनोद
के पापा के गुस्से से हम सब बहुत डरते थे और अक्सर उनके आने पर हम सबको सर पर पाँव
रखकर भागना पड़ता था. विनोद बिहार से बहुत गरीब घर से था और अकल ONGC में २४ घंटे जीप चलाते
थे. दिन की तीन शिफ्ट और रविवार को भी काम पर जाना, शायद ४-५ घंटे के लिये आराम कर
पाते होंगे. बस उनका एक ही सपना था की किसी भी तरह विनोद पड़ जाये और उसे जीप ना
चलानी पड़ जाये.
१९९० के आते आते, विनोद १२ विज्ञान
प्रवाह की कक्षा में आ गया था उन दिनों १२ विज्ञान का रिजल्ट कुछ ३०-३२% ही आता
था. और इसमें से पास होना भी अपने अपने आप में एक सफलता मानी जाती थी. लेकिन विनोद
के पापा नै विनोद से काफी उम्मीद लगा रखी थी. और इसी के कारण अब अंकल खाना भी खुद
बनाते थे जो की पहले विनोद बनाया करता था. अंकल ने अपनी पूरी जमा पूंजी विनोद की
पड़ाई पर लगा दी थी और गणित, रसायन, भौतिक और जीव विज्ञान के अलग अलग ट्यूशन भी लगा दिये
थे. विनोद बस पड़ता रहता था और अब हम साथ में क्रिकेट भी नही खेलते थे. बस आते जाते
विनोद का हाल चाल पूछ लिया करते थे.
लेकिन एक दिन रात के
कुछ १०-११ बजे होंगे, शायद अकल अभी अभी अपनी शिफ्ट पूरी कर के आये थे. हम
भी सब अपने जीवन में मस्त थे, सब कुछ समान्य रूप से चल रहा था. की इतने में, विनोद के घर से जोर
जोर से रोने की आवाज आने लगी. विनोद जोर जोर से रो रहा था और अपने पापा के हाथ जोड़
रहा था की उसे और ना मारे, लेकिन अंकल को पता नहीं उस दिन क्या हुआ था, अपने बेल्ट से विनोद
को मार रहे थे. इतने में सारे पडोसी इकट्ठा हो गये, मेरे मम्मी पापा भी दोड कर गये
लेकिन में कही हिम्मत नहीं कर पा रहा था और मे नहीं गया. लेकिन दूर से खड़ा होकर सब
सुनाई दे रहा था, अंकल कह रहे थे और शायद रो भी रहे थे “मैने अपनी जीवन की
सारी पूंजी इस पर लगा दी हैं. खुद भूखा रहता हु लेकिन इसे किसी भी चीज की कमी नहीं
होने देता. अब आप ही देखो अभी तो बारवी कक्षा कच्चे इम्तिहान हुये हैं और ये उसमे
भी फैल हो गया. अब आगे जाकर फाईनल परीक्षा में कैसे पास हो पायेगा.”. कुछ समय बाद सब शांत
हो गये और अंकल भी अपनी जीप लेकर चले गये. लेकिन विनोद के रोने की अभी भी सिस्किया
आ रही थी.
में भी उस रात सो नहीं
पाया, कही ना कही मुझे भी अपने माँ-बाप से डर सा लग रहा था और अंकल से घर्णा हो रही
थी. दूसरे दिन में विनोद से नजर नही मिला पाया और कही ना कही वह भी नजर नहीं उठा
पा रहा था. मुझे लानत सी मेहसूस हो रही थी और में सवाल भी कर रहा था की आखिर
क्यों विनोद का मारा गया ? क्या फैल होना एक
जुर्म हैं. हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चो का बचपन निखार तो नहीं सकती लेकिन इसे क्या
अधिकार है हमारे बचपन को तहस नहस करने का. हमे क्रिकेट खेलने से रोकने का. लेकिन
कुछ ही दिनों में अंकल वहा से रुम खाली कर कही दूसरी जगह चले गये थे और बिहार से
अपने पूरे परिवार को भी ले आये थे. और उस दिन के बाद में विनोद से कई सालो तक नही
मिला.
कुछ सालो पहले हम मेरी
भाई की दुकान पर एक बार फिर मिले लगभग कुछ २०-२२ सालो के बाद. विनोद मोटा हो गया
था, उसने शादी भी कर ली थी. और अब उसका खुद का मकान भी था. में पिछली बातें नहीं
दोहराना चाहता था और लग भी रहा था की विनोद सब कुछ भूल गया हैं. लेकिन उसने बातों
ही बातों में बताया की वह १२ कक्षा में फैल हो गया था और उसके बाद ITI का कोर्स कर एक दुकान
पर इलेक्ट्रीशियन का काम सिखा और फिर खुद की दुकान खोल ली. आज २-३ लड़के उसकी दुकान
पर काम करते हैं और विनोद मेरा दोस्त आज सेठ बन गया है. मुझे ये सुनकर बहुत खुशी
हो रही थी. लेकिन अगर हम अपना भविष्य देख पाते तो शायद अंकल उस दिन विनोद का ना
पीटते. लेकिन हम आखिर हैं तो इंसान ही.
अंत में, विनोद के माध्यम से ही
में अपने समाज और शिक्षा प्रणाली पर कटाक्ष ज़रुर करना चाहूंगा. क्या मार्कशीट के
नंबर ही हमारा भविष्य हैं ? क्या रटे मारकर लिये गये नंबर ही हमारी काबिलीयत का
प्रणाम हैं ? आखिर हमारी शिक्षा प्रणाली लकीर के फकीर तो पैदा कर रही हैं, अगर नहीं तो पिछले ५०
से ज्यादा सालो में हमने ऐसा क्या खोजा हैं जिससे मानवी जीवन और बेहतर हो सके ? शायद बहुत कम, क्युकी हमारी शिक्षा
प्रणाली हमें अपने बचपन से ही किताबों के भोज के नीचे इस तरह दबा देती हैं की सोच
को अनुमति नहीं होती की इसके दायरे के बाहर जाकर भी कुछ सोच सके. आज एक इंजीनियर
ज्यादातर या तो सेल्स का काम कर रहा हैं नहीं तो मार्केटिंग. कुछ नया खोजने की उसे
मानो अनुमति ही नहीं हैं ? लेकिन, आखिर में खुद को इस बात से समझा सकता हु की में अकेला
आखिर क्या कर सकता हु ? लेकिन हम सब मिलकर ज़रुर कर सकते हैं. आप भी सोचिये, क्युकी विनोद हमेशा
कही ना कही हमारे अगल बगल या हमारे अन्दर या कही भीतर बस्ता हैं. अगर आपको भी इस
शिक्षा प्रणाली ने कही ना कही कोई जख़्म दिये हैं तो सोचिये की कैसे दूर करे, ताकि आने वाली पींडी
ये जख़्म ना देखे. जय हिंद.
No comments:
Post a Comment