निर्भया के हत्याकांड के बाद कुछ बदला है ? व्यक्तिगत, विशेष व्यक्ति, गाव, शहर, समाज, सरकार, देश, इत्यादि इनकी मानसिकता कितनी बदली है या बदली भी है या नही ?. #हवाबदलीसीहै #हरबंस #जनाब #harbans



कितना आसान है बलात्कार को उचारित करना, कही भी इस शब्द के माध्यम से पीडिता के दर्द का एहसास नहीं होता. हिंदी भाषा मे बलात्कार का शाब्दिक अर्थ होता है  अत्याचार, अन्याय अर्थात अगर आप बलात्कार शब्द का संधि विच्छेद करे तो पाऐंगे कि बलपूर्वक या हठ से जो अन्याय या अत्याचार किया जाए.  अर्थात ये एक अपराध से ज्यादा कही भीतर पीडिता की आत्मा को छलनी कर देता है, ये वह एहसास है जिस के तहत सडक पर लड़की को छेड़ा जाता है, ऑफिस मे हाथ लगाकर बात की जाती है, भीड़ मे धक्का मारकर सॉरी कहा जाता है, इत्यादि. लेकिन देल्ही की सडक पर तारीख १६-१२-२०१२ को हुये इस दुखद हत्याकांड,  जिसे “निर्भया” अर्थात नीर-भय, भय रहित का नाम दिया गया इसके बारे मे जब मैं पड़ता हु, सुनता हु, सोचता हु या लिखता हु, तो मेरी रूह कांप जाती है एक अजीब सी कप-कपी सी झंझोड़ देती है. इस एहसास को कीस तरह परिभाषित करू, आसान से शब्दों मे “भय” कह सकता हु. शायद कुछ ऐसा ही अनुभव होगा की उस समय लोग सडको पर निकल आये थे, न्याय की मांग कर रहे थे. लग रहा था की भारत बदल जायेगा. लेकिन आज कुछ बर्षो के बाद व्यक्तिगत, विशेष व्यक्ति, गाव, शहर, समाज, सरकार, देश, इत्यादि इनकी मानसिकता कितनी बदली है या बदली भी है या नही ?. इस पर सोचना जरूरी है.

संगीत और फिल्म, आज हमारे जीवन का एक अभिनय अंग है. इसे गुनगनाते हुये या फिल्म के रूप मे देखते हुये, एक छुपे हुये सवांद के तहत ये हमारे जेहन मे एक मानसिकता को जन्म दे देता है, अगर इसे मनोरजन तक रखा जाये तो कुछ भी गलत नही है लेकिन अगर इसे जीवन की रूप रेखा दी जाये तो अपराध होना लाजमी है. निर्भया हत्याकांड के होने के कुछ दिन बाद ही एक फिल्म दबंग २ रिलीज़ होती है. इसके एक गीत की रूप रेखा मे एक लडकी, गाने के साथ साथ नाच भी रही होती है या यु कहै की झूम रही होती है. इस गीत के कुछ बोल यहाँ लिख रहा हु “उफ़ अंगडाइया लेती हु मे जब जोर जोर से, उह आह की आवाज़ है आती हर और से यहाँ उह आह का क्या मतलब निकाला जाये ? क्या इस तरह के आवाजो से इस गीत की नायिका अपनी सहमती दिखा रही है ? उसी तरह जब यही बोल एक लड़की के माध्यम से दिखाये जा रहे है तो इस मानसिकता का अनुसरण होना तो लाजमी है की बलात्कार कही भी एक अपराध नही है. बस लडकी पहले ना कहती है फिर मान जाती होगी. आज इस गीत को हम हमारे सभ्य समाज के हर पारिवारिक फंक्शन पर बड़ी शान से बजाते है, गाते भी है, नाचते भी है, कही भी कोई रोक टोक नहीं है. इसी तरह इस फिल्म का व्यवसाय कुछ २००-३०० करोड़ के आस पास था. तो सिनेमा हाल मे लाजमी सीटिया बजाई गयी होगी. बस अब ये सीटिया सिनेमा हाल से होकर रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, गली का नुक्क्ड, इत्यादि जगह पर जहा ३-४ लडके खडे है वहा से किसी लडकी के जाने पर या तो सिटी मारी जाती होगी या इस गीत को गुनगनाया जाता होगा. अफ़सोस की बात है की उन्ही रोज जब भारत का गुस्सा इसकी राजधानी की सडको पर निकल रहा था, वही इस फिल्म का व्यवसाय आसमान को छु रहा था. और आज भी इस तरह के आइटम गीतों की भरमार है हमारी फिल्मो मे फिर वह चाहे हिंदी भाषा मे हो या प्रादेशिक भाषा हर जगह मोजूद है. अर्थात यहाँ भी कुछ बदला नही है.

राजनैतिक गलियारों नै भी इस हत्याकांड पर बहस हुई, और इसके फलस्वरूप २०१३ मे बलात्कार के कानून को और अधिक सख्ती से लागु करने की बात कही गयी, इसके साथ साथ अपराधी को सजा ऐ मोत ऐलान करने का प्रावधान रखा गया. और भी कुछ अपराधो को इसके अंतर्गत लिया गया जिस तरह एसिड अटैक्स, योन उत्पीडन, इत्यादि. लेकिन जिस तरह होता आ रहा है हमारी ढीली ढाली व्यवस्था इसे कुछ अक्षरों मे लिखकर सविधान की रूप रेखा तो दे देती है लेकिन कही भी इस पर सख्ती से लागु कराने मे पूरी तरह नाकामयाब रहती है. शायद जो राजनैतिक नेता इसे लागु कर सकते है वह अति विशेष सुरक्षा कर्मचारियों के तहत सुरक्षा घेरे मे रहते है तो उन्हे किस तरह असुक्षित होने का आभास हो सकता है. शायद यही वजह है की आज सिर्फ देश की राजधानी देल्ही मे प्रतिदिन ओसतबलात्कार के ६ अपराध पंजीक्रत होते है. लेकिन शायद ये अपराध इससे कही ज्यादा होगे क्युकी सामाजिक मर्यादा के तहत आज भी पीडिता पुलिस तक पोहच नही कर पाती है. निर्भया ह्त्यांकांड के बाद और भी बलात्कार के अपराध पंजीकृत हुये और इनपर  कुछ राजनेताओ के ऐसे शर्मनाक बयाँ आये जो यहाँ लिखना अनुचित ही होगा. अर्थात यहाँ भी कुछ बदला नही है.

बलात्कार पर आज मीडिया इतना दिखा रहा है की ये बलात्कार आज अपने दर्द से ज्यादा एक बेचने वाली खबर के रूप मे देखा जा रहा है. इसी के तहत आज भारतीय नागरिक बलात्कार को अति सवेदनशील नही ले रहा, इसके विपरीत इस पर अपनी राय बना रहा है, जोक कर रहा है, व्हाट्स एप्प मेसेज कर रहा है “आई ऍम नोट क्राइंग लाइक ऐ रैप वुमन”. ये इस तरह से ज्ञान बाट रहा है की “बलात्कार एक अपराध नहीं है, अगर औरत कपडे छोटे पहने गी, लडको के साथ खिलखिलाकर बात करेगी, अकेली घर से बाहर आयेगी, इत्यादि तो बलात्कार होना तो लाजमी ही है ना.” आज भी हमारा सभ्य समाज का नागरिक चाहे वह गाव क हो या शहर का या किसी भी समुदाय से हो वह औरत को ही हिदायत देता है की किस तरह बलात्कार से बचाव हो सकता है. अर्थात यहाँ भी कुछ बदलाब नही हुआ है और अगर जमीनी हकीकत बयाँ करू तो उम्मीद नही है की कुछ बदलेगा अगर उम्मीद करना भी चाहू तो ये भी बेईमानी सा लग रहा है.

मे शुरआत से निर्भया बलात्कार को एक हत्याकांड के रूप मे ही बयाँ कर रहा हु क्युकी ये जुल्म सिर्फ शरीर तक सिमित नही था  जज्बात भी मारे गये थे कुचले गये थे, रूह भी घायल हुई थी. क्या अगर आज निर्भया जिंदा होती तो एक सामान्य जीवन का निर्भा कर सकती थी ? शायद नही. इस तरह का अपराध जीवन की रुची खत्म कर देता है. इसे रोकने के लीये हमारे नागरिक की मानसिकता को बदलने की जरूरत है शायद ये तभी बदली जा सकती है जब एक आम इंसान को बलात्कार के अपराध का ऐहसास होगा. मैने भी कुछ ऐसा ही किया अपनी कल्पना के माध्यम से अपनी सोच के भीतर खुद के हाथ पैर बांध कर खुद को अति कमजोर और दयनीय बना लिया. उस पर एक जंगली कुत्ता वही छोड़ दिया जो मुझे अपने पंजो से डरा रहा था, मुझे ,भोक कर डरा रहा था, अपने दांतों से मुझे नोचने बड ही रहा था की मे इस दर्द को और सह नही पाया. और हकीकत मे वापिस आ गया. हमे जब तक इस जंगली कुत्ते का ऐहसास नही होता जो बलात्कार के दर्द को बयाँ कर रहा है तब तक हमारी मानसिकता बदलना मुश्किल है. और ये तथ्य भी है के आज भी बलात्कार के अपराध दिन प्रति दिन बड रहे है और किसी की भी मानसिकता मे कोई बदलाब नही आया है. अगर सुरक्षा को समाज मे जीवित करना चाहते है तो हमे पहले हमारी मानसिकता बदल ने की जरूरत है. जय हिंद.



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